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मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

करवा चौथ व्रत कथा (कहानी) //Karva Chauth Vrat Katha Book & Pooja Vidhi// Lyrics in Hindi PDF // Lyrics in English

करवा चौथ व्रत कथा (कहानी) //Karva Chauth Vrat Katha Book & Pooja Vidhi// Lyrics in Hindi PDF // Lyrics in English


हिन्दू धर्म की मान्‍यता के अनुसार कार्तिक महीने में पूर्णिमा के चौथे दिन करवा चौथ वाला त्योहार मनाया जाता है। इस दिन सुहागिन महिलाएँ अपने पति की लम्‍बी आयु की कामना के साथ निर्जला व्रत रखती हैं। इस दिन शाम को करवा चौथ कथा पढ़ / सुन कर चंद्रमा निकलने के बाद वे चंद्रमा को अर्घ्य देती हैं और पति का तिलक आदि करने के बाद पति के हाथों से पानी पीकर अपना व्रत खोलती हैं। इस दिन भगवान शिव, गणेश जी और स्कन्द यानि कार्तिकेय के साथ बनी गौरी के चित्र की सभी उपचारों के साथ पूजा की जाती है। कहते हैं कि इस व्रत को करने से जीवन में पति का साथ हमेशा बना रहता है। साथ ही, सौभाग्य की प्राप्ति और जीवन में सुख-शान्ति बनी रहती है।

क्या है करवा चौथ की सरगी? What is Sargi in Karwa Chauth

सरगी के माध्‍यम से सास अपनी बहू को सुहाग का आशीर्वाद देती है। सरगी की थाल में 16 श्रृंगार की सभी समाग्री, मेवा, फल, मिष्ठान आदि होते हैं। सरगी में रखे गए व्यंजनों को ग्रहण करके ही इस व्रत का आरंभ किया जाता है। सास न हो तो जेठानी या बहन के माध्‍यम से भी यह रस्म निभायी जा सकती है। 

सरगी के सेवन का शुभ मुहूर्त Shubh Muhurt for Sargi

करवा चौथ व्रत वाले दिन सरगी सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में प्रात: 4 से 5 बजे के करीब कर लेना चाहिए। सरगी में भूलकर भी तेल मसाले वाली चीजों को ग्रहण न करें। इससे व्रत का फल नहीं मिलता है। ब्रह्म मुहूर्त में सरगी का सेवन अच्छा माना जाता है। 

करवा चौथ 2023 का शुभ मुहूर्त //Karwa Chauth 2023 ka Shubh Muhurt

इस साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि की शुरुआत 31 अक्तूबर मंगलवार को रात 9 बजकर 30 मिनट से हो रही है। यह तिथि अगले दिन 1 नवंबर को रात 9 बजकर 19 मिनट तक रहेगी। ऐसे में उदया तिथि और चंद्रोदय के समय को देखते हुए करवा चौथ का व्रत 1 नवंबर 2023, बुधवार को रखा जाएगा। 1 नवंबर को करवा चौथ वाले दिन चंद्रोदय 8 बजकर 26 मिनट पर होगा। वहीं इस दिन शाम 5 बजकर 44 मिनट से 7 बजकर 02 मिनट तक पूजा का शुभ मुहूर्त है। 1 नवंबर को करवा चौथ के दिन सर्वार्थ सिद्धि और शिव योग का संयोग बन रहा है। इस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग सुबह 06 बजकर 33 मिनट से 2 नवंबर को सुबह 04 बजकर 36 मिनट रहेगा। इसके अलावा 1 नवंबर की दोपहर 02 बजकर 07 मिनट से शिवयोग शुरू हो जाएगा। इन दोनों शुभ संयोग की वजह से इस साल करवा चौथ का महत्व और बढ़ गया है। 

करवा चौथ 2023 पूजा विधि // Karva Chauth Puja Vidhi 

करवा चौथ पूजा करने के लिए घर के उत्तर-पूर्व दिशा के कोने को अच्छे से साफ कर लें और लकड़ी की चौकी बिछाकर उस पर शिवजी, मां गौरी और गणेश जी की तस्वीर या चित्र रखें। साथ ही, उत्तर दिशा में एक जल से भरा कलश स्थापित कर उसमें थोड़े-से अक्षत डालें। इसके बाद कलश पर रोली, अक्षत का टीका लगाएं और गर्दन पर मौली बांधें। तीन जगह चार पूड़ी और 4 लड्डू लें, अब एक हिस्से को कलश के ऊपर, दूसरे को मिट्टी या चीनी के करवे पर और तीसरे हिस्से को पूजा के समय महिलाएं अपने साड़ी या चुनरी के पल्ले में बांध कर रख लें। अब करवाचौथ माता के सामने घी का दीपक जलाकर कथा पढ़ें। पूजा करने के बाद साड़ी के पल्ले और करवे पर रखे प्रसाद को बेटे या अपने पति को खिला दें। वहीं, कलश पर रखे प्रसाद को गाय को खिला दें। पानी से भरे हुए कलश को पूजा स्थल पर ही रहने दें। चन्द्रोदय के समय इसी कलश के जल से चन्द्रमा को अर्घ्य दें और घर में जो कुछ भी बना हो, उसका भोग चंद्रमा को लगाएं। इसके बाद पति के हाथों से जल ग्रहण करके व्रत का पारण करें। 

करवा चौथ का उजमन // Karwa Chauth ka Ujman

एक थाल में चार-चार पूड़ियाँ तेरह जगह रखकर उनके ऊपर थोड़ा-थोड़ा हलवा रख दें। थाल में एक साड़ी, ब्लाउज और सामर्थ्यानुसार रुपये भी रखें। फिर उसके चारों ओर रोली-चावल से हाथ फेरकर अपनी सासूजी के चरण स्पर्श कर उन्हें दे दें। तदुपरांत तेरह ब्राह्मण/ब्राह्मणियों को आदर सहित भोजन कराएं, दक्षिणा दें तथा रोली की बिन्‍दी /तिलक लगाकर उन्हें विदा करें। 

Karva Chauth Vrat Katha 2023 PDF (करवाचौथ व्रत की कथा (कहानी) PDF Download) Karva Chauth Vrat Katha Book PDF – ਕਰਵਾ ਚੌਥ ਵਰਤ ਦੀ ਕਹਾਣੀ 

एक साहूकार के एक पुत्री और सात पुत्र थे। करवा चौथ के दिन साहूकार की पत्नी, बेटी और बहुओं ने व्रत रखा। रात्रि को साहूकार के पुत्र भोजन करने लगे तो उन्होंने अपनी बहन से भोजन करने के लिए कहा। बहन वोली- “भाई! अभी चन्द्रमा नहीं निकला है, उसके निकलने पर मैं अर्घ्य देकर भोजन करूँगी।” इस पर भाइयों ने नगर से बाहर जाकर अग्नि जला दी और छलनी ले जाकर उसमें से प्रकाश दिखाते हुए बहन से कहा- “बहन! चन्द्रमा निकल आया है, अर्घ्य देकर भोजन कर लो।” बहन अपनी भाभियों को भी बुला लाई कि तुम भी चन्द्रमा को अर्घ्य दे दो, किन्तु वे अपने पतियों की करतूत जानती थीं। उन्होंने कहा- “अभी चन्द्रमा नहीं निकला है। तुम्हारे भाई चालाकी करते हुए अग्नि का प्रकाश छलनी से दिखा रहे हैं।” किन्तु बहन ने भाभियों की बात पर ध्यान नहीं दिया और भाइयों द्वारा दिखाए प्रकाश को ही अर्घ्य देकर भोजन कर लिया। इस प्रकार व्रत भंग होने से गणेश जी उससे रुष्ट हो गए। इसके बाद उसका पति सख्त बीमार हो गया और जो कुछ घर में था, उसकी बीमारी में खर्च हो गया। साहूकार की पुत्री को जब अपने दोष का पता लगा तो वह पश्चाताप से भर उठी। गणेश जी से क्षमा-प्रार्थना करने के बाद उसने पुनः विधि-विधान से चतुर्थी का व्रत करना आरम्भ कर दिया। श्रद्धानुसार सबका आदर सत्कार करते हुए, सबसे आशीर्वाद लेने में ही उसने मन को लगा दिया। इस प्रकार उसके श्रद्धाभक्ति सहित कर्म को देख गणेश जी उस पर प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसके पति को जीवनदान दे उसे बीमारी से मुक्त करने के पश्चात् धन-सम्पत्ति से युक्त कर दिया। इस प्रकार जो कोई छल-कपट से रहित श्रद्धाभक्तिपूर्वक चतुर्थी का व्रत करेगा, वह सब प्रकार से सुखी होते हुए कष्ट-कंटकों से मुक्त हो जाएगा। 

करवा चौथ का महत्व // Karwa Chauth Ka Mahatva

करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्‍यौहार है। यह उत्‍तर भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में प्रमुखता से मनाया जाता है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब 4 बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है। ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अर्घ्य देने के उपरान्‍त ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं। यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए इस व्रत का सतत पालन करें।

करवा चौथ की आरती Karwa Chauth Aarti Download 

ओम जय करवा मैया, 
माता जय करवा मैया। 
जो व्रत करे तुम्हारा, 
पार करो नइया।। 
ओम जय करवा मैया। 

सब जग की हो माता, 
तुम हो रुद्राणी। 
यश तुम्हारा गावत, 
जग के सब प्राणी।। 
ओम जय करवा मैया, 
माता जय करवा मैया। 
जो व्रत करे तुम्हारा, 
पार करो नइया।। 

कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, 
जो नारी व्रत करती। 
दीर्घायु पति होवे,
दुख सारे हरती।। 
ओम जय करवा मैया, 
माता जय करवा मैया। 
जो व्रत करे तुम्हारा, 
पार करो नइया।। 

होए सुहागिन नारी, 
सुख संपत्ति पावे। 
गणपति जी बड़े दयालु, 
विघ्न सभी नाशे।। 
ओम जय करवा मैया, 
माता जय करवा मैया। 
जो व्रत करे तुम्हारा, 
पार करो नइया।। 

करवा मैया की आरती, 
व्रत कर जो गावे। 
व्रत हो जाता पूरन, 
सब विधि सुख पावे।। 
ओम जय करवा मैया, 
माता जय करवा मैया। 
जो व्रत करे तुम्हारा, 
पार करो नइया।। 
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रविवार, 20 अगस्त 2023

ललही छठ (हलछठ) की पौराणिक व्रत कथा || Lalahi Chhath (Hal Chhath) ki Pauranik Katha Lyrics in Hindi

ललही छठ (हलछठ) की पौराणिक व्रत कथा || Lalahi Chhath (Hal Chhath) ki Pauranik Katha Lyrics in Hindi || Lyrics in English


हलछठ की कथा, पूजा विधि

ललही छठ कब मनाया जाता है Lalahi Chhath Kab Manate Hain- 
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ललही छठ व्रत का त्योहार मनाया जाता है। 

ललही छठ को और किन नामों से जाना जाता है Lalahi Ke Aur Kya Naam Hain - 
इसे हलछठ, हरछठ, पीन्नी छठ, खमर छठ, राधन छठ, चंदन छठ, तिनछठी, तिन्नी छठ, ललही छठ आदि नामों से जाना जाता है| 

ललही छठ में किस देवी की पूजा की जाती है Lalahi Chhath me Kis Devi Ke Puja Hoti Hai - 
इस दिन षष्ठी माता की पूजा की जाती है। जन्माष्टमी से से ठीक दो दिन  पहले मनाए जाने वाले  हलछठ  के पर्व  को श्री कृष्ण भगवान के बड़े भ्राता बलराम  की जयंती के रूप में भी जाना जाता है। बलराम जिन्हें बलदेव, बलभद्र और बलदाऊ के नाम से भी जाना जाता है  वास्तव में शेषनाग  के अवतार थे। बलराम को हल और मूसल से खास प्रेम था। यही उनके प्रमुख अस्त्र भी थे। इसलिए ललही छठ के दिन किसान हल, मूसल और बैल की पूजा करते हैं। इसे किसानों के त्योहार के रूप में भी देखा जाता है।

ललही छठ क्‍यों मनाया जाता है Lalahi Chhath Kyon Manate Hain - 
जब कंस को पता चला की वासुदेव और देवकी की संतान उसकी मृत्यु का कारण बनेंगी तो उसने उन्हे कारागार में डाल दिया और उसकी सभी 6 जन्मी संतानों वध कर डाला। देवकी को जब सांतवा पुत्र होना था तब उनकी रक्षा के लिए नारद मुनि ने उन्हे हलष्ठी माता की व्रत करने की सलाह दी। जिससे उनका पुत्र कंस के कोप से सुरक्षित हो जाए। देवकी ने षष्ठी माता का व्रत किया। जिसके प्रभाव से भगवान ने योग माया से कह कर देवकी के गर्भ में पल रहे बच्चे को वासुदेव की बड़ी रानी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया जिससे कंस को भी धोखा हो गया और उसने समझा देवकी का सातवॉं पुत्र जीवित नहीं है। उधर रोहिणी के गर्भ से भगवान बलराम का जन्म हुआ। भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हुआ था। इसलिए इस दिन को बलराम जयंती भी कहा जाता है। इसके बाद देवकी के गर्भ से आठवें पुत्र के रुप में श्री कृष्ण का जन्म हुआ। देवकी के षष्ठी माता का व्रत करने से दोनों पुत्रों की रक्षा हुई। इसीलिए यह व्रत स्त्रियां अपने संतान की दीर्घ आयु और स्वस्थ्य के लिए करती हैं।  संतान प्राप्ति के लिए भी महिलाएं हलषष्ठी का व्रत करती है।

ललही छठ व्रत का महत्‍व Lalahi Chhath Vrat Ka Mahattva - 
भगवती षष्ठी देवी शिशुओं की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। इनकी पूजा से संतान को दीर्घायु प्राप्त होती है साथ ही जिनके संतान नहीं होती उन्हें संतान की प्राप्ति होती है। ये  मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई हैं जिस कारण इनका नाम षष्ठी देवी पड़ा है| भगवती षष्ठी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास सदा वृद्धमाता के रूप में अप्रत्यक्ष रुप से विद्यमान रहती हैं, ये इनकी यानि शिशुओं की रक्षा करने के साथ-साथ इनका भरण-पोषण भी करती हैं। ये देवी बच्चों को स्वप्न में कभी रुलाती हैं, कभी हंसाती हैं, कभी खिलाती हैं तो कभी दुलार करती हैं। कहा जाता है कि जन्म के छठे दिन जो छठी मनाई जाती हैं वो इन्हीं षष्ठी देवी की ही पूजा की जाती है। अपने पति की रक्षा और आरोग्य जीवन के लिए स्त्रियां मां गौरी की पूजा भी करती हैं और उन्हें सुहाग का समान चढ़ाती हैं। 

ललही छठ व्रत कथा Lalahi Chhath Vrat Katha 


एक समय की बात है। किसी गॉंव में एक ग्वालिन रहती थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा।

यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।

उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान खेत जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।

इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने तुरन्‍त झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया। 

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है।

वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध भैंस का बताकर न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों के सामने सच स्‍वीकार करके प्रायश्चित करना चाहिए।

ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर दया करके उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया ।

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सभी प्रेम से बोलो ललही माता की जय 
हलछठ माता की जय
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मंगलवार, 30 अगस्त 2022

अथ हरतालिका (तीज) व्रत कथा एवं पूजन विधि Hartalika Teej Vrat Pujan Vidhi Lyrics in Hindi

अथ हरतालिका (तीज) व्रत कथा एवं पूजन विधि Hartalika Teej Vrat Pujan Vidhi Lyrics in Hindi


हरतालिका (तीज) Hartalika Teej Vrat 



हरतालिका (तीज) व्रत धारण करने वाली स्त्रियां भादो महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन ब्रह्‌म मुहूर्त में जागें, नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, उसके पश्चात तिल तथा आंवला के चूर्ण के साथ स्नान करें फिर पवित्र स्थान में आटे से चौक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव पार्वती की पार्थिव-प्रतिमा (मिट्‌टी की मूर्ति) बनाकर स्थापित करें। तत्पश्चात नवीन वस्त्र धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि मैं आज तीज के दिन शिव पार्वती का पूजन करूंगी इसके अनन्तर ''श्री गणेशाय नमः'' उच्चारण करते हुए गणेश जी का पूजन करें। ''कलशाभ्यो नमः'' से वरुणादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें। चन्दनादि समर्पण करें, कलशमुद्रा दिखावें घन्टा बजावें जिससे राक्षस भाग जायं और देवताओं का शुभागमन हो, गन्ध अक्षतादि द्वारा घंटा को नमस्कार करें, दीपक को नमस्कार कर पुष्पाक्षतादि से पूजन करें, हाथ में जल लेकर पूजन सामग्री तथा अपने ऊपर जल छिड़कें। इन्द्र आदि अष्ट लोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें, इसके बाद अर्ध्य, पाद्य, गंगा-जल से आचमन करायें। शंकर-पार्वती को गंगाजल, दूध, मधु, दधि और घृत से स्नान कराकर फिर शुद्ध जल से स्नान करावें। इसके उपरान्त हरेक वस्तु अर्पण के लिए 'ओउम नमः शिवाय' कहती जाय और पूजन करें। अक्षत, पुष्प, धूप तथा दीपक दिखावें। फिर नैवेद्य चढाकर आचमन करावें, अनन्तर हाथों के लिए उबटन अर्पण करें। इस प्रकार के पंचोपचार पूजन से श्री शिव हरितालिका की प्रसन्नता के लिए ही कथन करें। फिर उत्तर की ओर निर्माल्य का विसर्जन करके श्री शिव हरितालिका की जयजयकार महा-अभिषेक करें। इसके बाद सुन्दर वस्त्र समर्पण करें, यज्ञोपवीत धारण करावें। चन्दन अर्पित करें, अक्षत चढावें । सप्तधान्य समर्पण करें। हल्दी चढ़ावें, कुंकुम मांगलिक सिन्दूर आदि अर्पण करें। ताड पत्र (भोजपत्र) कंठ माला आदि समर्पण करें। सुगन्धित पुष्प अर्पण करें, धूप देवें, दीप दिखावें, नैवेद्य चढावें। फिर मध्य में जल से हाथ धुलाने के लिए जल छोडेें और चन्दन लगावें। नारियल तथा ऋतु फल अर्पण करें। ताम्बूल (सुपारी) चढावें। दक्षिणा द्रव्य चढावें। भूषणादि चढावें। फिर दीपारती उतारें। कपूर की आरती करें। पुष्पांजलि चढावें। इसके बाद परिक्रमा करें। और 'ओउम नमः शिवाय' इस मंत्र से नमस्कार करें। फिर तीन अर्ध्य देवें। इसके बाद संकल्प द्वारा ब्राह्‌मण आचार्य का वायन वस्त्रादि द्वारा पूजन करें। पूजा के पश्चात अन्न, वस्त्र, फल दक्षिणा युक्तपात्र हरितालिका देवता के प्रसन्नार्थ ब्राह्‌मण को दान करें उसमें 'न मम' कहना आवश्यक है, इससे देवता प्रसन्न होते हैं। दान लेने वाला संकल्प लेकर वस्तुओं के ग्रहण करने की स्वीकृति देवे, इसके बाद विसर्जन करें। विसर्जन में अक्षत एवं जल छिडकें।

अथ हरतालिका व्रत कथा ( Hartalika Vrat Katha )

सूतजी बोले- जिल श्री पार्वतीजी के घुंघराले केश कल्पवृक्ष के फूलों से ढंके हुए हैं और जो सुन्दर एवं नये वस्त्रों को धारण करने वाली हैं तथा कपालों की माला से जिसका मस्तक शोभायमान है और दिगम्बर रूपधारी शंकर भगवान हैं उनको नमस्कार हो। कैलाश पर्वत की सुन्दर विशाल चोटी पर विराजमान भगवान शंकर से गौरी जी ने पूछा - हे प्रभो! आप मुझे गुप्त से गुप्त किसी व्रत की कथा सुनाइये। हे स्वामिन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसा व्रत बताने की कृपा करें जो सभी धर्मों का सार हो और जिसके करने में थोड़ा परिश्रम हो और फल भी विशेष प्राप्त हो जाय। यह भी बताने की कृपा करें कि मैं आपकी पत्नी किस व्रत के प्रभाव से हुई हूं। हे जगत के स्वामिन! आदि मध्य अन्त से रहित हैं आप। मेरे पति किस दान अथवा पुण्य के प्रभाव से हुए हैं?

शंकर जी बोले - हे देवि! सुनो मैं तुमसे वह उत्तम व्रत कहता हूं जो परम गोपनीय एवं मेरा सर्वस्व है। वह व्रत जैसे कि ताराओं में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य , वर्णों में ब्राह्‌मण सभी देवताओं में विष्णु, नदियों में जैसे गंगा, पुराणों में जैसे महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन, जैसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं। वेैसे पुराण वेदों का सर्वस्व ही इस व्रत को शास्त्रों ने कहा है, उसे एकाग्र मन से श्रवण करो। इसी व्रत के प्रभाव से ही तुमने मेरा अर्धासन प्राप्त किया है तुम मेरी परम प्रिया हो इसी कारण वह सारा व्रत मैं तुम्हें सुनाता हूं। भादों का महीना हो, शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि हो, हस्त नक्षत्र हो, उसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से मनुष्यों के सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। हे देवि! सुनो, जिस महान व्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर धारण किया था वह सबका सब पूरा वृतान्त मुझसे श्रवण करो।

श्रीपार्वती जी बोलीं- भगवन! वह सर्वोत्तम व्रत मैंने किस प्रकार किया था यह सब हे परमेश्वर! मैं आपसे सुनना चाहती हूं।

शिवजी बोले-हिमालय नामक एक उत्तम महान पर्वत है। नाना प्रकार की भूमि तथा वृक्षों से वह शोभायमान है। अनेकों प्रकार के पक्षी वहां अपनी मधुर बोलियों से उसे शोभायमान कर रहे हैं एवं चित्र-विचित्र मृगादिक पशु वहां विचरते हैं। देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण एवं गुह्‌यक प्रसन्न होकर वहां घूमते रहते हैं। गन्धर्वजन गायन करने में मग्न रहते हैं। नाना प्रकार की वैडूर्य मणियों तथा सोने की ऊंची ऊंची चोटियों रूपी भुजाओं से यानी आकाश पर लिखता हुआ दिखाई देता है। उसका आकाश से स्पर्श इस प्रकार से है जैसे कोई अपने मित्र के मन्दिर को छू रहा हो। वह बर्फ से ढका रहता है, गंगा नदी की ध्वनि से वह सदा शब्दायमान रहता है। हे पार्वती! तुने वहीं बाल्यावस्था में बारह वर्ष तक कठोर तप किया अधोमुख होकर केवल धूम्रपान किया। फिर चौसठ वर्ष पर्यन्त पके पके पत्ते खाये। माघ महीने में जल में खड़ी हो तप किया और वैशाख में अग्नि का सेवन किया। सावन में अन्न पान का त्याक कर दिया, एकदम बाहर मैदान में जाकर तप किया।

तुम्हारे पिताजी तुम्हें इस प्रकार के कष्टों में देखकर घोर चिन्ता से व्याकुल हो गये। उन्होंने विचार किया कि यह कन्या किसको दी जाय। उस समय ब्रह्‌मा जी के पुत्र परम धर्मात्मा श्रेष्ठ मुनि, श्री नारद जी तुम्हें देखने के लिए वहां आ गये। उन्हें अर्ध्य आसन देकर हिमालय ने उनसे कहा। हे श्रेष्ठ मुनि! आपका आना शुभ हो, बड़े भाग्य से ही आप जैसे ऋषियों का आगमन होता है, कहिये आपका शुभागमन किस कारण से हुआ।

श्री नारद मुनि बोले- हे पर्वतराज! सुनिये मुझे स्वयं विष्णु भगवान ने आपके पास भेजा है। आपकी यह कन्या रत्न है, किसी योगय व्यक्ति को समर्पण करना उत्तम है। संसार में ब्रह्‌मा, इन्द्र शंकर इत्यादिक देवताओं में वासुदेव श्रेष्ठ माने जाते हैं उन्हें ही अपनी कन्या देना उत्तम है, मेरी तो यही सम्मति है। हिमालय बोले - देवाधिदेव! वासुदेव यदि स्वयं ही जब कन्या के लिए प्रार्थना कर रहे हैं और आपके आगमन का भी यही प्रयोजन है तो अपनी कन्या उन्हें दूंगा। यह सुन कर नारद जी वहां से अन्तर्ध्यान होकर शंख, चक्र, गदा, पद्‌मधारी श्री विष्णु जी के पास पहुंचे।

नारद जी बोले- हे देव! आपका विवाह निश्चित हो गया है। इतना कहकर देवर्षि नारद तो चले आये और इधर हिमालय राज ने अपनी पुत्री गौरी से प्रसन्न होकर कहा- हे पुत्री! तुम्हें गरुणध्वज वासुदेव जी के प्रति देने का विचार कर लिया है। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर पार्वती अपनी सखी के घर गयीं और अत्यन्त दुःखित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं और विलाप करने लगीं। उन्हें इस प्रकार दुखित हो विलाप करते सखी ने देखा और पूछने लगी। हे देवि! तुम्हें क्या दुःख हुआ है मुझसे कहो। और तुम्हे जिस प्रकार से भी सुख हो मैं निश्चय ही वही उपाय करूंगी। पार्वती जी बोली- सखी! मुझे प्रसन्न करना चाहती हो तो मेरी अभिलाषा सुना। हे सखि! मैं कुछ और चाहती हूं और मेरे पिता कुछ और करना चाहते हैं। मैं तो अपना पति श्री महादेवजी को वर चुकी हूं, मेरे पिताजी इसके विपरीत करना चाहते हैं। इसलिए हे प्यारी सखी! मैं अब अपनी देह त्याग कर दूंगी।

तब पार्वती के ऐसे वचन सुन कर सखी ने कहा- पार्वती! तुम घबराओं नही हम दोनों यहां से निकलकर ऐसे वन में पहुंच जायेंगी जिसे तुम्हारे पिता जान ही नहीं सकेंगे। इस प्रकार आपस में राय करके श्री पार्वती जी को वह घोर वन में ले गई। तब पिता हिमालयराज ने अपनी पुत्री को घर में न देखकर इधर-उधर खोज किया, घर-घर ढूढ़ा किन्तु वह न मिली, तो विचार करने लगे। मेरी पुत्री को देव, दानव, किन्नरों में से कौन ले गया। मैंने नारद के आगे विष्णु जी के प्रति कन्या देने की प्रतिज्ञा की थी अब मैं क्या दूंगा। इस प्रकार की चिन्ता करते करते वे मूर्छित होकर गिर पडे। तब उनकी ऐसी अवस्था सुनकर हाहाकार करते हुए लोग हिमालयराज के पास पहुंचे और मूर्छा का कारण पूछने लगे। हिमालय बोले- किसी दुष्टात्मा ने मेरी कन्या का अपहरण कर लिया है अथवा किसी काल सर्प ने उसे काट लिया है या सिंह व्याघ्र ने उसे मार डाला है। पता नहीं मेरी कन्या कहां चली गयी, किस दुष्ट ने उसे हर लिया। ऐसा कहते-कहते शोक से संतप्त होकर हिमालय राज वायु से कम्पायमान महा-वृक्ष के समान कांपने लगे।

तुम्हारे पिता ने सिंह, व्याघ्र, भल्लूक आदि हिंसक पशुओं से भरे हुए एक वन से दूसरे वन में जा जा कर तुम्हें ढूढ़ने का बहुत प्रयत्न किया।

इधर अपनी सखियों के साथ एक घोर में तुम भी जा पहुंची, वहां एक सुन्दर नदी बह रही थी और उसके तट पर एक बडी गुफा थी, जिसे तुमने देखा। तब अपनी सखियों के साथ तुमने उस गुफा में प्रवेश किया। खाना, पीता त्याग करके वहां तुमने मेरी पार्वती युक्त बालुका लिंग स्थापित किया। उस दिन भादों मास की तृतीया थी साथ में हस्त नक्षत्र था। मेरी अर्चना तुमने बडे प्रेम से आरम्भ की, बाजों तथा गीतों के साथ रात को जागरण भी किया। इस प्रकार तुम्हारा परम श्रेष्ठ व्रत हुआ। उसी व्रत के प्रभाव से मेरा आसन हिल गया, तब तत्काल ही मैं प्रकट हो गया, जहां तुम सखियों के साथ थी। मैंने दर्शन देकर कहा कि - हे वरानने! वर मांगो। तब तुम बोली- हे देव महेश्वर! यदि आप प्रसन्न हों तो मेरे स्वामी बनिये। तब मैंने 'तथास्तु' कहा- फिर वहां से अन्तर्धान होकर कैलाश पहुंचा। इधर जब प्रातःकाल हुआ तब तुमने मेरी लिंग मूर्ति का नदी में विसर्जन किया। अपनी सखियों के साथ वन से प्राप्त कंद मूल फल आदि से तुमने पारण किया। हे सुन्दरी! उसी स्थान पर सखियों के साथ तुम सो गई।

हिमालय राज तुम्हारे पिता भी उस घोर वन में आ पहुंचे, अपना खाना पीना त्यागकर वन में चारों ओर तुम्हें ढूढ़ने लगे। नदी के किनारे दो कन्याओं को सोता हुआ उन्होंने देख लिया और पहचान लिया। फिर तो तुम्हें उठाकर गोदी में लेकर तुमसे कहने लगे- हे पुत्री! सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं से पूर्ण इस घोर वन में क्यों आई? तब श्री पार्वती जी बोली- पिता जी! सुनिये, आप मुझे विष्णु को देना चाहते थे, आप की यह बात मुझे अच्छी न लगी, इससे मैं वन में चली आयी। यदि आप मेरा विवाह शंकर के साथ करें तो मैं घर चलूंगी नहीं तो यहीं रहने का मैंने निश्चय कर लिया है।

तब तुम्हारे पिता ने कहा कि एवमस्तु मैं शंकर के साथ ही तुम्हारा विवाह करूंगा। उनके ऐसा कहने पर ही तब तुम घर में आई, तुम्हारे पिता जी ने तब विवाह विधि से तुमको मुझे समर्पित कर दिया। हे पार्वती जी! उसी व्रत का प्रभाव है जिससे तुम्हारे सौभाग्य की वृद्धि हो गई। अभी तक किसी के सम्मुख मैंने इस व्रतराज का वर्णन नहीं किया। हे देवि! इस व्रतराज का नाम भी अब श्रवण कीजिए। क्योंकि तुम अपनी सखियों के साथ ही इस व्रत के प्रभाव से हरी गई, इस कारण इस व्रत का नाम हरितालिका हुआ।

पार्वती जी बोली- हे प्रभो! आपने इसका नाम तो कहा, कृपा करके इसकी विधि भी कहिये। इसके करने से कौन सा फल मिलता है, कौन सा पुण्य लाभ होता है और किस प्रकार से कौन इस व्रत को करे।

ईश्वर बोले- हे देवि! सुनो यह व्रत सौभाग्यवर्धक है, जिसको सौभाग्य की इच्छा हो, वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे। सबसे प्रथम वेदी की रचना करे उसमें ४ केले के खंभ रोपित करे, चारो ओर बन्दनवार बांधे, ऊपर वस्त्र बांधे विविध रंगों के और भी वस्त्र लगावे। उस मंडप के नीचे की भूमि को अनेको चंदनादिक सुगन्धित जल द्वारा लीपे, शंख, मृदंग आदि बाजे बजवाये। वह मंडप मेरा मंदिर है इसलिए नाना प्रकार के मंगलगीत वहां होने चाहिए। शुद्ध रेती का मेरा लिंग श्रीपार्वती के साथ ही वहां स्थापित करे। बहुत से पुष्पों के द्वारा गन्ध, धूप आदि से मेरा पूजन करे फिर नाना प्रकार के मिष्ठान्नादि और नैवेद्य समर्पित करें और रात को जागरण करे। नारियल सुपारियां मुसम्मियां, नीबू, बकुल, बीजपुर नारंगियां एवं और भी ऋतु अनुसार बहुत से फल, उस ऋतु में होने वाले नाना प्रकार के कन्द मूल सुगन्धित धूप दीप आदि सब लेकर इन मंत्रों द्वारा पूजन करके चढ़ावें।

मंत्र इस प्रकार है- शिव, शांत, पंचमुखी, शूली, नंदी, भृंगी, महाकाल, गणों से युक्त शम्भु आपको नमस्कार है। शिवा, शिवप्रिया, प्रकृति सृष्टि हेतु, श्री पार्वती, सर्वमंगला रूपा, शिवरूपा, जगतरूपा आपको नमस्कार है। हे शिवे नित्य कल्याणकारिणी, जगदम्बे, शिवस्वरूपे आपको बारम्बार नमस्कार है। आप ब्रह्‌मचारिणी हो, जगत की धात्री सिंहवाहिनी हो, आप को नमस्कार है। संसार के भय संताप से मेरी रक्षा कीजिए। हे महेश्वरि पार्वती जी। जिस कामना के लिए आपकी पूजा की है, हमारी वह कामना पूर्ण कीजिए। राज्य, सौभाग्य एवं सम्पत्ति प्रदान करें।

शंकर जी बोले- हे देवि! इन मंत्रों तथा प्रार्थनाओं द्वारा मेरे मेरे साथ तुम्हारी पूजा करे और विधिपूर्वक कथा श्रवण करे, फिर बहुत सा अन्नदान करे। यथाशक्ति वस्त्र, स्वर्ण, गाय ब्राह्‌मणों को दे एवं अन्य ब्राह्‌मणों को भूयसीदक्षिणा दे, स्त्रियों को भूषण आदि प्रदान करे। हे देवि! जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सात जन्मों तक उसे राज्य की प्राप्ति होती है, सौभाग्य की वृद्धि होती है और जो नारी भादों के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन व्रत नहीं धारण करती आहार कर लेती है वह सात जन्मों तक बन्ध्या रहती है एवं जन्म-जन्म तक विधवा हो जाती है, दरिद्रता पाकर अनेक कष्ट उठाती है उसे पुत्रशोक छोड़ता ही नहीं। और जो उपवास नहीं करती वह घोर नरक में पड ती है, अन्न के आहार करने से उसे शूकरी का जन्म मिलता है। फल खाने से बानरी होती है। जल पीने से जोंक होती है। दुग्ध के आहार से सर्पिणी होती है। मांसाहार से व्याघ्री होती है। दही खाने से बिल्ली होती है। मिठाई खा लेने पर चीटीं होती है। सभी वस्तुएं खा लेने पर मक्खी हो जाती है। सो जाने पर अजगरी का जन्म पाती है। पति के साथ ठगी करने पर मुर्गी होती है। शिवजी बोले- इसी कारण सभी स्त्रियों को प्रयत्न पूर्वक सदा यह व्रत करते रहना चाहिए, चांदी सोने, तांबे एवं बांस से बने अथवा मिट्‌टी के पात्र में अन्न रखे, फिर फल, वस्त्र दक्षिणा आदि यह सब श्रद्धापूर्वक विद्वान श्रेष्ठ ब्राह्‌मण को दान करें। उनके अनन्तर पारण अर्थात भोजन करें। हे देवि! जो स्त्री इस प्रकार सदा व्रत किया करती है वह तुम्हारे समान ही अपने पति के साथ इस पृथ्वी पर अनेक भोगों को प्राप्त करके सानन्द विहार करती है और अन्त में शिव का सान्निध्य प्राप्त करती है। इसकी कथा श्रवण करने से हजार अश्वमेध एवं सौ वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। श्री शिव जी बोले - हे देवि! इस प्रकार मैंने आपको इस सर्वश्रेष्ठ व्रत का माहात्म्य सुनाया है, जिसके अनुष्ठान मात्र से करोडों यज्ञ का पुण्य फल प्राप्त होता है।

हरतालिका व्रत की सामग्री Hartalika Vrat Ki Samagri

केले के खम्भे, दूध, सुहाग पिटारी, गंगा जल, दही, तरकी, चूड़ी, अक्षत, घी, बिछिया, माला-फूल, शक्कर, कंघी, गंगा-मृत्तिका, शहर, शीशा, चन्दन, कलश, कलाई-नारा, केशर, दीपक, सुरमा, फल, पान, मिस्सी, धूप, कपूर, सुपारी, महाउर, बिन्दी, वस्त्र, सिंदूर, पकवान, यज्ञोपवीत, रोली और मिठाई।

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मंगलवार, 26 जुलाई 2022

कामिका एकादशी व्रत कथा || Kamika Ekadashi Vrat Katha // श्रावण कृष्ण एकादशी // Shravan Krishna Ekadashi Vrat Katha

कामिका एकादशी व्रत कथा || Kamika Ekadashi Vrat Katha // श्रावण कृष्ण एकादशी // Shravan Krishna Ekadashi Vrat Katha 



हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।

कामिका एकादशी व्रत कथा || Kamika Ekadashi Vrat Katha 

कुंतीपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन, आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी तथा चातुर्मास्य माहात्म्य मैंने भली प्रकार से सुना। अब कृपा करके श्रावण कृष्ण एकादशी का क्या नाम है, सो बताइए।

श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! इस एकादशी की कथा एक समय स्वयं ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कही थी, वही मैं तुमसे कहता हूँ। नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा था कि हे पितामह! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की मेरी इच्छा है, उसका क्या नाम है? क्या विधि है और उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा करके कहिए।

नारदजी के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! लोकों के हित के लिए तुमने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। इस दिन शंख, चक्र, गदाधारी विष्णु भगवान का पूजन होता है, जिनके नाम श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव, मधुसूदन हैं। उनकी पूजा करने से जो फल मिलता है सो सुनो।

जो फल गंगा, काशी, नैमिषारण्य और पुष्कर स्नान से मिलता है, वह विष्णु भगवान के पूजन से मिलता है। जो फल सूर्य व चंद्र ग्रहण पर कुरुक्षेत्र और काशी में स्नान करने से, समुद्र, वन सहित पृथ्वी दान करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोदावरी और गंडकी नदी में स्नान से भी प्राप्त नहीं होता वह भगवान विष्णु के पूजन से मिलता है।

जो मनुष्य श्रावण में भगवान का पूजन करते हैं, उनसे देवता, गंधर्व और सूर्य आदि सब पूजित हो जाते हैं। अत: पापों से डरने वाले मनुष्यों को कामिका एकादशी का व्रत और विष्णु भगवान का पूजन अवश्यमेव करना चाहिए। पापरूपी कीचड़ में फँसे हुए और संसाररूपी समुद्र में डूबे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत और भगवान विष्णु का पूजन अत्यंत आवश्यक है। इससे बढ़कर पापों के नाशों का कोई उपाय नहीं है।

हे नारद! स्वयं भगवान ने यही कहा है कि कामिका व्रत से जीव कुयोनि को प्राप्त नहीं होता। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करते हैं, वे इस संसार के समस्त पापों से दूर रहते हैं। विष्णु भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से।

तुलसी दल पूजन का फल चार भार चाँदी और एक भार स्वर्ण के दान के बराबर होता है। हे नारद! मैं स्वयं भगवान की अतिप्रिय तुलसी को सदैव नमस्कार करता हूँ। तुलसी के पौधे को सींचने से मनुष्य की सब यातनाएँ नष्ट हो जाती हैं। दर्शन मात्र से सब पाप नष्ट हो जाते हैं और स्पर्श से मनुष्य पवित्र हो जाता है।

कामिका एकादशी का उद्देश्य || Kamika Ekadashi ka Uddeshya

कामिका एकादशी की रात्रि को दीपदान तथा जागरण के फल का माहात्म्य चित्रगुप्त भी नहीं कह सकते। जो इस एकादशी की रात्रि को भगवान के मंदिर में दीपक जलाते हैं उनके पितर स्वर्गलोक में अमृतपान करते हैं तथा जो घी या तेल का दीपक जलाते हैं, वे सौ करोड़ दीपकों से प्रकाशित होकर सूर्य लोक को जाते हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं कि हे नारद! ब्रह्महत्या तथा भ्रूण हत्या आदि पापों को नष्ट करने वाली इस कामिका एकादशी का व्रत मनुष्य को यत्न के साथ करना चाहिए। कामिका एकादशी के व्रत का माहात्म्य श्रद्धा से सुनने और पढ़ने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को जाता है।

कामिका एकादशी की महिमा || Kamika Ekadashi Ki Mahima 

जो फल गंगा, काशी, नैमिषारण्य और पुष्कर स्नान से मिलता है, वह विष्णु भगवान के पूजन से मिलता है। जो फल सूर्य व चंद्र ग्रहण पर कुरुक्षेत्र और काशी में स्नान करने से, समुद्र, वन सहित पृथ्वी दान करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोदावरी और गंडकी नदी में स्नान से भी प्राप्त नहीं होता वह भगवान विष्णु के पूजन से मिलता है।

जो मनुष्य श्रावण में भगवान का पूजन करते हैं, उनसे देवता, गंधर्व और सूर्य आदि सब पूजित हो जाते हैं। अत: पापों से डरने वाले मनुष्यों को कामिका एकादशी का व्रत और विष्णु भगवान का पूजन अवश्यमेव करना चाहिए। पापरूपी कीचड़ में फँसे हुए और संसाररूपी समुद्र में डूबे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत और भगवान विष्णु का पूजन अत्यंत आवश्यक है। इससे बढ़कर पापों के नाशों का कोई उपाय नहीं है।

हे नारद! स्वयं भगवान ने यही कहा है कि कामिका व्रत से जीव कुयोनि को प्राप्त नहीं होता। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करते हैं, वे इस संसार के समस्त पापों से दूर रहते हैं। विष्णु भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से।

कथा

एक गांव में एक वीर श्रत्रिय रहता था। एक दिन किसी कारण वश उसकी ब्राहमण से हाथापाई हो गई और ब्राहमण की मृत्य हो गई। अपने हाथों मरे गये ब्राहमण की क्रिया उस श्रत्रिय ने करनी चाही। परन्तु पंडितों ने उसे क्रिया में शामिल होने से मना कर दिया। ब्राहमणों ने बताया कि तुम पर ब्रहम हत्या का दोष है। पहले प्रायश्चित कर इस पाप से मुक्त हो तब हम तुम्हारे घर भोजन करेंगे।

इस पर श्रत्रिय ने पूछा कि इस पाप से मुक्त होने के क्या उपाय है। तब ब्राहमणों ने बताया कि श्रावण माह के कृष्ण पश्र की एकादशी को भक्तिभाव से भगवान श्रीधर का व्रत एवं पूजन कर ब्राहमणों को भोजन कराके सदश्रिणा के साथ आशीर्वाद प्राप्त करने से इस पाप से मुक्ति मिलेगी। पंडितों के बताये हुए तरीके पर व्रत कराने वाली रात में भगवान श्रीधर ने श्रत्रिय को दर्शन देकर कहा कि तुम्हें ब्रहम हत्या के पाप से मुक्ति मिल गई है।

व्रत करने की विधि 

कामिका एकादशी में साफ-सफाई का विशेष महत्व है। व्रती व्यक्ति प्रात: स्नानादि करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करायें। पंचामृत से स्नान कराने से पूर्व प्रतिमा को शुद्ध गंगाजल से स्नान करना चाहिए। पंचामृत में दूध, दही, घी, शहद और शक्कर शामिल है। स्नान कराने के बाद भगवान को गंध, अच्छत इंद्र जौ का प्रयोग करे और पुष्प चढ़ायें।

धूप, दीप, चंदन आदि सुगंधित पदार्थो से आरती उतारनी चाहिए। नैवेधय का भोग लगाये। इसमें भगवान श्रीधर को मक्खन मिश्री और तुलसी दल अवश्य ही चढ़ाएं और अन्त में श्रमा याचन करते हुए भगवान को नमस्कार करें। विष्णु सहस्त्र नाम पाठ का जाप अवश्य करना चाहिए।

चावल व चावल से बनी किसी भी चीज के खाना पूर्णतया वर्जित होता है। व्रत के दूसरे दिन चावल से बनी हुई वस्तुओं का भोग भगवान को लगाकर ग्रहण करना चाहिए। इसमें नमक रहित फलाहार करें। फलाहार भी केवल दो समय ही करें। फलाहार में तुलसी दल का अवश्य ही प्रयोग करना चाहिए। व्रत में पीने वाले पानी में भी तुलसी दल का प्रयोग करना उचित होता है।

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रविवार, 3 जुलाई 2022

विजया पार्वती व्रत की पौराणिक कथा || Shri Vijaya Parvati Vrat Katha || Vrat Katha || Shiv Shankar Mata Parvati Vrat Katha Lyrics in Hindi

विजया पार्वती व्रत की पौराणिक कथा || Shri Vijaya Parvati Vrat Katha || Vrat Katha || Shiv Shankar Mata Parvati Vrat Katha

विजया पार्वती व्रत की पौराणिक कथा

भगवान शिव शंकर भोले नाथ एवं माता पार्वती की कृपा प्राप्‍त कराने वाला यह महान व्रत आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी के दिन किया जाता है। इस दिन प्रात:काल उठकर शान्‍तचित्‍त से नित्‍य‍क्रिया से निवृत्‍त होकर स्‍नानादि करके स्‍वच्‍छ वस्‍त्र धारण कर विधिवत भगवान शिव एवं माता पार्वती की पूजा करने का विधान है। 

व्रत कथा 

विजया पार्वती व्रत की पौराणिक कथा के अनुसार किसी समय कौडिण्‍य नगर में वामन नाम का एक योग्य ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सत्या था। उनके घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके यहां सन्‍तान नहीं होने से वे बहुत दुखी रहते थे।

एक दिन नारदजी उनके घर पधारे। उन्होंने नारद मुनि की खूब सेवा की और अपनी समस्या का समाधान पूछा। तब नारदजी ने उन्हें बताया कि तुम्हारे नगर के बाहर जो वन है, उसके दक्षिणी भाग में बिल्व (बेल) वृक्ष के नीचे भगवान शिव, माता पार्वती के साथ लिंगरूप में विराजित हैं। उनकी पूजा करने से तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूरी होगी।

तब ब्राह्मण दम्‍पति ने उस शिवलिंग को ढूंढकर उसकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की। इस प्रकार पूजा करने का क्रम चलता रहा और पॉंच वर्ष बीत गए।

एक दिन जब वह ब्राह्मण पूजन के लिए फूल तोड़ रहा था तभी उसे सांप ने काट लिया और वह वहीं जंगल में ही गिर गया। ब्राह्मण जब काफी देर तक घर नहीं लौटा तो उसकी पत्नी उसे ढूंढने आई। पति को इस हालत में देख वह रोने लगी और वन देवता व माता पार्वती को याद करने लगी और उनकी स्‍तुति करके उनसे अपने पति की प्राणरक्षा की प्रार्थना करने लगी। 

ब्राह्मणी की पुकार सुनकर माता पार्वती वन देवता के साथ प्रकट हुईं और ब्राह्मण के मुख में अमृत डाल दिया जिससे ब्राह्मण उठ बैठा। तब ब्राह्मण दम्‍पति ने माता पार्वती का विधिवत पूजन किया। माता पार्वती ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने के लिए कहा। तब दोनों ने सन्‍तान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की, तब माता पार्वती ने उन्हें विजया पार्वती व्रत करने की बात कही।

आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी के दिन उस ब्राह्मण दम्‍पति ने विधिपूर्वक माता पार्वती का यह व्रत किया जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। इस दिन व्रत करने वालों को पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है तथा उनका अखण्‍ड सौभाग्य भी बना रहता है।

सभी प्रेम से बोलिये माता पार्वती एवं भगवान भोले नाथ की जय   

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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

शरद पूर्णिमा व्रत की कथा || पूर्णमासी व्रत कथा || Sharad Purnima Vrat Ki Katha || Purnmaasi Vrat Katha || Lyrics in Hindi

शरद पूर्णिमा व्रत की कथा || पूर्णमासी व्रत कथा || Sharad Purnima Vrat Ki Katha || Purnmaasi Vrat Katha || Lyrics in Hindi



आश्विन मास की पूर्णिमा ही शरद पूर्णिमा कहलाती हैं। इसे 'रास पूर्णिमा' भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों में इस दिन 'कोजागर व्रत' माना गया है। इसी को 'कौमुदी व्रत' भी कहते हैं। ज्योतिष मान्यता के अनुसार संपूर्ण वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा षोडश यानि 16 कलाओं से परिपूर्ण होता है।

रासोत्सव का यह दिन वास्तव में भगवान श्री कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए निर्धारित किया है, माना जाता है कि इस रात को चंद्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा होती है। 

मान्यता है कि घर में सुख-समृद्धि के लिए इस दिन सुहागिन महिलाओं को भोजन कराने के अलावा सूर्यास्त से पहले कुछ भेंट भी देनी चाहिए। इस दिन सूर्यास्त के बाद बालों में कंघी करना या अग्नि पर तवा चढ़ाना शुभ नहीं माना जाता।

मान्यता के अनुसार इसी दिन श्रीकृष्ण को 'कार्तिक स्नान' करते समय स्वयं (कृष्ण) को पति के रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरलीवादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था।

इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा-पूजन किया जाता है। इस दिन प्रात:काल स्नान करके आराध्य देव को सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन, आसन, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए।

रात्रि के समय गौदुग्ध (गाय के दूध) से बनी खीर में घर और चीनी मिलाकर अर्द्धरात्रि के समय भगवान को अर्पित (भोग लगाना)करनी चाहिए। पूर्ण चंद्रमा के आकाश के मध्य स्थित होने पर उनका पूजन करें और खीर का नैवेद्य अर्पित करके, रात को खीर से भरा बर्तन खुली चांदनी में रखकर दूसरे दिन उसका भोजन करना चाहिए साथ ही सबको इसका प्रसाद देना चाहिए।

पूर्णिमा का व्रत करके कथा सुननी चाहिए। कथा सुनने से पहले एक लोटे में जल व गिलास में गेहूं, पत्ते के दोने में रोली और चावल रखकर कलश की वंदना करके दक्षिणा चढ़ाएं। फिर तिलक करने के बाद गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें। फिर गेहूं के गिलास पर हाथ फेरकर पंडिताइन के पांव स्पर्श करके गेहूं का गिलास उन्हें दे दें। लोटे के जल का रात को चंद्रमा को अर्घ्य दें।

शरद पूर्णिमा से ही उत्सव और व्रत प्रारंभ हो जाता है। माताएं अपनी संतान की मंगल कामना से देवी-देवताओं का पूजन करती हैं। इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के अत्यंत नजदीक आ जाता है। कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारंभ होता है। विवाह होने के बाद पूर्णिमा (पूर्णमासी) के व्रत का संकल्प शरद पूर्णिमा से लेना चाहिए।

शरद ऋतु में मौसम एकदम साफ हरता है। इस दिन आकाश में नतो बादल होते हैं और न ही धूल-गुबार। इस राति में भ्रमण और चंद्रकिरणों का शरीर परपड़ना अत्यंत शुभ माना जाता है।

प्रति पूर्णिमा को व्रत करने वाले दस दिन भी चंद्रमा का पूजन करके भोजन करते हैं। इस दिन शिव-पार्वती और कार्तिकेय की भी पूजा का विधान है वहीं पूर्णिमा पर कार्तिक स्नान के साथ, राधा-दामोदर पूजन निय व्रत धारण करने का भी दिन है।

शरद पूर्णिमा की कथा:

एक साहूकार की दो पुत्रिया थीं। वे दोनों पूर्णिमासी का व्रत करती थीं। बड़ी बहन तो पूरा व्रत करती थी, लेकिन छोटी बहन अधूरा। छोटी बहन की जो भी संतान होती, वह जन्म लेते ही मर जाती। परंतु बड़ी बहन की सारी संताने जीवित रहतीं। एक दिन छोटी बहन ने बड़े बड़े पंडितों को बुलाकर अपना दुख बताया और उनसे इसका कारण पूछा।

इस पर पंडितों ने बताया कि तुम पूर्णिमा का अधूराव्रत करती हो, इसलिए तुम्हारे संतानों की अकाल मृत्यु हो जाती है। पूर्णिका का विधिपूर्वक पूर्ण व्रत करने से तुम्हारी संतानें जीवित रहा करेंगी।

तब उसने पंडितों की आज्ञा मानकर विधि-विधान से पूर्णमासी का व्रत किया। कुछ समय बाद उसका एक लड़का हुआ, लेकिन वह भी शीघ्र ही मर गया। तब उसके लड़कों को पीढे पर लेटाकर उसके उपर कपड़ा ढक दिया।

फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और उसे वहीं पीढ़ा बैठने को दे दिया। जब बड़ी बहन उस पर बैठने लगी तो उसके वस्त्र बच्चे को छूते ही लड़का जीवित होकर रोने लगा। तब क्रोधित होकर बड़ी बहन बोली, तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। यदि में बैठ जाती तो लड़का मर जाता।

तब छोटी बहन बोली यह तो पहले से ही मरा हुआ था। तेरे भाग्य से जीवित हुआ है। हम दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती हैं। तू पूरा करती है और मैं अधूरा, जिसके दोष से मेरी संतानें मर जाती हैं। लेकिन तेरे पुण्य से यह बालक जीवित हुआ है।

इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज से सभी पूर्णिमा का पूरा व्रत करें, यह संतान सुख देने वाला है।

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