गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा Shri Brihaspativar Vrat Katha || गुरुवार की व्रत कथा || Guruvar Ki Vrat Katha || विष्‍णु भगवान की व्रत कथा || Vishnu Bhagwan Ki Vrat Katha||Lyrics in Hindi

श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा Shri Brihaspativar Vrat Katha || गुरुवार की व्रत कथा || Guruvar Ki Vrat Katha || विष्‍णु भगवान की व्रत कथा || Vishnu Bhagwan Ki Vrat Katha


पूजा विधि
बृहस्पतिवार को जो स्त्री-पुरुष व्रत करें उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें क्योंकि बृहस्पतेश्वर भगवान का इस दिन पूजन होता है भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का प्रयोग करें, पीले चन्दन से पूजन करें, पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएं पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं तथा धन, पुत्र विद्या तथा मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख शान्ति मिलती है, इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक, सब स्त्री व पुरुषों के लिए है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय तन, मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को बृहस्पतिदेव अवश्य पूर्ण करते हैं ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।

अथ श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा


भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बड़ा प्रतापी और दानी था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्‌मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।


एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा मांगी रानी ने भिक्षा देने से इन्कार किया और कहा- हे साधु महाराज मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूं। मेरा पति सारा धन लुटाता रहता है। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए फिर न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

साधु ने कहा- देवी तुम तो बड़ी अजीब हो। धन, सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा। परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली- महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बांटती फिरूं। साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्‌टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्‌टी चढ़ाकर कपड़े धोना, ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहां से आलोप हो गये।

जैसे वह साधु कह कर गया था रानी ने वैसा ही किया। छः बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि तुम यहां पर रहो मैं दूसरे देश में जाऊँ क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता। देश चोरी परदेश भीख बराबर है ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया वहां जंगल को जाता और लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेंचता इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।

एक दिन दुःखी होकर जंगल में एक पेड के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था। एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकडहारे के सामने आकर बोले- हे लकडहारे! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है? लकडहारे ने दोनों हाथ जोड कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं मैं क्या कहूं। यह कहकर रोने लगा और साधु को आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा- तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन वीर भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दिन कथा किया करो। दो पैसे के चने मुनक्का मंगवाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब कामनायें पूरी करेंगे।

साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला- हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं। साधु ने कहा- हे लकडहारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकडियां लेकर शहर को जाओ। तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी भी शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।

उस दिन से उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनावे न आग जलावे समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसके लिए फांसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहां पर दिखाई न दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है। उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया। जब लकडहारा कारागार में पड गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- अरे मूर्ख! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बृहस्पति के दिन उसे चार पैसे मिले। लकडहारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- हे राजा! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है उसे छोड देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तू ऐसा नही करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकडहारे को योग्य सुन्दर वस्त्र आभूषण देकर विदा किया। 

राजा के नगर छोड़कर जाने के बाद रानी का क्‍या हाल हुआ अब उसे सुनिये -

एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी, पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ ले आ, ताकि थोड़ी-बहुत गुजर-बसर हो जाए। 

दासी रानी की बहन के पास गई। उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी। दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया। जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया। दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी। 

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी। कथा सुनकर और पूजा समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी, हे बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। बताओ दासी क्यों आई थी? रानी बोली, बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं है। ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई। उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने की पूरी बात अपनी बहन को बता दी। 

रानी की बहन बोली, देखो बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं। देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया। ये देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई। दासी रानी से कहने लगी, हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें। तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। 

उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का केले की जड़ में अर्पित करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें। इससे बृहस्पतिदेव और भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। व्रत और पूजा की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई। सात दिन के बाद जब गुरुवार आया तो रानी और दासी ने व्रत रखा। वह घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं। फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान की पूजा की। अब पीला भोजन की चिंता को लेकर दोनों बहुत दुखी हुईं। चूंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे। वह एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में पीला भोजन दासी को दे गए। भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया। उसके बाद वह सभी गुरुवार को व्रत और पूजा करने लगी। बृहस्पति देव की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी। 

तब दासी बोली, देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था। इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब देव बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होने लगा है। रानी को समझाते हुए दासी कहती है कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने ये धन पाया है। इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखों को भोजन कराना चाहिए और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए। इससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे। दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी। इससे पूरे नगर में उसका यश बढ़ने लगा।

बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा जब अपने नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला है तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी और बांदी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने बांदी से कहा कि- हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट न जायें इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है तब उन्होंने कहा- हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।


राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्‌टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोककर राजा कहने लगा- अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो। वे बोले - लो! हमारा तो आदमी मर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले- अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम-राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।

आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देखा और उससे बोला- अरे भइया! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा उसके पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुंचा। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा- ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहिन बोली- हे भैया! यह देश ऐसा ही है कि पहले यहां लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आऊॅंं। वह ऐसा कहकर देखने चली गई परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लडका बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लडका ठीक हो गया अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।

एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से कहा। सास ने कहा हां चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है। बहन ने अपने भइया से कहा- हे भइया! मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं जाएगा। राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम क्या करोगी। बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा हम निरवंशी हैं। हमारा मुंह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली- हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा- हे राजा उठ। सभी सोच त्याग दे तेरी रानी गर्भ से है। राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला- हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती हे बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहिन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुनकर हां कर दिया।

जब राजा की बहिन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, तभी रानी ने कहा- घोड़ा चढ कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली- भाभी मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती। बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं, सभी को पूर्ण करते हैं, जो सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढता है अथवा सुनता है दूसरो को सुनाता है बृहस्पतिदेव उसकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

भगवान बृहस्पतिदेव उसकी सदैव रक्षा करते हैं संसार में जो मनुष्य सदभावना से भगवान जी का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने उनकी कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छायें बृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की थीं। इसलिए पूर्ण कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से उसका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए।


बृहस्पतिदेव की कथा || Brihaspati Dev Ki Katha

प्राचीन काल में एक ब्राह्मण रहता था, वह बहुत निर्धन था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलिनला के साथ रहती थी। वह स्नान न करती, किसी देवता का पूजन न करती, इससे ब्राह्मण देवता बड़े दुःखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कुछ परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्‌मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ। कन्या बड़ी होने पर प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप व बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके विद्यालय जाती तो अपनी मुट्‌ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। तब ये जौ स्वर्ण के जो जाते लौटते समय उनको बीन कर घर ले आती थी।

एक दिन वह बालिका सूप में उस सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि उसके पिता ने देख लिया और कहा - हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन बृहस्पतिवार था इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजपुत्र वहां से होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ उसके पास गए और बोले- हे बेटा तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है अथवा और कारण हो सो कहो मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। अपने पिता की राजकुमार ने बातें सुनी तो वह बोला- मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूं जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। यह सुनकर राजा आश्चर्य में पडाा और बोला- हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ। मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लडकी के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लडकी के घर गए और ब्राह्‌मण देवता को सभी हाल बतलाया। ब्राह्‌मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए तथा विधि-विधान के अनुसार ब्राह्‌मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।

कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्‌मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्‌मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्‌मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्‌मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्‌मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सारा हाल कहा तो लडकी बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्‌मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो अपनी मां को समझाने लगी- हे मां तुम प्रातःकाल प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जावेगी। परन्तु उसकी मांग ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन को खा लिया। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला तथा स्नानादि कराके पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई और फिर प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसके मां बाप बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए और बृहस्पतिजी के प्रभाव से इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।

सब बोलो विष्णु भगवान की जय। बोलो बृहस्पति देव की जय

।। बृहस्‍पति देव की आरती ।। Brihaspati Dev Ki Aarti
जय बृहस्पति देवा, ॐ जय बृहस्पति देवा।
छिन छिन भोग लगाऊं, कदली फल मेवा॥
ॐ जय बृहस्पति देवा ।।१।।
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी॥
ॐ जय बृहस्पति देवा।।२।।
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।३।।
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े॥
ॐ जय बृहस्पति देवा।।४।।
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी॥
ॐ जय बृहस्पति देवा।।५।।
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारी।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी॥
ॐ जय बृहस्पति देवा।।६।।
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे।
जेष्‍ठानंद आनंदकर, सो निश्चय पावे॥
ॐ जय बृहस्पति देवा।।७।।
सब बोलो विष्णु भगवान की जय!
बोलो बृहस्पतिदेव की जय!!

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विनम्र अनुरोध: अपनी उपस्थिति दर्ज करने एवं हमारा उत्साहवर्धन करने हेतु कृपया टिप्पणी (comments) में जय श्री बृहस्पति देेव अवश्य अंकित करें।

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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

मंगलवार व्रत की आरती Mangalvar Vrat Ki Aarti // मंगल मूरति जय जय हनुमन्ता // Mangal Murati Jay Jay Hanumanta

मंगलवार व्रत की आरती // Mangalvar Vrat Ki Aarti // मंगल मूरति जय जय हनुमन्ता // Mangal Murati Jay Jay Hanumanta


मंगल मूरति जय जय हनुमन्ता, मंगल मंगल देव अनन्ता
हाथ वज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेउ साजे
शंकर सुवन केसरी नन्दन, तेज प्रताप महा जग वन्दन॥

लाल लंगोट लाल दोउ नयना, पर्वत सम फारत है सेना
काल अकाल जुद्ध किलकारी, देश उजारत क्रुद्ध अपारी॥

राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवन सुत नामा
महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥

भूमि पुत्र कंचन बरसावे, राजपाट पुर देश दिवाव
शत्रुन काट-काट महिं डारे, बन्धन व्याधि विपत्ति निवारें॥

आपन तेज सम्हारो आपे, तीनो लोक हांक ते कांपै
सब सुख लहैं तुम्हारी शरणा, तुम रक्षक काहू को डरना॥

तुम्हरे भजन सकल संसारा, दया करो सुख दृष्टि अपारा
रामदण्ड कालहु को दण्डा, तुमरे परस होत सब खण्डा॥

पवन पुत्र धरती के पूता, दो मिल काज करो अवधूता
हर प्राणी शरणागत आये, चरण कमल में शीश नवाये॥

रोग शोक बहुत विपत्ति घिराने, दरिद्र दुःख बन्धन प्रकटाने
तुम तज और न मेटन हारा, दोउ तुम हो महावीर अपारा॥

दारिद्र दहन ऋण त्रासा, करो रोग दुःस्वप्न विनाशा
शत्रुन करो चरन के चेरे, तुम स्वामी हम सेवक तेरे॥

विपत्ति हरन मंगल देवा अंगीकार करो यह सेवा
मुदित भक्त विनती यह मोरी, देउ महाधन लाख करोरी॥

श्री मंगल जी की आरती हनुमत सहितासु गाई
होइ मनोरथ सिद्ध जब अन्त विष्णुपुर जाई

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

श्री मंगलवार व्रत कथा Shri Mangalvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | Shri Hanuman Ji Vrat Katha

श्री मंगलवार व्रत कथा Shri Mangalvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | Shri Hanuman Ji Vrat Katha 

मंगलवार के व्रत की महत्ता | Mangalwar Ke Vrat Ki Mahatta

हमारा देश भारतवर्ष धर्म-परायण एवं व्रतों का देश है, हमारे यहां वार, मास, संक्रान्ति, तिथि आदि सभी के लिए अलग-अलग व्रत हैं। प्रत्येक व्रत का अलग-अलग महत्त्व और फल है। व्रत न केवल अपने आराध्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, सुख शान्ति की कामना, धन, पति, पुत्र प्राप्ति हेतु बल्कि महाकष्ट, असाध्य रोगों के समूद दमन, अपने पूर्व पापकर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले दुःखों के निवारण हेतु प्रायश्चित्त रूप में भी किये जाते हैं। वास्तव में संसार महासागर में मानव मात्र के जीवन रूपी नौका को पार लगाने वाले, मोह-माया के बंधनों से मुक्त हो भगवान के ध्यान में लग मोक्ष की प्राप्ति में सहायक अगर कोई है तो यह व्रत है।

बीमारी एवं शारीरिक कष्टों को दूर कने लिए विभिन्न प्रकार के व्रतों का उल्लेख हमारे शास्त्रों में किया गया है। मानव को मिलने वाले सुखों-दुःखों का मूल कारण उसके पाप एवं पुण्य कर्मों का फल है। पाप कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले कष्टों को दूर करने, एवं अपने पापों का प्रायश्चित्त व्रत द्वारा ही संभव है। प्रायश्चित्त में दान-उपवास, जप-हवन-उपासना प्रमुख हैं। यह सब कार्य व्रत में ही किये जाते हैं। प्रायश्चित्त करने से पाप और रोग दोनों ही क्षीण हो जाते हैं और जीवन में आरोग्य एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है। मंगल, यदि जन्म-लग्न, वर्ष-लग्न, महादशा, प्रत्यन्तर दशा आदि गोचर में अनिष्टकारी हो तो उसकी शांति के लिए मंगलवार का व्रत किया जाता है।

मंगल के प्रदायक देवता का वार है मंगलवार। मंगल के देवता जब प्रसन्न हो जाते हैं तो अपार धन-सम्पत्ति, राज-सुख, निरोगता, ऐश्वर्य, सौभाग्य, पुत्र-पुत्री प्रदान किया करते हैं। युद्ध विवाद में शत्रुओं पर विजय, नौकरी में उच्च पद की प्राप्ति यह सभी मंगल की कृपा से ही मिलता है। दुर्भाग्य वश अगर मंगल देवता रुष्ट हो जाएं, अगर मंगल देवता नीच स्थान में हो अर्थवा मंगल की दशा बदल कर क्रूर हो जाए तो यह देव सुख, वैभव, भोग, सन्तान तथा धन को नष्ट कर दिया करता है। सुख-वैभव, सन्तान की प्राप्ति तथा दुःख और कष्टों के निवारण हेतु मंगलवार का व्रत करना चाहिए, स्वभाव की क्रूरता, रक्त विकार, सन्तान की चिन्ता, सन्तान को कष्ट, कर्जे को चुकाना, धन की प्राप्ति न होना आदि निवारण हेतु मंगलवार का व्रत अति उत्तम एवं श्रेष्ठ साधन है। श्री हनुमान जी की उपासना से वाचिक, मानसिक और संसर्ग जनित पाप, उप-पाप तथा महापाप से दूर होकर सुख, धन तथा यश लाभ होता है।

सभी प्रकार के सुख-ऐश्वर्य, रक्त विकार, राज दरबार में सम्मान, उच्च पद प्राप्ति एवं पुत्र प्राप्ति के लिए मंगलवार का व्रत किया जाता है।

मंगलवार के व्रत की विधि | Mangalwar Ke Vrat Ki Vidhi


मंगलवार के व्रत को प्रत्येक स्त्री-पुरुष कर सकता है। मंगलवार के दिन प्रातःकाल उठ कर अपामार्ग या ओंगा की दातुन करके तिल और आंवले के चूर्ण को लगा कर नदी, तालाब अथवा घर में स्नान करें। स्वच्छ लाल रंग के वस्त्र धारण कर लाल चावलों का अष्ट दल कमल बनावें उस पर स्वर्ण की मूर्ति बनवाकर प्रतिष्ठादि करें। लाल अक्षत, लाल पुष्प, लाल चन्दन एवं लाल धान्य गेहूं सूजी आदि के बने हुए पदार्थों का भोग लगावें, घर को गोबर से लीप कर स्थान पवित्र करें फिर पत्नी सहित मंगल देवता का पूजन करें। मंगल देवता का ध्यान करें एवं उसके इक्कीस नामों का जाप करें जो निम्न हैं-

मंगल देवता के इक्कीस नाम | Mangal Devta Ke Ikkees Nam


१. मंगल २. भूमिपात्र ३. ऋणहर्ता ४. धनप्रदा ५. स्थिरासन ६. महाकाय ७. सर्वकामार्थसाधक ८. लोहित ९. लोहिताज्ञ १०. सामगानंकृपाकर ११. धरात्मज १२. कुज १३. भौम १४. भूमिजा १५. भूमिनन्दन १६. अंगारक १७. यम १८. सर्वरोगहारक १९. वृष्टिकर्ता २०. पापहर्ता २१. सब काम फल दाता

नाम जप के साथ सुख सौभाग्य के लिए प्रार्थना करें। पूजन की जगह पर घी की चार बत्तियों का चौमुखा दीपक जलावें। इक्कीस दिन मंगलवार का व्रत करें और इक्कीस लड्‌डुओं का भोग लगाकर वेद के ज्ञाता सुपात्र ब्राह्‌मण को दें। दिन में केवल एक बार ही भोजन करें।

इक्कीस व्रतों के अथवा इच्छा पूर्ति होने परे मंगलवार के व्रत का उद्यापन करें। उद्यापन के अन्त में इक्कीस ब्राह्‌मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति स्वर्णदान करें। आचार्य को सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर लाल बैल का दान करें फिर स्वयं भोजन करें।

मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो उस दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर मंगलयंत्र का निर्माण करें या मंगल देव की मूर्ति बनावें, मंगल की मूर्ति का लाल पुष्पों से पूजन करें, लाल वस्त्र पहनावें और गुड़, घी, गेहूं के बने पदार्थों का भोग लगावें। रात्रि के समय एक बार भोजन करें। पृथ्वी पर शयन करें, इस प्रकार मंगलवार का व्रत करें और सातवें मंगलवार को मंगल की स्वर्ण की मूर्ति का निर्माण कर उसका पूजन अर्चन करें, दो लाल वस्त्रों से आच्छादित करें, लाल चन्दन, षटगंध, धूप, पुष्प, सदचावल, दीप आदि से पूजा करें, सफेद कसार का भोग लगावें। तिल, चीनी, घी का सांकल्य बना कर 'ओम कुजाय नमः स्वाहा' से हवन करें। हवन और पूजा के बाद ब्राह्‌मण को भोजन करावें और मंगल की मूर्ति ब्राह्‌मण को दक्षिणा में दें तो मंगल ग्रह जनित सभी अनिष्टों की समाप्ति हो व्रत के प्रभाव से सुख-शान्ति यश और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

मंगलवार की पूजा करने, व्रत करने, मंगलवार की कथा सुनने, आरती करने और प्रसाद भक्तों में बाटने से सब प्रकार की विपत्ति नष्ट हो कर सुख मिलता है, और जीवन पर्यन्त पुत्र-पौत्र और धन आदि से युक्त हो कर अन्त में विष्णु लोक को जाता है और सभी प्रकार के ऋण से उऋण हो कर धनलक्ष्मी की प्राप्ति होती है। स्त्री तथा कन्याओं को यह व्रत विशेष रूप से लाभप्रद है। उनके लिए पति का अखण्ड सुख संपत्ति तथा आयु की प्राप्ति होती है और वह सदा सुहागिन रहती हैं अर्थात्‌ कभी भी विधवा नहीं होती हैं। स्त्रियों को मंगलवार के दिन पार्वती मंगल, गौरी पूजन करके मंगलवार व्रत विधि कथा अथवा मंगला गौरी व्रत कथा सुननी चाहिए। यह कथा सर्वकल्याण को देने वाली होती है।

मंगलवार व्रत कथा | Mangalvar Vrat Katha


व्यास जी ने कहा- एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में अस्सी हजार मुनि एकत्र हो कर पुराणों के ज्ञाता श्री सूत जी से पूछने लगे- हे महामुने! आपने हमें अनेक पुराणों की कथाएं सुनाई हैं, अब कृपा करके हमें ऐसा व्रत और कथा बतायें जिसके करने से सन्तान की प्राप्ति हो तथा मनुष्यों को रोग, शोक, अग्नि, सर्व दुःख आदि का भय दूर हो क्योंकि कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है। फिर इस पर उन्हें रोग-चिन्ता के कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वह श्री हरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे।

श्री सूत जी बोले- हे मुनियों! आपने लोक कल्याण के लिए बहुत ही उत्तम बात पूछी है। एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से लोक कल्याण के लिए यही प्रश्न किया था। भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद तुम्हारे सामने कहता हूं, ध्यान देकर सुनो।

एक समय पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण जी बैठे हुए थे। तब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- हे प्रभो, नन्दनन्द, गोविन्द! आपने मेरे लिए अनेकों कथायें सुनाई हैं, आज आप कृपा करके ऐसा व्रत या कथा सुनायें जिसके करने से मनुष्य को रोग-चिन्ता का भय समाप्त हो और उसको पुत्र की प्राप्ति हो, हे प्रभो, बिना पुत्र के जीवन व्यर्थ है, पुत्र के बिना मनुष्य नरकगामी होता है, पुत्र के बिना मनुष्य पितृ-ऋण से छुटकारा नहीं पा सकता और न ही उसका पुन्नग नामक नरक से उद्धार हो सकता है। अतः पुत्र दायक व्रत बतलाएं।

श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन्‌ ! मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, आप उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक ब्राह्‌मण रहता था। भगवान की कृपा से उसके पास सब कुछ था, फिर भी वह दुःखी था। इसका कारण यह था कि ब्राह्‌मण की स्त्री सुनन्दा के कोई सन्तान न थी। सुनन्दा पतिव्रता थी। भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। मंगलवार के दिन व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी का भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन करती थी। एक बार मंगलवार के दिन ब्राह्‌मणी गृह कार्य की अधिकता के कारण हनुमान जी को भोग न लगा सकी, तो इस पर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब तो अगले मंगलवार को ही हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करूंगी।

ब्राह्‌मणी सुनन्दा प्रतिदिन भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक पति को खिलाती, परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती और मन ही मन श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए, और ब्राह्‌मणी सुनन्दा अपने निश्चय के अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, अगले मंगलवार को ब्राह्‌मणी सुनन्दा प्रातः काल ही बेहोश होकर गिर पड़ी।

ब्राह्‌मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति के प्रभाव से श्री हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले- सुनन्दा ! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू उठ और वर मांग।

सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर आनन्द की अधिकता से विह्‌वल हो श्री हनुमान जी के चरणों में गिरकर बोली- 'हे प्रभु, मेरी कोई सन्तान नहीं है, कृपा करके मुझे सन्तान प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी अति कृपा होगी।'

श्री महावीर जी बोले -'तेरी इच्छा पूर्ण होगी। तेरे एक कन्या पैदा होगी उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।' इस प्रकार कह कर श्री महावीर जी अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्‌मणी सुनन्दा बहुत हर्षित हुई और सभी समाचार अपने पति से कहा, ब्राह्‌मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए, परन्तु सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए। विचार किया कि ऐसी कन्या के साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी।

श्री हनुमान जी की कृपा से वह ब्राह्‌मणी गर्भवती हुई और दसवें महीने में उसे बहुत ही सुन्दर पुत्री प्राप्त हुई। यह बच्ची, अपने पिता के घर में ठीक उसी तरह से बढ़ने लगी, जिस प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ ता है। दसवें दिन ब्राह्‌मण ने उस बालिका का नामकरण संस्कार कराया, उसके कुल पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में बड़े ही विधान से मंगलदेव का व्रत किया था।

रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, उस सोने से नन्दा ब्राह्‌मण बहुत ही धनवान हो गय। अब ब्राह्‌मणी भी बहुत अभिमान करने लगी थी। समय बीतता रहा, अब रत्नावली दस वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्‌मण प्रसन्न चित्त था, तब सुनन्दा ने अपने पति से कहा- 'मेरी पुत्री रत्नावली विवाह के योग्य हो गयी है, अतः आप कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर दें।' यह सुन ब्राह्‌मण बोला- 'अभी तो रत्नावली बहुत छोटी है' । तब ब्राह्‌मणी बोली- 'शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी, नौ वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके पश्चात रजस्वला हो जाती है। गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है, राहिणी के दान से बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है, कन्या के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का दान किया जाता है तो घोर नर्क की प्राप्ति होती है।'

इस पर ब्राह्‌मण बोला -'अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी जल्दी क्या है।' तब ब्राह्‌मणी सुनन्दा बोली- ' आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता है। शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।'

तब ब्राह्‌मण बोला-'अच्छी बात है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेजूंगा।' दूसरे दिन ब्राह्‌मण ने अपने दूत को बुलाया और आज्ञा दी कि जैसी सुन्दर मेरी कन्या है वैसा ही सुन्दर वर उसके लिए तलाश करो। दूत अपने स्वामी की आज्ञा पाकर निकल पड़ा। पम्पई नगर में उसने एक सुन्दर लड के को देखा। यह बालक एक ब्राह्‌मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र था, इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने इस सुन्दर व गुणवान ब्राह्‌मण पुत्र के बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया। ब्राह्‌मण नन्दा को भी सोमेश्वर अच्छा लगा और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक कन्या दान करके ब्राह्‌मण-ब्राह्‌मणी संतुष्ट हुए।

परन्तु! ब्राह्‌मण के मन तो लोभ समाया हुआ था। उसने कन्यादान तो कर दिया था पर वह बहुत खिन्न भी था। उसने विचार किया कि रत्नावली तो अब चली जावेगी, और मुझे इससे जो सोना मिलता था, वह अब मिलेगा नहीं। मेरे पास जो धन था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष बचा है वह भी कुछ दिनों पश्चात समाप्त हो जाएगा। मैंने तो इसका विवाह करके बहुत बड़ी भूल कर दी है। अब कोई ऐसा उपाय हो कि रत्नावली मेरे घर में ही बनी रहे, अपनी ससुराल ना जावे। लोभ रूपी राक्षस ब्राह्‌मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर अपनी शैय्‌या पर बेचैनी से करवटें बदलते-बदलते उसने एक बहुत ही क्रूर निर्णय लिया। उसने विचार किया कि जब रत्नावली को लेकर उसका पति सोमेश्वर अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर सोमेश्वर का वध कर देगा और अपनी लड की को अपने घर ले आवेगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता रहेगा और समाज का कोई मनुष्य उसे दोष भी नहीं दे सकेगा।

प्रातःकाल हुआ तो, नन्दा और सुनन्दा ने अपने जमाई तथा लड की को बहुत सारा धन देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से अपने घर की तरफ चल दिया।

ब्राह्‌मण नन्दा महालोभ के वशीभूत हो अपनी मति खो चुका था। पाप-पुण्य को उसे विचार न रहा था। अपने भयानक व क्रूर निर्णय को कार्यरूप देने के लिए उसने अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया था ताकि रत्नावली से प्राप्त होने वाला सोना उसे हमेशा मिलता रहे और वो कभी निर्धन न हों ब्राह्‌मण के दूत ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए उसके जमाई सोमेश्वर का मार्ग में ही वध कर दिया। समाचार प्राप्त कर ब्राह्‌मण नन्दा मार्ग में पहुंचा और रुदन करती अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-'हे पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया है। भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष जीवन व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।'

अपने पति की अकाल मृत्यु से रत्नावली बहुत दुःखी हुई। करुण क्रन्दन व रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- 'हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का पति नहीं है उसका जीना व्यर्थ है, मैं अपने पति के साथ ही अपने शरीर को जला दूंगी और सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा सास-ससुर के यश को सार्थक करूंगी।'

ब्राह्‌मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के वचनों को सुनकर बहुत दुःखी हुआ। विचार करने लगा- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया। रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो दोनों तरफ से मरण हो गया। धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई वध के पाप के फलस्वरूप यम यातना भी भुगतनी पड़ेगी। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।

सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने की इच्छा से अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को अग्नि लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-'हे रत्नावली! मैं तेरी पति भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू वर मांग।' रत्नावली ने अपने पति का जीवनदान मांगा। तब मंगल देव बोले-'रत्नावली! तेरा पति अजर-अमर है। यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो वर मांग।'

तब रत्नावली बोली- 'हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो, स्वजनों का कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे, जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो।''

मंगलदेव -'तथास्तु' कह कर अन्तर्ध्यान हो गये।

सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को करके व्रतराज और मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त में अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।

॥इति श्री मंगलवार व्रत कथा॥

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

श्री हनुमान चालीसा || Shri Hanumaan Chalisa || जय हनुमान ज्ञान गुण सागर || Jay Hanuman Gyan Gun Sagar

श्री हनुमान चालीसा || Shri Hanumaan Chalisa || जय हनुमान ज्ञान गुण सागर || Jay Hanuman Gyan Gun Sagar, Lyrics in Hindi and English

श्रीहनुमते नमः
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श्रीगुरु चरन सरोज रज 
निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु 
जो दायकु फल चारि।
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बुद्धिहीन तनु जानिके 
सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं 
हरहुं कलेस बिकार॥
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जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥
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राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
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महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥
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कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥
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हाथ बज्र और ध्वजा बिराजै।
कांधे मूंज जनेउ साजै॥
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संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बंदन॥
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बिद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लषन सीता मन बसिया॥
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सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
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भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचन्द्र के काज संवारे॥
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लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई॥
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
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सनकादिक ब्रह्‌मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥
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जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥
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तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
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तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
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जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।
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दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
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राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रच्छक काहू को डर ना॥
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आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै॥
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भूत पिसाच निकट नहिं आवैं।
महाबीर जब नाम सुनावै॥
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नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
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संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
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सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥
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और मनोरथ जो कोइ लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥
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चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥
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साधु सन्त के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥
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राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥
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तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥
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अंत काल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरि-भक्त कहाई॥
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और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
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संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
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जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
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जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहिं बंदि महा सुख होई॥
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
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तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महं डेरा॥
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पवनतनय संकट हरन 
मंगल मूरति रूप।
राम लषन सीता सहित 
हृदय बसहु सुर भूप॥
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श्री हनुमान चालीसा || Shri Hanumaan Chalisa || जय हनुमान ज्ञान गुण सागर || Jay Hanuman Gyan Gun Sagar

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Shrīguru charan saroj raj 
Nij manu mukuru sudhāri
Baranau raghubar bimal jasu 
Jo dāyaku fal chāri
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Buddhihīn tanu jānike 
Sumirauan pavana-kumāra
Bal budhi bidyā dehu mohian 
Harahuan kales bikāra
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Jaya hanumān jnyān gun sāgara
Jaya kapīs tihuan lok ujāgara
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Rām dūt atulit bal dhāmā
Aanjani-putra pavanasut nāmā
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Mahābīr bikram bajarangī
Kumati nivār sumati ke sangī
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Kanchan baran birāj subesā
Kānan kuanḍal kuanchit kesā
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Hāth bajra aur dhvajā birājai
Kāandhe mūanja janeu sājai
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Sankar suvan kesarīnandana
Tej pratāp mahā jag bandana
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Bidyāvān gunī ati chātura
Rām kāj karibe ko ātura
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Prabhu charitra sunibe ko rasiyā
Rām laṣhan sītā man basiyā
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Sūkṣhma rūp dhari siyahian dikhāvā
Bikaṭ rūp dhari lanka jarāvā
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Bhīm rūp dhari asur sanhāre
Rāmachandra ke kāj sanvāre
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Lāya sajīvan lakhan jiyāye
Shrīraghubīr haraṣhi ur lāye
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Raghupati kīnhīan bahut baḍaāī
Tum mam priya bharatahian sam bhāī
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Sahas badan tumharo jas gāvaian
As kahi shrīpati kanṭha lagāvaian
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Sanakādik brahmādi munīsā
Nārad sārad sahit ahīsā
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Jam kuber digapāl jahāan te
Kabi kobid kahi sake kahāan te
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Tum upakār sugrīvahian kīnhā
Rām milāya rājapad dīnhā
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Tumharo mantra bibhīṣhan mānā
Lankesvar bhae sab jag jānā
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Jug sahasra jojan par bhānū
Līlyo tāhi madhur fal jānū
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Prabhu mudrikā meli mukh māhīan
Jaladhi lāanghi gaye acharaj nāhīan
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Durgam kāj jagat ke jete
Sugam anugrah tumhare tete
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Rām duāre tum rakhavāre
Hot n ājnyā binu paisāre
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Sab sukh lahai tumhārī saranā
Tum rachchhak kāhū ko ḍar nā
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Āpan tej samhāro āpai
Tīnoan lok hāanka tean kāanpai
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Bhūt pisāch nikaṭ nahian āvaian
Mahābīr jab nām sunāvai
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Nāsai rog harai sab pīrā
Japat nirantar hanumat bīrā
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Sankaṭ tean hanumān chhuḍaāvai
Man kram bachan dhyān jo lāvai
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Sab par rām tapasvī rājā
Tin ke kāj sakal tum sājā
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Aur manorath jo koi lāvai
Soī amit jīvan fal pāvai
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Chāroan jug paratāp tumhārā
Hai parasiddha jagat ujiyārā
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Sādhu santa ke tum rakhavāre
Asur nikandan rām dulāre
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Aṣhṭa siddhi nau nidhi ke dātā
As bar dīn jānakī mātā
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Rām rasāyan tumhare pāsā
Sadā raho raghupati ke dāsā
**
Tumhare bhajan rām ko pāvai
Janam janam ke dukh bisarāvai
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Aanta kāl raghubar pur jāī
Jahāan janma hari-bhakta kahāī
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Aur devatā chitta n dharaī
Hanumat sei sarba sukh karaī
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Sankaṭ kaṭai miṭai sab pīrā
Jo sumirai hanumat balabīrā
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Jai jai jai hanumān gosāīan
Kṛupā karahu gurudev kī nāīan
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Jo sat bār pāṭh kar koī
Chhūṭahian bandi mahā sukh hoī
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Jo yah paḍhaai hanumān chālīsā
Hoya siddhi sākhī gaurīsā
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Tulasīdās sadā hari cherā
Kījai nāth hṛudaya mahan ḍerā
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Pavanatanaya sankaṭ haran 
Mangal mūrati rūpa
Rām laṣhan sītā sahit 
Hṛudaya basahu sur bhūp
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