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रविवार, 7 सितंबर 2025

श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा | Shukravar Vrat Katha | शुक्रवार व्रत कथा

श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा || Shri Vaibhav Laxmi Vrat Katha || शुक्रवार व्रत कथा || Shukravar Vrat Katha

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सुख, शांति, वैभव और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए अद्भुत चमत्कारी प्राचीन व्रत
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वैभव लक्ष्मी व्रत करने का नियम Vaibhav Lakshmi Vrat Karne Ka Niyam
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1. यह व्रत सौभाग्यशाली स्त्रियां करें तो उनका अति उत्तम फल मिलता है, पर घर में यदि सौभाग्यशाली स्त्रियां न हों तो कोई भी स्त्री एवं कुमारिका भी यह व्रत कर सकती है।
2. स्त्री के बदले पुरुष भी यह व्रत करें तो उसे भी उत्तम फल अवश्य मिलता है।
3. यह व्रत पूरी श्रद्धा और पवित्र भाव से करना चाहिए। खिन्न होकर या बिना भाव से यह व्रत नहीं करना चाहिए। 
4. यह व्रत शुक्रवार को किया जाता है। व्रत शुरु करते वक्त 11 या 21 शुक्रवार की मन्नत रखनी पड़ती है और बताई गई शास्त्रीय विधि अनुसार ही व्रत करना चाहिए। मन्नत के शुक्रवार पूरे होने पर विधिपूर्वक और बताई गई शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए। यह विधि सरल है। किन्तु शास्त्रीय विधि अनुसार व्रत न करने पर व्रत का जरा भी फल नहीं मिलता है। 
5. एक बार व्रत पूरा करने के पश्चात फिर मन्नत कर सकते हैं और फिर से व्रत कर सकते हैं।
6. माता लक्ष्मी देवी के अनेक स्वरूप हैं। उनमें उनका ‘धनलक्ष्मी’ स्वरूप ही ‘वैभवलक्ष्मी’ है और माता लक्ष्मी को श्रीयंत्र अति प्रिय है। व्रत करते समय माता लक्ष्मी के विविध स्वरूप यथा श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री वीरलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी एवं श्री संतानलक्ष्मी तथा श्रीयंत्र को प्रणाम करना चाहिए।
7. व्रत के दिन सुबह से ही ‘जय माँ लक्ष्मी’, ‘जय माँ लक्ष्मी’ का रटन मन ही मन करना चाहिए और माँ का पूरे भाव से स्मरण करना चाहिए।
8. शुक्रवार के दिन यदि आप प्रवास या यात्रा पर गये हों तो वह शुक्रवार छोड़कर उनके बाद के शुक्रवार को व्रत करना चाहिए अर्थात् व्रत अपने ही घर में करना चाहिए। कुल मिलाकर जितने शुक्रवार की मन्नत ली हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।
9. घर में सोना न हो तो चाँदी की चीज पूजा में रखनी चाहिए। अगर वह भी न हो तो रोकड़ रुपया रखना चाहिए।
10. व्रत पूरा होने पर कम से कम सात स्त्रियों को या आपकी इच्छा अनुसार जैसे 11, 21, 51 या 101 स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक कुमकुम का तिलक करके भेंट के रूप में देनी चाहिए। जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी माँ लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी और माँ लक्ष्मी जी के इस अद्भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा।
11. व्रत के शुक्रवार को स्त्री रजस्वला हो या सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़ देना चाहिए और बाद के शुक्रवार से व्रत शुरु करना चाहिए। पर जितने शुक्रवार की मन्नत मानी हो, उतने शुक्रवार पूरे करने चाहिए।
12. व्रत की विधि शुरु करते वक्त ‘लक्ष्मी स्तवन’ का एक बार पाठ करना चाहिए। लक्ष्मी स्तवन इस प्रकार है- 
या रक्ताम्बुजवासिनी विलसिनी चण्डांशु तेजस्विनीं।
या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी।।
या   रत्नाकरमन्थनात्प्रगटितां विष्णोस्वया गेहिनी।
सा   मां   पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्च पद्मावती।।
अर्थात् - जो लाल कमल में रहती है, जो अपूर्व कांतिवाली हैं, जो असह्य तेजवाली हैं, जो पूर्णरूप से लाल हैं, जिसने रक्तरूप वस्त्र पहने हैं, जे भगवान विष्णु को अतिप्रिय हैं, जो लक्ष्मी मन को आनन्द देती हैं, जो समुद्रमंथन से प्रकट हुई है, जो विष्णु भगवान की पत्नी हैं, जो कमल से जन्मी हैं और जो अतिशय पूज्य है, वैसी हे लक्ष्मी देवी! आप मेरी रक्षा करें।
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13. व्रत के दिन हो सके तो उपवास करना चाहिए और शाम को व्रत की विधि करके माँ का प्रसाद लेकर व्रत करना चाहिए। अगर न हो सके तो फलाहार या एक बार भोजन कर के शुक्रवार का व्रत रखना चाहिए। अगर व्रतधारी का शरीर बहुत कमजोर हो तो ही दो बार भोजन ले सकते हैं। सबसे महत्व की बात यही है कि व्रतधारी माँ लक्ष्मी जी पर पूरी-पूरी श्रद्धा और भावना रखे और ‘मेरी मनोकामना माँ पूरी करेंगी ही’, ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर व्रत करे।
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वैभवलक्ष्मी व्रत की कथा Vaibhav Lakshmi Vrat Ki Katha
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एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के जमाने के लोग साथ-साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे। पर नये जमाने के लोगों का स्वरूप ही अलग सा है। सब अपने अपने काम में रत रहते हैं। किसी को किसी की परवाह नहीं। घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती। भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गये हैं। शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बहुत से अपराध शहर में होते थे।
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कहावत है कि ‘हजारों निराशा में एक अमर आशा छिपी हुई है’ इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनकी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे।
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शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी। पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अकल है’, विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। शीला के पति के अगले जन्म के कर्म भोगने बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चल निकला और करोड़पति के बजाय रोड़पति बन गया। याने रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी स्थिति हो गयी थी।
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शहर में शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा आदि बदियां फैली हुई थीं। उसमें शीला का पति भी फँस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच में दोस्तों के साथ रेस जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गँवा दिया था। समय के परिवर्तन के साथ घर में दरिद्रता और भुखमरी फैल गई। सुख से खाने के बजाय दो वक्त के भोजन के लाले पड़ गये और शीला को पति की गालियाँ खाने का वक्त आ गया था। शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुख हुआ। किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुख और दुख के पीछे सुख आता ही है। इसलिए दुख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी। इस तरह शीला असह्य दुख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी। 
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अचानक एक दिन दोपहर में उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ गयी कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए, ऐसे आर्य धर्म के संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला। देखा तो एक माँ जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थीं। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों में से मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई। वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती न थी, फिर भी उनको देखकर शीला के रोम-रोम में आनन्द छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आयी। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चादर पर उनको बिठाया।
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माँ जी ने कहा: ‘क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं?’ शीला ने सकुचा कर कहा: ‘माँ! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ़ रही थी वे आप ही हैं, पर मैं आपको पहचान नहीं सकती।’ माँ जी ने हँसकर कहा: ‘क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन-कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते हैं।’
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पति गलत रास्ते पर चढ़ गया, तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी। उसने याददाश्त पर जोर दिया पर वह माँ जी याद नहीं आ रही थीं। तभी माँ जी ने कहा: ‘तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नहीं आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोचकर मैं तुझसे मिलने चली आई हूँ।’ माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। माँ जी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। यह देख कर माँ जी शीला के नजदीक आयीं और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगीं। माँ जी ने कहा: ‘बेटी! सुख और दुख तो धूप छांव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी! और तुझे परेशानी क्या है? तेरे दुख की बात मुझे सुना। तेरा मन हलका हो जायेगा और तेरे दुख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।’ माँ जी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली। उसने माँ जी से कहा: ‘माँ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियाँ थीं, मेरे पति भी सुशील थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति बुरी संगति में फँस गये और बुरी आदतों के शिकार हो गये तथा अपना सब-कुछ गवाँ बैठे हैं तथा हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गये हैं।’
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यह सुन कर माँ जी ने कहा: ‘ऐसा कहा जाता है कि , ‘कर्म की गति न्यारी होती है’, हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा।
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‘माँ लक्ष्मी जी का व्रत’ करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा: ‘माँ! लक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये। मैं यह व्रत अवश्य करूँगी।’ माँ जी ने कहा: ‘बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है। वह सुख-सम्पत्ति और यश प्राप्त करता है। ऐसा कहकर माँ जी ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की विधि कहने लगी।
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‘बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत वैसे तो सीधा-सादा व्रत है। किन्तु कई लोग यह व्रत गलत तरीके से करते हैं, अतः उसका फल नहीं मिलता। कई लोग कहते हैं कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा करो बस व्रत हो गया। पर ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत शास्त्रीय विधि से करना चाहिए। तभी उसका फल मिलता है। सच्ची बात यह है कि सोने के गहनों का विधि से पूजन करना चाहिए। व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि से करना चाहिए।
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यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो और सारा दिन ‘जय माँ लक्ष्मी’  का रटन करते रहो। किसी की चुगली नहीं करनी चाहिए। शाम को पूर्व दिशा में मुँह करके आसन पर बैठ जाओ। सामने पाटा रखकर उस पर रुमाल रखो। रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो। उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रख कर, कलश पर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो। सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा। चांदी का न  हो तो नकद रुपया भी चलेगा। बाद में घी का दीपक जला कर अगरबत्ती सुलगा कर रखो।
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माँ लक्ष्मी जी के बहुत स्वरूप हैं। और माँ लक्ष्मी जी को ‘श्रीयंत्र’ अति प्रिय है। अतः ‘वैभवलक्ष्मी’ में पूजन विधि करते वक्त सर्वप्रथम ‘श्रीयंत्र’ और लक्ष्मी जी के विविध स्वरूपों का सच्चे दिल से दर्शन करो। उसके बाद ‘लक्ष्मी स्तवन’ का पाठ करो। बाद में कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ाकर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ। शाम को कोई मीठी चीज बना कर उसका प्रसाद रखो। न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है। फिर आरती करके ग्यारह बार सच्चे हृदय से ‘जय माँ लक्ष्मी’ बोलो। बाद में ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ़ संकल्प माँ के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को माँ लक्ष्मी जी से विनती करो। फिर माँ का प्रसाद बाँट दो। और थोड़ा प्रसाद अपने लिए रख लो। अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार का व्रत करो। न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो। अगर थोड़ी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हैं। बाद में कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो। कलश का पानी तुलसी की क्यारी में डाल दो और चावल पक्षियों को डाल दो। इसी तरह शास्त्रीय विधि से व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है। इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता हैं संतान न हो तो संतान प्राप्ति होती है। सौभाग्वती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रहता है। कुमारी लड़की को मनभावन पति मिलता है।
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शीला यह सुनकर आनन्दित हो गई। फिर पूछा: ‘माँ! आपने वैभवलक्ष्मी व्रत की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी। किन्तु उसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिए? यह भी कृपा करके सुनाइये।’
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माँ जी ने कहा: ‘ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी श्रद्धा और भावना से करना चाहिए। व्रत के आखिरी शुक्रवार को खीर का नैवेद्य रखो। पूजन विधि हर शुक्रवार को करते हैं वैसे ही करनी चाहिए। पूजन विधि के बाद श्रीफल फोड़ो और कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिए। फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, माँ लक्ष्मी जी की छवि को प्रणाम करें। माँ लक्ष्मी जी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है। प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से माँ की प्रार्थना करते वक्त कहें कि , ‘हे माँ धनलक्ष्मी! हे माँ वैभवलक्ष्मी! मैंने सच्चे हृदय से आपका व्रत पूर्ण किया है। तो हे माँ! हमारी मनोकामना पूर्ण कीजिए। हमारा सबका कल्याण कीजिए। जिसे संतान न हो उसे संतान देना। सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपरम्पार है।’
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माँ जी के पास से वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया। उसने आँखें बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, ‘हे वैभवलक्ष्मी माँ! मैं भी माँ जी के कहे अनुसार श्रद्धापूर्वक शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी व्रत इक्कीस शुक्रवार तक करूँगी और व्रत की शास्त्रीय रीति के अनुसार उद्यापन भी करूँगी।
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शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था। वह विस्मित हो गई कि माँ जी कहां गयी? यह माँ जी कोई दूसरा नहीं साक्षात लक्ष्मी जी ही थीं। शीला लक्ष्मी जी की भक्त थी इसलिए अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए माँ लक्ष्मी देवी माँ जी का स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थीं।
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दूसरे दिन शुक्रवार था। प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन कर शीला मन ही मन श्रद्धा और पूरे भाव से ‘जय माँ लक्ष्मी’ का मन ही मन रटन करने लगी। सारा दिन किसी की चुगली नहीं की। शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर शीला पूर्व दिशा में मुंह करके बैठी। घर में पहले तो सोने के बहुत से गहने थे पर पति ने गलत रास्ते पर चलकर सब गिरवी रख दिये। पर नाक की कील (पुल्ली) बच गई थी। नाक की कील निकाल कर, उसे धोकर शीला ने कटोरी में रख दी। सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुठ्ठी भर चावल का ढेर किया। उस पर तांबे का कलश पानी भरकर रखा। उसके ऊपर कील वाली कटोरी रखी। फिर विधिपूर्वक वंदन, स्तवन, पूजन वगैरह किया और घर में थोड़ी शक्कर थी, वह प्रसाद में रख कर वैभवलक्ष्मी व्रत किया।
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यह प्रसाद पहले पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला को बहुत आनन्द हुआ। उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के लिए श्रद्धा बढ़ गई।
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शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को विधिपूर्वक उद्यापन विधि करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें उपहार में दीं। फिर माता जी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी: ‘हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मन्नत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है। हे माँ! मेरी हर विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड रखना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। जो कोई आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उसकी सब विपत्ति दूर करना। सब को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को प्रणाम किया।
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इस तरह शास्त्रीय विधि से शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला। उसका पति सही रास्ते पर चलने लगा और अच्छा आदमी बन गया तथा कड़ी मेहनत से व्यवसाय करने लगा। धीरे धीरे समय परिवर्तित हुआ और उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए। घर में धन की बाढ़ सी आ गई। घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई।
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वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी का व्रत करने लगीं। हे माँ धनलक्ष्मी! आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुईं, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब पर प्रसन्न होना। सबको सुख-शांति देना। जय धनलक्ष्मी माँ! जय वैभवलक्ष्मी माँ!
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Shri Vaibhav Lakshmi Vrat Katha || Shukravar Vrat Katha
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Sukh, Shanti, Vaibhav aur Lakshmi prapti ke liye adbhut chamatkari prachin vrat
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Vaibhav Lakshmi Vrat Karne ke Niyam
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1.Yah vrat saubhagyashali striyan karen to unka ati uttam phal milta hai, par ghar mein agar saubhagyashali striyan na hon to koi bhi stri evam kumarika bhi yah vrat kar sakti hai.

2.Stri ke badle purush bhi yah vrat karen to use bhi uttam phal avashya milta hai.

3.Yah vrat poori shraddha aur pavitra bhav se karna chahiye. Khinn hokar ya bina bhav se yah vrat nahi karna chahiye.

4.Yah vrat Shukravar ko kiya jata hai. Vrat shuru karte samay 11 ya 21 Shukravar ki mannat rakhni padti hai aur batayi gayi shastriya vidhi anusar hi vrat karna chahiye. Mannat ke Shukravar poore hone par vidhipurvak aur shastriya riti ke anusar udyapan karna chahiye. Agar vidhi se nahi karenge to vrat ka phal nahi milta.

5.Ek baar vrat poora karne ke baad phir se mannat karke vrat kiya ja sakta hai.

6.Mata Lakshmi ke anek swaroop hain. Unme unka “Dhan Lakshmi” swaroop hi “Vaibhav Lakshmi” hai. Aur Mata ko Shri Yantra ati priya hai. Vrat karte samay Maa ke vividh swaroop jaise Shri Gaja Lakshmi, Shri Adi Lakshmi, Shri Vijay Lakshmi, Shri Aishwarya Lakshmi, Shri Veer Lakshmi, Shri Dhanya Lakshmi, Shri Santan Lakshmi evam Shri Yantra ko pranam karna chahiye.

7.Vrat ke din subah se hi “Jai Maa Lakshmi, Jai Maa Lakshmi” ka jap karna chahiye aur Maa ka smaran karna chahiye.

8.Agar Shukravar ke din aap yatra par hon to us Shukravar ko chhodkar agle Shukravar se vrat karna chahiye. Kul milaakar jitne Shukravar ki mannat maani ho utne poore karne chahiye.

9.Ghar mein sona na ho to chandi ki cheez puja mein rakhni chahiye, aur agar wo bhi na ho to nakad paisa rakhna chahiye.

10.Vrat poora hone par kam se kam 7 striyon ko, ya ichchha ke anusar 11, 21, 51, 101 striyon ko Vaibhav Lakshmi Vrat ki pustak kumkum ka tilak karke bhent dena chahiye. Jitni zyada pustak baantenge, utni Maa Lakshmi ki kripa milegi.

11. Agar vrat ke Shukravar stri rajaswala ya sutaki ho to us din vrat chhod dena chahiye aur baad ka Shukravar se vrat shuru karna chahiye.
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12. Vrat ki shuruaat karte samay “Lakshmi Stavan” ka path ek baar karna chahiye:
Ya raktambuja-vasini vilasini chandanshu tejaswini,
Ya rakta rudhirambara harisakhi ya shri manohladini,
Ya ratnakar manthanat pragatitam vishnosvaya geehini,
Sa mam patu manorama bhagwati Lakshmi cha Padmavati.
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Arth – He Maa Lakshmi, jo lal kamal mein virajmaan hain, jo Vishnu ji ki priya hain, jo samudra manthan se prakat huyi thi, jo padmajanmi hain, aap meri raksha kariye.
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13. Vrat ke din ho sake to upvaas karna chahiye aur shaam ko vrat ki vidhi karke Maa ka prasad lekar vrat karna chahiye. Agar na ho sake to phalahaar ya ek baar bhojan karke Shukravaar ka vrat rakhna chahiye. Agar vratdhari ka sharir bahut kamzor ho to hi do baar bhojan le sakte hain. Sabse mahatvapurn baat yahi hai ki vratdhari Maa Lakshmi ji par poori-poori shraddha aur bhavana rakhe aur ‘meri manokamna Maa poori karengi hi’, aisa dridh vishwas rakhkar vrat kare.
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Vaibhav Lakshmi Vrat Ki Katha
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Ek bada shahar tha. Is shahar me laakhon log rehte the. Pehle ke zamane ke log saath-saath rehte the aur ek dusre ke kaam aate the. Par naye zamane ke logon ka swaroop hi alag sa hai. Sab apne apne kaam me rat rehte hain. Kisi ko kisi ki parwah nahin. Ghar ke sadasyon ko bhi ek-dusre ki parwah nahin hoti. Bhajan-kirtan, bhakti-bhaav, daya-maya, paropkar jaise sanskaar kam ho gaye hain. Shahar me buraiyaan badh gayi thi. Sharab, jua, race, vyabhichar, chori-dakaiti aadi bahut se apraadh shahar me hote the.
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Kehavat hai ki “Hazaron niraasha me ek amar aasha chhupi hoti hai”. Isi tarah itni saari buraiyon ke bawajood shahar me kuch acche log bhi rehte the. Aise acche logon me Sheela aur unke pati ki grihasti maani jaati thi. Sheela dharmik prakriti ki aur santoshi thi. Unka pati bhi viveki aur susheel tha. Sheela aur unka pati imaandari se jeete the. Ve kisi ki burai nahin karte the aur Prabhu bhajan me achhi tarah samay vyatit karte the. Unki grihasti aadarsh grihasti thi aur shahar ke log unki grihasti ki sarahna karte the.
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Sheela ki grihasti isi tarah khushi-khushi chal rahi thi. Par kaha jaata hai ki “Karm ki gati akal hai”, Vidhata ke likhe lekh koi nahin samajh sakta hai. Insaan ka naseeb pal bhar me raja ko rank bana deta hai aur rank ko raja. Sheela ke pati ke agle janm ke karm bhogne baaki reh gaye honge ki vah bure logon se dosti kar baitha. Vah jald se jald karodpati hone ke khwab dekhne laga. Isliye vah galat raaste par chal nikla aur karodpati ke bajaay “roadpati” ban gaya. Yane raste par bhatakte bhikhari jaisi uski sthiti ho gayi thi.
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Shahar me sharab, jua, race, charas-ganja aadi buraiyan faili hui thi. Unhi buri aadaton me Sheela ka pati bhi phans gaya. Doston ke saath use bhi sharab ki aadat lag gayi. Jald se jald paise wala banne ki lalach me doston ke saath race-jua bhi khelne laga. Is tarah bachayi hui dhanrashi, patni ke gehne, sab kuch race-jue me gawa diya. Samay ke parivartan ke saath ghar me daridrata aur bhookhmari fail gayi. Sukh se khane ke bajaye do waqt ke bhojan ke laale padh gaye aur Sheela ko pati ki gaaliyan khane ka waqt aa gaya tha. Sheela susheel aur sanskaari stri thi. Use pati ke bartav se bahut dukh hua. Kintu vah Bhagwan par bharosa karke bada dil rakh kar dukh sehne lagi. Kaha jaata hai ki “Sukh ke peeche dukh aur dukh ke peeche sukh aata hi hai.” Isliye dukh ke baad sukh aayega hi, aisi shraddha ke saath Sheela Prabhu bhakti me leen rehne lagi. Is tarah Sheela asahya dukh sahte-sahte Prabhubhakti me waqt bitaane lagi.
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Achanak ek din dopahar me unke dwar par kisi ne dastak di. Sheela soch me padh gayi ki mujhe jaise gareeb ke ghar is waqt kaun aaya hoga? Fir bhi dwar par aaye huye atithi ka aadar karna chahiye — aise Aarya dharm ke sanskaar wali Sheela khade hoke dwar kholti hai. Dekha to ek Maa ji khadi thi. Ve badi umr ki lag rahi thi, lekin unke chehre par alaukik tej nikhra hua tha. Unki aankhon me se maano amrit beh raha tha. Unka bhavya chehra karuna aur pyaar se chhalak raha tha. Unko dekhte hi Sheela ke mann me apar shanti chha gayi. Vaise Sheela is Maa ji ko pehchaanti na thi, fir bhi unko dekhkar Sheela ke rom-rom me anand chha gaya. Sheela Maa ji ko aadar ke saath ghar me le aayi. Ghar me bithane ke liye kuch bhi nahin tha. Atah Sheela ne sakuchakar ek phati hui chadar par unko bithaya.
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Maa ji ne kaha: “Kyon Sheela! Mujhe pehchana nahin?” Sheela ne sakuchakar kaha: “Maa! Aapko dekhte hi bahut khushi ho rahi hai. Bahut shanti ho rahi hai. Aisa lagta hai ki main bahut dino se jise dhoondh rahi thi ve aap hi hain, par main aapko pehchaan nahi sakti.” Maa ji hanskar boli: “Kyon? Bhool gayi? Har Shukravaar ko Lakshmi ji ke mandir me bhajan-kirtan hote hain, tab main bhi wahan aati hoon. Wahan har Shukravaar ko hum milte hain.”
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Pati galat raste par chadh gaya, tab se Sheela bahut dukhi ho gayi thi aur dukh ki maari vah Lakshmiji ke mandir me bhi nahi jaati thi. Baahar ke logon ke saath nazar milate bhi use sharm aati thi. Usne yaad-dasht par zor diya par vah Maa ji yaad nahi aa rahi thi. Tabhi Maa ji ne kaha: “Tu Lakshmiji ke mandir me kitne madhur bhajan gaati thi. Abhi-abhi tu dikhai nahi deti thi, isliye mujhe laga ki tu kyon nahi aati hai? Kahin bimaar to nahi ho gayi hai na? Aisa sochkar main tujhse milne chali aayi hoon.”
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Maa ji ke ati prem bhare shabdon se Sheela ka hriday pighal gaya. Uski aankhon me aansoo aa gaye. Maa ji ke saamne vah bilakh-bilakh kar rone lagi. Ye dekhkar Maa ji Sheela ke nazdeek aayi aur uski sisakti peeth par pyaar bhara haath ferkar santvana dene lagi. Maa ji ne kaha: “Beti! Sukh aur dukh to dhoop-chhaav jaise hote hain. Dhairya rakho beti! Aur tujhe pareshani kya hai? Tere dukh ki baat mujhe suna. Tera mann halka ho jayega aur tere dukh ka koi upay bhi mil jayega.”
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Maa ji ki baat sunkar Sheela ke mann ko shanti mili. Usne Maa ji se kaha: “Maa! Meri grihasti me bharpur sukh aur khushiyaan thi, mere pati bhi susheel the. Achaanak hamara bhagya humse rooth gaya. Mere pati buri sangat me phans gaye aur buri aadaton ke shikaar ho gaye, tathaa apna sab kuch gawa baithe hain. Ab hum raste ke bhikhari jaise ban gaye hain.”
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Ye sunkar Maa ji boli: “Aisa kaha jaata hai ki ‘Karm ki gati nyaari hoti hai’, har insaan ko apne karm bhugatne padte hain. Isliye tu chinta mat kar. Ab tu karm bhugat chuki hai. Ab tumhare sukh ke din avashya aayenge. Tu to Maa Lakshmiji ki bhakt hai. Maa Lakshmiji to prem aur karuna ki avataar hain. Ve apne bhakton par hamesha mamta rakhti hain. Isliye tu dhairya rakhe aur Maa Lakshmiji ka vrat kar. Isse sab kuch theek ho jayega.”
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‘Maa Lakshmiji ka vrat’ karne ki baat sunkar Sheela ke chehre par chamak aa gayi. Usne poocha: “Maa! Lakshmiji ka vrat kaise kiya jaata hai, vah mujhe samjhaiye. Main ye vrat avashya karoongi.”
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Maa ji ne kaha: “Beti! Maa Lakshmiji ka vrat bahut saral hai. Use ‘Vardalakshmi Vrat’ ya ‘Vaibhavlakshmi Vrat’ bhi kaha jaata hai. Ye vrat karne wale ki sab manokamna poorn hoti hai. Vah sukh-sampatti aur yash prapt karta hai.”
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Aisa karke Maa ji ‘Vaibhavlakshmi Vrat’ ki vidhi batane lagi: “Beti! Vaibhavlakshmi Vrat waise to seedha-saadha vrat hai, lekin kai log ye vrat galat tareeke se karte hain, atah uska phal nahi milta. Kai log kehte hain ki sone ke gehne ki haldi-kumkum se pooja karo, bas vrat ho gaya. Par aisa nahi hai. Koi bhi vrat shaastriya vidhi se karna chahiye, tabhi uska phal milta hai. Sacchi baat ye hai ki sone ke gahnon ka vidhi se poojan karna chahiye. Vrat ki udyapan vidhi bhi shaastriya vidhi se karna chahiye.”
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Ye vrat Shukravaar ko karna chahiye. Pratahkal snaan karke swachh kapde pahno aur saara din “Jai Maa Lakshmi” ka ratan karte raho. Kisi ki chugli nahi karni chahiye. Shaam ko purv disha me muh karke aasan par baith jao. Saamne paata rakhkar us par rumaal bicha do. Rumaal par chawal ka chhota sa dher karo. Us dher par paani se bhara taambe ka kalash rakho, aur kalash par ek katori rakho. Us katori me ek sone ka gehna rakho. Agar sona na ho to chandi ka bhi chalega. Agar chandi bhi na ho to nakad rupaya bhi chalega. Baad me ghee ka deepak jala kar agarbatti sulga do.
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Maa Lakshmi ji ke bahut swaroop hote hain. Aur Maa Lakshmi ji ko “Shri Yantra” ati priya hai. Atah “Vaibhav Lakshmi” me poojan vidhi karte waqt sabse pehle Shri Yantra aur Lakshmi ji ke vividha swaroopon ka sache dil se darshan karo. Uske baad Lakshmi Stavan ka paath karo. Phir katori me rakhe hue gehne ya rupaye ko haldi-kumkum aur chawal chadhaakar pooja karo aur laal rang ka phool chadhaao. Shaam ko koi meethi cheez banaakar prasad rakho. Agar na ho sake to cheeni ya gud bhi chal sakta hai. Phir aarti karke 11 baar sache hriday se “Jai Maa Lakshmi” bolo. Uske baad 11 ya 21 Shukravaar ye vrat karne ka dridh sankalp Maa ke saamne karo aur apni manokamna poori karne ko Maa Lakshmi ji se prarthana karo. Phir Maa ka prasad baant do aur thoda apne liye rakh lo.
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Agar aap me shakti ho to saara din upvaas rakho aur sirf prasad khaa kar Shukravaar ka vrat karo. Agar shakti na ho to shaam ko prasad grahan karte waqt ek baar bhojan kar lo. Agar bahut kam shakti ho to do baar bhojan kar sakte ho. Baad me katori me rakha gehna ya rupaya le lo. Kalash ka paani Tulsi ki kyaari me daal do aur chawal panchiyon ko daal do.
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Isi tarah shaastriya vidhi se vrat karne se uska phal avashya milta hai. Is vrat ke prabhav se sab prakar ki vipatti door ho jaati hai aur aadmi maalamaal ho jaata hai. Jise santaan na ho use santaan prapt hoti hai. Saubhagyavati stri ka saubhagya akhand rehta hai. Kanya ko manbhavan pati milta hai.
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Sheela ye sunkar anandit ho gayi. Fir poocha: “Maa! Aapne Vaibhav Lakshmi vrat ki jo shaastriya vidhi batayi hai, main avashya karoongi. Lekin iski Udyapan Vidhi kis tarah karni chahiye? Yeh bhi kripa karke batayiye.”
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Maa ji ne kaha: “11 ya 21 jo mannatt maani ho, utne Shukravaar ye Vaibhav Lakshmi vrat poori shraddha aur bhavana se karna chahiye. Vrat ke aakhri Shukravaar ko kheer ka naivedya rakho. Poojan vidhi har Shukravaar jaise karte ho waise hi karni chahiye. Poojan ke baad shrifal todo aur kam se kam 7 kunwari ya saubhagyashali striyon ko kumkum ka tilak karke ‘Vaibhav Lakshmi Vrat’ ki ek-ek pustak uphaar me do aur sabko kheer ka prasad do. Fir Dhanlakshmi swaroop, Vaibhav Lakshmi swaroop, Maa Lakshmi ji ki chhavi ko pranam karo. Maa Lakshmi ji ka yeh swaroop vaibhav dene wala hai.
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Pranam karke mann hi mann bhavukta se Maa ki prarthana karte hue kaho: “Hey Maa Dhan Lakshmi! Hey Maa Vaibhav Lakshmi! Maine sache hriday se aapka vrat poorn kiya hai. To hey Maa! Hamari manokamna poori kijiye. Hamara sabka kalyan kijiye. Jise santaan na ho use santaan dijiye. Saubhagyavati stri ka saubhagya akhand rakhiye. Kunwari ladki ko manbhavan pati dijiye. Aapka yeh chamatkari Vaibhav Lakshmi Vrat jo kare uski sab vipatti door kijiye. Sabko sukhi banaiye. Hey Maa! Aapki mahima aparampaar hai.”
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Maa ji ke paas se Vaibhav Lakshmi Vrat ki shaastriya vidhi sunkar Sheela bhaav-vibhor ho uthi. Use laga jaise sukh ka rasta mil gaya ho. Usne aankhen band karke man hi man sankalp liya:
“Hey Vaibhav Lakshmi Maa! Main bhi Maa ji ke kahe anusar shraddha-purvak shaastriya vidhi se Vaibhav Lakshmi Vrat 21 Shukravaar tak karoongi aur shastriya reeti se Udyapan bhi karoongi.”
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Sheela ne sankalp karke aankhen kholi to saamne koi na tha. Vah vishmit ho gayi – Maa ji kahan gayi? Darasal woh Maa ji koi aur nahi, swayam Maa Lakshmi ji hi thi. Sheela Lakshmi ji ki bhakt thi, isliye Maa ne apne bhakt ko sahi raasta dikhane ke liye Maa ji ka roop dharan karke Sheela ke paas aayi thi.
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Dusre din Shukravaar tha. Pratahkal snaan karke Sheela ne swachh kapde pehne aur man hi man “Jai Maa Lakshmi” ka jaap karte hue din bitaya. Shaam ko usne poore vishwas ke saath poojan ki tayyari ki. Pati ne sab gehne barbaad kar diye the, par naak ki pulli (nath) abhi bach gayi thi. Sheela ne us pulli ko dhokar katori me rakha. Paathe par rumal bichha kar uspar chawal ka dher kiya, upar taambe ka kalash rakha aur uske upar katori rakhi. Phir vidhi-purvak vandan, stavan, poojan kiya aur ghar me jo thodi cheeni thi, usse prasad banaakar Vaibhav Lakshmi Vrat kiya.
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Prasad sabse pehle Sheela ne pati ko khilaya. Prasad khate hi pati ke swabhav me badlaav aa gaya. Usne us din Sheela ko na maara, na sataaya. Sheela ke man me aur bhi shraddha badh gayi.
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Sheela ne 21 Shukravaar tak poore shraddha aur bhakti se vrat kiya. 21ve Shukravaar ko usne shaastriya vidhi se Udyapan kiya – 7 striyon ko Vaibhav Lakshmi Vrat ki pustakein uphaar me di aur kheer ka prasad baanta. Ant me Maa ke Dhan Lakshmi swaroop ki pooja karke bhavuk prarthana ki:
“Hey Maa Dhan Lakshmi! Maine aapka Vaibhav Lakshmi Vrat poora kiya hai. Hamari sabhi vipatti door karo, sabka kalyan karo. Jise santaan na ho use santaan do, saubhagyavati stri ka saubhagya akhand rakho, kunwari ladki ko manbhavan pati do. Jo bhi aapka yeh chamatkari Vaibhav Lakshmi Vrat kare, uski sab vipatti door karo, sabko sukhi karo. Hey Maa! Aapki mahima apar hai.”
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Is tarah Sheela ne shaastriya vidhi se vrat kiya aur uska turant phal mila. Pati ne bura raasta chhod diya, mehnat aur imandari se kaam karne laga. Dheere-dheere usne girvi rakhe gehne wapas chhudaye aur ghar me dhan-sampatti ki baadh aa gayi. Sheela ka ghar fir se sukh-shanti se bhar gaya.
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Vaibhav Lakshmi Vrat ka asar dekhkar mohalle ki anya striyan bhi is vrat ko karne lagi.
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Hey Maa Dhan Lakshmi! Jaise aap Sheela par prasann hui, waise hi jo bhi aapka vrat kare, unpar bhi prasann ho kar sabko sukh-shanti dena.
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Jai Maa Dhan Lakshmi! Jai Maa Vaibhav Lakshmi!
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शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

संकटमोचक पद्मावती स्‍तोत्र लिरिक्‍स || Sankatmochak Padmavati Stotra || Devi Maa Padmavati Jyoti Roop Mahan || देवी मां पद्मावती

संकटमोचक पद्मावती स्‍तोत्र || Sankatmochak Padmavati Stotra || Jay Jay Jay Padmavati Maata || जय-जय-जय पद्मावती माता

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।। दोहा ।।
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देवी मां पद्मावती, 
ज्योति रूप महान।
विघ्न हरो मंगल करो, 
करो मात कल्याण।
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।। चौपाई।।
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जय-जय-जय पद्मावती माता, 
तेरी महिमा त्रिभुवन गाता। 
मन की आशा पूर्ण करो मां, 
संकट सारे दूर करो मां ।।
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तेरी महिमा परम निराली, 
भक्तों के दुख हरने वाली।
धन-वैभव-यश देने वाली, 
शान तुम्हारी अजब निराली।।
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बिगड़ी बात बनेगी तुम से, 
नैया पार लगेगी तुम से। 
मेरी तो बस एक अरज है, 
हाथ थाम लो यही गरज है।।
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चतुर्भुजी मां हंसवाहिनी, 
महर करो मां मुक्तिदायिनी। 
किस विध पूजूं चरण तुम्हारे, 
निर्मल हैं बस भाव हमारे।।
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मैं आया हूं शरण तुम्हारी, 
तू है मां जग तारणहारी। 
तुम बिन कौन हरे दुख मेरा, 
रोग-शोक-संकट ने घेरा।।
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तुम हो कल्पतरु कलियुग की, 
तुमसे है आशा सतयुग की। 
मंदिर-मंदिर मूरत तेरी, 
हर मूरत में सूरत तेरी।।
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रूप तुम्हारे हुए हैं अनगिन, 
महिमा बढ़ती जाती निशदिन । 
तुमने सारे जग को तारा, 
सबका तूने भाग्य संवारा।।
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हृदय-कमल में वास करो मां, 
सिर पर मेरे हाथ धरो मां। 
मन की पीड़ा हरो भवानी, 
मूरत तेरी लगे सुहानी ।।
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पद्मावती मां पद्म-समाना, 
पूज रहे सब राजा-राणा। 
पद्म-हृदय प‌द्मासन सोहे, 
पद्म-रूप पद-पंकज मोहे।।
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महामंत्र का मिला जो शरणा, 
नाग-योनी से पार उतरना। 
पारसनाथ हुए उपकारी, 
जय-जयकार करे नर-नारी।।
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पारस प्रभु जग के रखवाले, 
पद्मावती प्रभु पार्श्व उबारे। 
जिसने प्रभु का संकट टाला, 
उसका रूप अनूप निराला ।।
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कमठ-शत्रु क्या करे बिगाड़े, 
पद्मावती जहं काज सुधारे। 
मेघमाली की हर चट्टानें, 
मां के आगे सब चित खाने ।। 
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मां ने प्रभु का कष्ट निवारा, 
जन्म-जन्म का कर्ज उतारा। 
पद्मावती दया की देवी, 
प्रभु-भक्तों की अविरल सेवी ।।
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प्रभु भक्तों की मंशा पूरे, 
चिंतामणि सम चिंता चूरे। 
पारस प्रभु का जयकारा हो, 
पद्मावती का झंकारा हो ।।
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माथे मुकुट भाल सूरज ज्यों, 
बिंदिया चमक रही चंदा। 
अधरों पर मुस्कान शोभती, 
मां की मूरत नित्य मोहती।।
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सुरनर मुनिजन मां को ध्यावे, 
संकट नहीं सपने में आवे। 
मां का जो जयकारा बोले, 
उनके घर सुख-संपत्ति बोले ।।
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ॐ ह्रीं श्री क्लीं मंत्र से ध्याऊं, 
धूप-दीप-नैवेद्य चढ़ाऊं। 
रिद्धि-सिद्धि सुख-संपत्ति दाता, 
सोया भाग्य जगा दो माता ।।
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मां को पहले भोग लगाऊं, 
पीछे ही खुद भोजन पाऊं। 
मां के यश में अपना यश हो, 
अंतरमन में भक्ति-रस हो।।
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सुबह उठो मां की जय बोलो, 
सांझ ढले मां की जय बोलो। 
जय-जय मां जय-जय नित तेरी, 
मदद करो मां अविरल मेरी।।
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शुक्रवार मां का दिन प्यारा, 
जिसने पांच बरस व्रत धारा। 
उसका काज सदा ही संवरे, 
मां उसकी हर मंशा पूरे ।।
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एकासन-व्रत-नियम पालकर, 
धूप-दीप-चंदन पूजन कर। 
लाल-वेश हो चूड़ी-कंगना, 
फल-श्रीफल-नैवेद्य भेंटना ।। 
**
मन की आशा पूर्ण हुए जब, 
छत्र चढ़ाएं चांदी का तब। 
अंतर में हो शुक्रगुजारी, 
मां का व्रत है मंगलकारी।।
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मैं हूं मां बालक अज्ञानी, 
पर तेरी महिमा पहचानी। 
सांचे मन से जो भी ध्यावे, 
सब सुख भोग परम पद पावे।।
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जीवन में मां का संबल हो, 
हर संकट में नैतिक बल हो। 
पाप न होवे पुण्य संजोएं, 
ध्यान धरें अंतरमन धोएं।।
**
दीन-दुखी की मदद हो मुझसे, 
मात-पिता की अदब हो मुझसे। 
अंतर-दृष्टि में विवेक हो, 
घर-संपति सब नेक-एक हो ।।
**
कृपादृष्टि हो माता मुझ पर, 
मां पद्मावती जरा रहम कर। 
भूलें मेरी माफ करो मां, 
संकट सारे दूर करो मां ।।
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पद्म नेत्र पद्मावती जय हो, 
पद्म-स्वरूपी प‌द्म हृदय हो। 
पद्म-चरण ही एक शरण है, 
पद्मावती मां विघ्न-हरण है।।
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।।दोहा।।
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पद्म रूप पद्मावती, 
पारस प्रभु हैं शीष। 
'ललित' तुम्हारी शरण में, 
दो मंगल आशीष ।।
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पार्श्व प्रभु जयवंत हैं, 
जिन शासन जयवंत। 
पद्मावती जयवंत हैं, 
जयकारी भगवंत ।।
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चरण-कमल में 'चन्द्र' का, 
नमन करो स्वीकार। 
भक्तों की अरजी सुनो, 
वरते मंगलाचार ।।
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संकटमोचक पद्मावती स्‍तोत्र || Sankatmochak Padmavati Stotra || Jay Jay Jay Padmavati Maata || जय-जय-जय पद्मावती माता

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।। Dohā ।।
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Devī māan padmāvatī, 
Jyoti rūp mahāna।
Vighna haro mangal karo, 
Karo māt kalyāṇa।
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।। chaupāī।।
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Jaya-jaya-jaya padmāvatī mātā, 
Terī mahimā tribhuvan gātā। 
Man kī āshā pūrṇa karo māan, 
Sankaṭ sāre dūr karo māan ।।
**
Terī mahimā param nirālī, 
Bhaktoan ke dukh harane vālī।
Dhana-vaibhava-yash dene vālī, 
Shān tumhārī ajab nirālī।।
**
Bigaḍaī bāt banegī tum se, 
Naiyā pār lagegī tum se। 
Merī to bas ek araj hai, 
Hāth thām lo yahī garaj hai।।
**
Chaturbhujī māan hansavāhinī, 
Mahar karo māan muktidāyinī। 
Kis vidh pūjūan charaṇ tumhāre, 
Nirmal haian bas bhāv hamāre।।
**
Maian āyā hūan sharaṇ tumhārī, 
Tū hai māan jag tāraṇahārī। 
Tum bin kaun hare dukh merā, 
Roga-shoka-sankaṭ ne gherā।।
**
Tum ho kalpataru kaliyug kī, 
Tumase hai āshā satayug kī। 
Mandira-mandir mūrat terī, 
Har mūrat mean sūrat terī।।
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Rūp tumhāre hue haian anagina, 
Mahimā baḍhatī jātī nishadin । 
Tumane sāre jag ko tārā, 
Sabakā tūne bhāgya sanvārā।।
**
Hṛudaya-kamal mean vās karo māan, 
Sir par mere hāth dharo māan। 
Man kī pīḍaā haro bhavānī, 
Mūrat terī lage suhānī ।।
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Padmāvatī māan padma-samānā, 
Pūj rahe sab rājā-rāṇā। 
Padma-hṛudaya padmāsan sohe, 
Padma-rūp pada-pankaj mohe।।
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Mahāmantra kā milā jo sharaṇā, 
Nāga-yonī se pār utaranā। 
Pārasanāth hue upakārī, 
Jaya-jayakār kare nara-nārī।।
**
Pāras prabhu jag ke rakhavāle, 
Padmāvatī prabhu pārshva ubāre। 
Jisane prabhu kā sankaṭ ṭālā, 
Usakā rūp anūp nirālā ।।
**
Kamaṭha-shatru kyā kare bigāḍae, 
Padmāvatī jahan kāj sudhāre। 
Meghamālī kī har chaṭṭānean, 
Māan ke āge sab chit khāne ।। 
**
Māan ne prabhu kā kaṣhṭa nivārā, 
Janma-janma kā karja utārā। 
Padmāvatī dayā kī devī, 
Prabhu-bhaktoan kī aviral sevī ।।
**
Prabhu bhaktoan kī manshā pūre, 
Chiantāmaṇi sam chiantā chūre। 
Pāras prabhu kā jayakārā ho, 
Padmāvatī kā zankārā ho ।।
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Māthe mukuṭ bhāl sūraj jyoan, 
Biandiyā chamak rahī chandā। 
Adharoan par muskān shobhatī, 
Māan kī mūrat nitya mohatī।।
**
Suranar munijan māan ko dhyāve, 
Sankaṭ nahīan sapane mean āve। 
Māan kā jo jayakārā bole, 
Unake ghar sukha-sanpatti bole ।।
**
Aum hrīan shrī klīan mantra se dhyāūan, 
Dhūpa-dīpa-naivedya chaḍhaāūan। 
Riddhi-siddhi sukha-sanpatti dātā, 
Soyā bhāgya jagā do mātā ।।
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Māan ko pahale bhog lagāūan, 
Pīchhe hī khud bhojan pāūan। 
Māan ke yash mean apanā yash ho, 
Aantaraman mean bhakti-ras ho।।
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Subah uṭho māan kī jaya bolo, 
Sāanjha ḍhale māan kī jaya bolo। 
Jaya-jaya māan jaya-jaya nit terī, 
Madad karo māan aviral merī।।
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Shukravār māan kā din pyārā, 
Jisane pāancha baras vrat dhārā। 
Usakā kāj sadā hī sanvare, 
Māan usakī har manshā pūre ।।
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Ekāsana-vrata-niyam pālakara, 
Dhūpa-dīpa-chandan pūjan kara। 
Lāla-vesh ho chūḍaī-kanganā, 
Fala-shrīfala-naivedya bheanṭanā ।। 
**
Man kī āshā pūrṇa hue jaba, 
Chhatra chaḍhaāean chāandī kā taba। 
Aantar mean ho shukragujārī, 
Māan kā vrat hai mangalakārī।।
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Maian hūan māan bālak ajnyānī, 
Par terī mahimā pahachānī। 
Sāanche man se jo bhī dhyāve, 
Sab sukh bhog param pad pāve।।
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Jīvan mean māan kā sanbal ho, 
Har sankaṭ mean naitik bal ho। 
Pāp n hove puṇya sanjoean, 
Dhyān dharean aantaraman dhoean।।
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Dīna-dukhī kī madad ho mujhase, 
Māta-pitā kī adab ho mujhase। 
Aantara-dṛuṣhṭi mean vivek ho, 
Ghara-sanpati sab neka-ek ho ।।
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Kṛupādṛuṣhṭi ho mātā muz para, 
Māan padmāvatī jarā raham kara। 
Bhūlean merī māf karo māan, 
Sankaṭ sāre dūr karo māan ।।
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Padma netra padmāvatī jaya ho, 
Padma-svarūpī padma hṛudaya ho। 
Padma-charaṇ hī ek sharaṇ hai, 
Padmāvatī māan vighna-haraṇ hai।।
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।।Dohā।।
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Padma rūp padmāvatī, 
Pāras prabhu haian shīṣha। 
'lalita' tumhārī sharaṇ mean, 
Do mangal āshīṣh ।।
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Pārshva prabhu jayavanta haian, 
Jin shāsan jayavanta। 
Padmāvatī jayavanta haian, 
Jayakārī bhagavanta ।।
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Charaṇa-kamal mean 'chandra' kā, 
Naman karo svīkāra। 
Bhaktoan kī arajī suno, 
Varate mangalāchār ।।
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शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

कनकधारास्तोत्रम् || Kanakdharastotram || शङ्कराचार्यकृत || Shankaracharya Krit || वन्दे वन्दारु || Vande Vandaru || कनकधारा स्तोत्र कथा

कनकधारास्तोत्रम् || Kanakdharastotram || शङ्कराचार्यकृत || Shankaracharya Krit || वन्दे वन्दारु || Vande Vandaru 


श्री कनकधारा स्तोत्र कथा || Shri Kanak Dhara Stotra Katha

श्री कनकधारा स्तोत्र अत्यंत दुर्लभ है। यह माता लक्ष्‍मी को अत्‍यधिक प्रिय है और लक्ष्मी प्राप्ति के लिये यह रामबाण उपाय है। दरिद्र भी एकाएक धनोपार्जन करने लगता है। यह अद्भुत स्तोत्र तुरन्‍त फलदायी है। सिर्फ इतना ही नहीं यह अपने आप में स्वयं सिद्ध है। ऐश्वर्य प्रदान करने में सर्वथा समर्थ है। इस स्तोत्र का प्रयोग करने से रंक भी राजा बन सकता है इसमें कोई संशय नहीं है। अगर यह स्तोत्र यंत्र के साथ किया जाये तो लाभ कई गुना अधिक हो जाता है।

यह यन्त्र व स्तोत्र के विधान से व्यापारी व्यापार में वृद्धि करता है, दुःख दरिद्रता का विनाश हो जाता है। प्रसिद्ध शास्‍त्रोक्‍त ग्रन्थ "शंकर दिग्विजय" के "चौथे सर्ग में" इस कथा का उल्लेख है। 

एक बार शंकराचार्यजी भिक्षा हेतु घूमते-घूमते एक सद्गृहस्थ निर्धन ब्राह्मण के घर पहुंच गए और भिक्षा हेतु याचना करते हुए कहा "भिक्षां देहि"। किन्तु संयोग से इन तेजस्वी अतिथि को देखकर संकोच के मारे उस ब्राह्मण की पत्नी लज्जित हो गई। क्योकि भिक्षा देने के लिए घर में एक दाना तक नहीं था। संकल्प में उलझी उस अतिथिप्रिय, पतिव्रता स्त्री को अपनी दुर्दशा पर रोना आ गया और अश्रुपूर्ण आँखों को लेकर घर में से कुछ आंवलो को लेकर आ गई। अत्‍यन्‍त संकोच से इन सूखे आंवलो को उसने उन तपस्वी को भिक्षा में दिए।

साक्षात् शंकरस्वरुप उन शंकराचार्यजी को उसकी यह दीनता देखकर उस पर तरस आ गया। करुणासागर आचार्यपाद का हृदय करुणा से भर गया।

इन्‍होंने तत्काल ऐश्वर्यदायी,  दशविध लक्ष्मी देने वाली, अधिष्ठात्री, करुणामयी, वात्सल्यमयी, नारायण पत्नी, महालक्ष्मी को सम्बोधित करते हुए, कोमलकांत पद्यावली में एक स्तोत्र की रचना की थी और वही स्तोत्र "श्री कनकधारा स्तोत्र" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । कनकधारा स्तोत्र की अनायास रचना से भगवती लक्ष्मी प्रसन्‍न हुईं और त्रिभुवन मोहन स्वरुप में आचार्यश्री के सम्मुख प्रकट हो गयीं तथा अत्‍यन्‍त मधुरवाणी से पूछा ''हे पुत्र अकारण ही मेरा स्मरण क्यों किया? आचार्य शंकर ने ब्राह्मण परिवार की दरिद्र अवस्था को बताया। उसे संपन्न, सबल एवं धनवान बनाने की प्रार्थना की। तब माता लक्ष्मी ने प्रत्युत्तर दिया "इस गृहस्थ के पूर्व जन्म के उपार्जित पापों के कारण इस जन्म में उसके पास लक्ष्मी होना संभव नहीं है। इसके प्रारब्ध में लक्ष्मी है ही नहीं।

आचार्य शंकर ने विनयपूर्वक माता से कहा क्या मुझ जैसे याचक के इस स्तोत्र की रचना के बाद भी यह संभव नहीं है?  भगवती महालक्ष्मी अंतर्ध्यान हो गयीं। लेकिन इतिहास साक्षी है इस स्तोत्र के पाठ के बाद उस दरिद्र ब्राह्मण का दुर्दैव नष्ट हो गया। कनक की वर्षा हुई अर्थात सोने की वर्षा हुई। इसी कारण से इस स्तोत्र का नाम कनकधारा नाम पड़ा और इसी महान स्तोत्र के तीनों काल पाठ करने से अवश्य ही रंक भी राजा बनता है।

|| श्री कनकधारा स्तोत्र कथा समाप्तः ॥


श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत कनकधारास्तोत्रम् || Shri Mad Shankaracharyakrit Kanakdharastotram 


वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्दिरानन्दकन्दलम् ।

अमन्दानन्दसन्दोहबन्धुरं सिन्धुराननम् ॥


अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती

भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।

अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला

माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥1॥


मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः

प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।

माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या

सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥2॥


आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दं

आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् ।

आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं

भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥3॥


बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या

हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला

कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥4॥


कालाम्बुदाळिललितोरसि कैटभारेः

धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव ।

मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः

भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥5॥


प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावान्-

माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।

मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं

मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥6॥


विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं

आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि ।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध-

मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥7॥


इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र

दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।

दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां

पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥8॥


दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां

अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे ।

दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं

नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥9॥


धीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति   

शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति ।

सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै

तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥10॥


श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै

रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै ।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै

पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥11॥


नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै

नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै ।

नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै

नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥12॥


नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै

नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै ।

नमोऽस्तु देवादिदयापरायै

नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥13॥


नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै

नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै ।

नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै

नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥14॥


नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै

नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै ।

नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै

नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥15॥


सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि

साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि ।

त्वद्वन्दनानि दुरितोत्तरणोद्यतानि 

मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥16॥


यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः

सेवकस्य सकलार्थसम्पदः ।

सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः

त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥17॥


सरसिजनिलये सरोजहस्ते

धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे ।

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे

त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥18॥


दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट

स्वर्वाहिनी विमलचारुजलप्लुताङ्गीम् ।

प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष

लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥19॥


कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं

करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः ।

अवलोकय मामकिञ्चनानां

प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥20॥


देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः

कल्यानगात्रि कमलेक्षणजीवनाथे ।

दारिद्र्यभीतिहृदयं शरणागतं मां

आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः ॥21॥


स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं

त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् ।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो

भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥22॥


॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत

श्री कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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मंगलवार, 9 नवंबर 2021

श्री काली चालीसा || Shri Kali Chalisa || Kali Chalisa Lyrics in Hindi Free Download || जयकाली कलिमलहरण || Jaya Kali Kalimalharan || Jay Kali Kalkatte Wali

 श्री काली चालीसा || Shri Kali Chalisa || Kali Chalisa Lyrics in Hindi Free Download || जयकाली कलिमलहरण || Jaya Kali Kalimalharan || Jay Kali Kalkatte Wali


॥दोहा ॥


जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।

महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥

।। चौपाई।।

अरि मद मान मिटावन हारी । 

मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥

अष्टभुजी सुखदायक माता । 

दुष्टदलन जग में विख्याता ॥

भाल विशाल मुकुट छविछाजै । 

कर में शीश शत्रु का साजै ॥

दूजे हाथ लिए मधु प्याला । 

हाथ तीसरे सोहत भाला ॥

चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । 

छठे त्रिशूलशत्रु बल जांचे ॥

सप्तम करदमकत असि प्यारी । 

शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥

अष्टम कर भक्तन वर दाता । 

जग मनहरण रूप ये माता ॥

भक्तन में अनुरक्त भवानी । 

निशदिन रटेंॠषी-मुनि ज्ञानी ॥

महशक्ति अति प्रबल पुनीता । 

तू ही काली तू ही सीता ॥

पतित तारिणी हे जग पालक । 

कल्याणी पापीकुल घालक ॥

शेष सुरेश न पावत पारा । 

गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥

तुम समान दाता नहिं दूजा । 

विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥

रूप भयंकर जब तुम धारा । 

दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥

नाम अनेकन मात तुम्हारे । 

भक्तजनों के संकट टारे ॥

कलि के कष्ट कलेशन हरनी । 

भव भय मोचन मंगल करनी ॥

महिमा अगम वेद यश गावैं । 

नारद शारद पार न पावैं ॥

भू पर भार बढ्यौ जब भारी । 

तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥

आदि अनादि अभय वरदाता । 

विश्वविदित भव संकट त्राता ॥

कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । 

उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥

ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । 

काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥

कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । 

अरि हित रूप भयानक धारे ॥

सेवक लांगुर रहत अगारी । 

चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥

त्रेता में रघुवर हित आई । 

दशकंधर की सैन नसाई ॥

खेला रण का खेल निराला । 

भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥

रौद्र रूप लखि दानव भागे । 

कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥

तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । 

स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥

ये बालक लखि शंकर आए । 

राह रोक चरनन में धाए ॥

तब मुख जीभ निकर जो आई । 

यही रूप प्रचलित है माई ॥

बाढ्यो महिषासुर मद भारी । 

पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥

करूण पुकार सुनी भक्तन की । 

पीर मिटावन हित जन-जन की ॥

तब प्रगटी निज सैन समेता । 

नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥

शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । 

तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥

मान मथनहारी खल दल के । 

सदा सहायक भक्त विकल के ॥

दीन विहीन करैं नित सेवा । 

पावैं मनवांछित फल मेवा ॥

संकट में जो सुमिरन करहीं । 

उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥

प्रेम सहित जो कीरतिगावैं । 

भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥

काली चालीसा जो पढ़हीं । 

स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥

दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । 

केहि कारणमां कियौ विलम्बा ॥

करहु मातु भक्तन रखवाली । 

जयति जयति काली कंकाली ॥

सेवक दीन अनाथ अनारी। 

भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥


॥ दोहा ॥

प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।

तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥

रविवार, 7 नवंबर 2021

दुर्गा स्तोत्र || Shri Durga Stotra || Durga Stotra Sanskrit / Hindi Lyrics || Devi Stotra for a prosperous life || जय भगवति देवि || Jaya Bhagawati Devi

दुर्गा स्तोत्र || Shri Durga Stotra || Durga Stotra Sanskrit / Hindi Lyrics || Devi Stotra for a prosperous life || जय भगवति देवि || Jaya Bhagawati Devi


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जय भगवति देवि नमो वरदे 

जय पापविनाशिनि बहुफलदे।

जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे 

प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥१॥

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जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे 

जय पावकभूषितवक्त्रवरे।

जय भैरवदेहनिलीनपरे 

जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥२॥

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जय महिषविमर्दिनि शूलकरे 

जय लोकसमस्तकपापहरे।

जय देवि पितामहविष्णुनते 

जय भास्करशक्रशिरोवनते॥३॥

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जय षण्मुखसायुधईशनुते 

जय सागरगामिनि शम्भुनुते।

जय दु:खदरिद्रविनाशकरे 

जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥४॥

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जय देवि समस्तशरीरधरे 

जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।

जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे 

जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे॥५॥

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एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।

गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥६॥

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गुरुवार, 4 नवंबर 2021

श्री महालक्ष्मी अष्टकम || Shri Mahalakshmi Ashtakam || श्री महालक्ष्‍मी अष्‍टकम संस्‍कृत और हिन्‍दी अनुवाद || Shri Mahalakshmi Ashtakam Sanskrit aur Hindi Anuvad || Mahalakshmi Ashtakam Hindi Sanskrit Lyrics||श्री वैभव लक्ष्‍मी यन्‍त्र || Shri Vaibhav Lakshmi Yantra

श्री महालक्ष्मी अष्टकम || Shri Mahalakshmi Ashtakam || श्री महालक्ष्‍मी अष्‍टकम संस्‍कृत और हिन्‍दी अनुवाद || Shri Mahalakshmi Ashtakam Sanskrit aur Hindi Anuvad || Mahalakshmi Ashtakam Hindi Sanskrit Lyrics || श्री वैभव लक्ष्‍मी यन्‍त्र || Shri Vaibhav Lakshmi Yantra

।। श्री महालक्ष्मी अष्टकम ।।

श्री महालक्ष्‍मी अष्‍टकम हिन्‍दी अनुवाद || Shri Mahalakshmi Ashtakam Hindi Lyrics and Anuvaad

महालक्ष्मीअष्टकम स्तोत्रम् यः पठेत्भक्तिमानरः। 
सर्वसिद्धिमवापनोति राज्यम प्राप्तयोति सर्वदा ।।

।। ॐ श्री गणेशाय नमः ।।
।। इन्द्र उवाच: ।।
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठेसुरपूजिते 
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते||1|| 

नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुरभयंकरि 
सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||2||

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरी 
सर्व दुःखहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||3||

सिद्धिबुधिप्रदे देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी 
मंत्रमुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||4||

आद्यन्तरहिते देवी आद्यशक्तिमहेश्वरी 
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मी नमोस्तुते||5||

स्थूलसूक्ष्म महारौद्रे महाशक्तिमहोदरे 
महापापहरे देवि महालक्ष्मी नमोस्तुते||6||

पद्मासनस्थिते देवी परब्रह्मस्वरूपिणि 
परमेशि जगन्माता महालक्ष्मी नमोस्तुते ||7||

श्वेताम्बरधरे देवी नानालङ्कारभूषिते 
जगतस्थिते जगन्माता महालक्ष्मी नमोस्तुते||8||

।। फल स्तुति ।।

महालक्ष्मीअष्टकम स्तोत्रम्यः पठेत्भक्तिमानरः । 
सर्वसिद्धिमवापनोति राज्यम प्राप्तयोति सर्वदा||9||

एककाले पठेनित्यं महापापविनाशनं 
द्विकालं यः पठेन्नित्यम् धनधान्यसमन्वित:||10||

त्रिकालं यः पठेनित्यं महाशत्रुविनाशनम् । 
महालक्ष्मिरभवेर्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा||11||

।। श्री महालक्ष्मी अष्टकम ।।
।। ॐ श्री गणेशाय नमः ।।
।। इन्द्र उवाच: ।।
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठेसुरपूजिते 
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते||1||

देवराज इंद्र बोले: मैं महालक्ष्मी की पूजा करता हूं, जो महामाया का प्रतीक हैंं और जिनकी पूजा सभी देवता करते हैं। मैं महालक्ष्मी का ध्यान करता हूं जो अपने हाथों में शंख, चक्र और गदा लिए हुए हैं ।

नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुरभयंकरि ।
सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||2||

देवराज इंद्र बोले: पक्षीराज गरुड़ जिनका वाहन है, भयानक से भयानक दानव भी जिनके भय से कॉंपते है| सभी पापों को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरी । 
सर्व दुःखहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||3||

देवराज इंद्र बोले: मैं उन देवी की पूजा करता हँ जो सब जानने वाली हैं और सभी वर देने वाली हैं, वह सभी दुष्टो का नाश करती हैं। सभी दुखों को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

सिद्धिबुधिप्रदे देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी 
 मंत्रमुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते||4||

देवराज इंद्र बोले: हे भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली देवी महालक्ष्मी कृपा कीजिये और हमें सिद्धि व सदबुद्धि प्रदान कीजिये। सभी मंत्रों का आप मूल हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

आद्यन्तरहिते देवी आद्यशक्तिमहेश्वरी । 
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मी नमोस्तुते||5||

देवराज इंद्र बोले: हे आद्यशक्ति देवी महेश्वरी महालक्ष्मी, आप शुरु व अंत रहित हैं। आप योग से उत्पन्न हुईं और आप ही योग की रक्षा करने वाली हैं। देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

स्थूलसूक्ष्म महारौद्रे महाशक्तिमहोदरे 
महापापहरे देवि महालक्ष्मी नमोस्तुते||6||

देवराज इंद्र बोले: महालक्ष्मी आप जीवन की स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आप एक महान शक्ति हैं और आप का स्वरुप दुष्‍टों के लिए महारौद्र है। सभी पापो को हरने वाली देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

पद्मासनस्थिते देवी परब्रह्मस्वरूपिणि । 
परमेशि जगन्माता महालक्ष्मी नमोस्तुते||7||

देवराज इंद्र बोले: हे परब्रह्मस्वरूपिणि देवी आप कमल पर विराजमान हैं| परमेश्वरि आप इस संपूर्ण ब्रह्मांड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

श्वेताम्बरधरे देवी नानालङ्कारभूषिते । 
जगतस्थिते जगन्माता महालक्ष्मी नमोस्तुते||8||

देवराज इंद्र बोले: हे देवी महालक्ष्मी, आप अनेको आभूषणों से सुशोभित हैं और श्वेत वस्त्र धारण किए हैं| आप इस संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड में व्याप्त हैं और इस संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड की माता हैं देवी महालक्ष्मी आपको नमस्कार है।

।। फल स्तुति ।।

जो भी व्यक्ति इस महालक्ष्मी अष्टकम स्तोत्र का पाठ भक्तिभाव से करते हैं उन्हें सर्वसिद्धि प्राप्त होंगी और उनकी समस्त इच्छाएं सदैव पूरी होंगी।

एककाले पठेनित्यं महापापविनाशनं ।
द्विकालं यः पठेन्नित्यम् धनधान्यसमन्वित:||10||

महालक्ष्मी अष्टकम का प्रतिदिन एक बार पाठ करने से भक्‍तों के महापापों का विनाश हो जाता है। प्रतिदिन प्रातः व संध्या काल यह पाठ करने से भक्‍तों को धन और धान्य की प्राप्ति होती है।

त्रिकालं यः पठेनित्यं महाशत्रुविनाशनम् । 
महालक्ष्मिरभवेर्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा||11||

प्रतिदिन प्रातः दोपहर व संध्याकाल यह पाठ करने से भक्‍तों के शक्तिशाली दुश्मनों का नाश होता है और उनसे माता महालक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहती हैं तथा उनके वरदान स्वरुप भक्तो के सभी कार्य शुभ होते हैं।

श्री वैभव लक्ष्‍मी यन्‍त्र || Shri Vaibhav Lakshmi Yantra