शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

आरती श्री महावीर जी की ||Shri Mahaveer Swami Ki Aarti || जय महावीर प्रभो || Jay Mahaveer Prabho

आरती श्री महावीर जी की ||Shri Mahaveer Swami Ki Aarti || जय महावीर प्रभो || Jay Mahaveer Prabho 

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जय महावीर प्रभो। 
स्वामी जय महावीर प्रभो।
जगनायक सुखदायक, 
अति गम्भीर प्रभो।।ओउम।।
*****
कुण्डलपुर में जन्में, 
त्रिशला के जाये।
पिता सिद्धार्थ राजा, 
सुर नर हर्षाए।।ओउम।।
*****
दीनानाथ दयानिधि, 
हैं मंगलकारी।
जगहित संयम धारा, 
प्रभु परउपकारी।।ओउम।।
*****
पापाचार मिटाया, 
सत्पथ दिखलाया।
दयाधर्म का झण्डा, 
जग में लहराया।।ओउम।।
*****
अर्जुनमाली गौतम, 
श्री चन्दनबाला।
पार जगत से बेड़ा, 
इनका कर डाला।।ओउम।।
*****
पावन नाम तुम्हारा, 
जगतारणहारा।
निसिदिन जो नर ध्यावे, 
कष्ट मिटे सारा।।ओउम।।
*****
करुणासागर! 
तेरी महिमा है न्यारी।
ज्ञानमुनि गुण गावे, 
चरणन बलिहारी।।ओउम।।
*****

आरती श्री महावीर जी की ||Shri Mahaveer Swami Ki Aarti || जय महावीर प्रभो || Jay Mahaveer Prabho

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Jaya mahāvīr prabho 
Svāmī jaya mahāvīr prabho
Jaganāyak sukhadāyaka, 
Ati gambhīr prabho।।ouma
*****
Kuṇḍalapur mean janmean, 
Trishalā ke jāye
Pitā siddhārtha rājā, 
Sur nar harṣhāe।।ouma
*****
Dīnānāth dayānidhi, 
Haian mangalakārī
Jagahit sanyam dhārā, 
Prabhu paraupakārī।।ouma
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Pāpāchār miṭāyā, 
Satpath dikhalāyā
Dayādharma kā jhaṇḍā, 
Jag mean laharāyā।।ouma
*****
Arjunamālī gautama, 
Shrī chandanabālā
Pār jagat se beḍaā, 
Inakā kar ḍālā।।ouma
*****
Pāvan nām tumhārā, 
Jagatāraṇahārā
Nisidin jo nar dhyāve, 
Kaṣhṭa miṭe sārā।।ouma
*****
Karuṇāsāgara! 
Terī mahimā hai nyārī
Jnyānamuni guṇ gāve, 
Charaṇan balihārī।।ouma

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

श्री महावीर तीर्थंकर चालीसा Shri Mahaveer Swami (Teerthankar) Chalisa



दोहा
शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
महावीर भगवान को, मन-मन्दिर में धार।

चौपाई
जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी।
वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा।
शांति छवि और मोहनी मूरत, शान हँसीली सोहनी सूरत।
तुमने वेश दिगम्बर धारा, कर्म-शत्रु भी तुम से हारा।

क्रोध मान अरु लोभ भगाया, महा-मोह तुमसे डर खाया।
तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता।
तुझमें नहीं राग और द्वेष, वीर रण राग तू हितोपदेश।
तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा बच्चा।

भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यन्तर राक्षस सब भग जावें।
महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावे।
काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी।
ना हो कोई बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला।

अग्नि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो।
नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे।
हिंसामय था भारत सारा, तब तुमने कीना निस्तारा।
जनम लिया कुण्डलपुर नगरी, हुई सुखी तब प्रजा सगरी।

सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला के आँखों के तारे।
छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल-ब्रह्मचारी।
पंचम काल महा-दुखदाई, चाँदनपुर महिमा दिखलाई।
टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया।

सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके।
सारा टीला खोद बगाया, तब तुमने दर्शन दिखलाया।
जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा जब तेरा।
ठंडा हुआ तोप का गोला, तब सब ने जयकारा बोला।

मंत्री ने मन्दिर बनवाया, राजा ने भी द्रव्य लगाया।
बड़ी धर्मशाला बनवाई, तुमको लाने को ठहराई।
तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया खसका नहीं अगाड़ी।
ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया।

पहिले दिन बैशाख बदी के, रथ जाता है तीर नदी के।
मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित उमगाते।
स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का बहु मान बढ़ाया।
हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही।

मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोई नहीं खिवैया।
मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभु तुम्हारा चाकर।
तुम से मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाऊँ।
चालीसे को चन्द्र बनावे, बीर प्रभु को शीश नवावे।

सोरठा
नित चालीसहि बार, बाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगन्ध अपार, वर्धमान के सामने।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।।

चित्र en.wikipedia.orgसे साभार

सोमवार, 19 सितंबर 2011

आरती श्री पितर जी की Shri Pitar (Pittar) Ji ki Aarti (Arti) || जय जय पितर महाराज || Jay Jay Pitar Maharaj

आरती श्री पितर जी की Shri Pitar (Pittar) Ji ki Aarti (Arti) || जय जय पितर महाराज || Jay Jay Pitar Maharaj

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी।
शरण पड़यो हूँ थारी बाबा, शरण पड़यो हूँ थारी।।

आप ही रक्षक आप ही दाता, आप ही खेवनहारे।
मैं मूरख हूँ कछु नहिं जाणूं, आप ही हो रखवारे।। जय।।

आप खड़े हैं हरदम हर घड़ी, करने मेरी रखवारी।
हम सब जन हैं शरण आपकी, है ये अरज गुजारी।। जय।।

देश और परदेश सब जगह, आप ही करो सहाई।
काम पड़े पर नाम आपको, लगे बहुत सुखदाई।। जय।।

भक्त सभी हैं शरण आपकी, अपने सहित परिवार।
रक्षा करो आप ही सबकी, रटूँ मैं बारम्बार।। जय।।


चित्र tips4india.in से साभार

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

श्री पितर चालीसा Shri Pitar Chalisa (Pittar Chalisa) || हे पितरेश्वर आपको || He Pitareshwar Aapko

श्री पितर चालीसा Shri Pitar Chalisa (Pittar Chalisa) || हे पितरेश्वर आपको || He Pitareshwar Aapko


दोहा

हे पितरेश्वर आपको दे दियो आशीर्वाद,
चरणाशीश नवा दियो रखदो सिर पर हाथ।
सबसे पहले गणपत पाछे घर का देव मनावा जी।
हे पितरेश्वर दया राखियो, करियो मन की चाया जी।।

चौपाई

पितरेश्वर करो मार्ग उजागर, चरण रज की मुक्ति सागर।
परम उपकार पित्तरेश्वर कीन्हा, मनुष्य योणि में जन्म दीन्हा।
मातृ-पितृ देव मन जो भावे, सोई अमित जीवन फल पावे।
जै-जै-जै पित्तर जी साईं, पितृ ऋण बिन मुक्ति नाहिं।

चारों ओर प्रताप तुम्हारा, संकट में तेरा ही सहारा।
नारायण आधार सृष्टि का, पित्तरजी अंश उसी दृष्टि का।
प्रथम पूजन प्रभु आज्ञा सुनाते, भाग्य द्वार आप ही खुलवाते।
झुंझनू में दरबार है साजे, सब देवों संग आप विराजे।

प्रसन्न होय मनवांछित फल दीन्हा, कुपित होय बुद्धि हर लीन्हा।
पित्तर महिमा सबसे न्यारी, जिसका गुणगावे नर नारी।
तीन मण्ड में आप बिराजे, बसु रुद्र आदित्य में साजे।
नाथ सकल संपदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी।

छप्पन भोग नहीं हैं भाते, शुद्ध जल से ही तृप्त हो जाते।
तुम्हारे भजन परम हितकारी, छोटे बड़े सभी अधिकारी।
भानु उदय संग आप पुजावै, पांच अँजुलि जल रिझावे।
ध्वज पताका मण्ड पे है साजे, अखण्ड ज्योति में आप विराजे।

सदियों पुरानी ज्योति तुम्हारी, धन्य हुई जन्म भूमि हमारी।
शहीद हमारे यहाँ पुजाते, मातृ भक्ति संदेश सुनाते।
जगत पित्तरो सिद्धान्त हमारा, धर्म जाति का नहीं है नारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब पूजे पित्तर भाई।

हिन्दू वंश वृक्ष है हमारा, जान से ज्यादा हमको प्यारा।
गंगा ये मरुप्रदेश की, पितृ तर्पण अनिवार्य परिवेश की।
बन्धु छोड़ ना इनके चरणाँ, इन्हीं की कृपा से मिले प्रभु शरणा।
चौदस को जागरण करवाते, अमावस को हम धोक लगाते।

जात जडूला सभी मनाते, नान्दीमुख श्राद्ध सभी करवाते।
धन्य जन्म भूमि का वो फूल है, जिसे पितृ मण्डल की मिली धूल है।
श्री पित्तर जी भक्त हितकारी, सुन लीजे प्रभु अरज हमारी।
निशिदिन ध्यान धरे जो कोई, ता सम भक्त और नहीं कोई।

तुम अनाथ के नाथ सहाई, दीनन के हो तुम सदा सहाई।
चारिक वेद प्रभु के साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी।
नाम तुम्हारो लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहीं कोई।
जो तुम्हारे नित पाँव पलोटत, नवों सिद्धि चरणा में लोटत।

सिद्धि तुम्हारी सब मंगलकारी, जो तुम पे जावे बलिहारी।
जो तुम्हारे चरणा चित्त लावे, ताकी मुक्ति अवसी हो जावे।
सत्य भजन तुम्हारो जो गावे, सो निश्चय चारों फल पावे।
तुमहिं देव कुलदेव हमारे, तुम्हीं गुरुदेव प्राण से प्यारे।

सत्य आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावें सोई।
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस्र मुख सके न गाई।
मैं अतिदीन मलीन दुखारी, करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।
अब पित्तर जी दया दीन पर कीजै, अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै।

दोहा

पित्तरों को स्थान दो, तीरथ और स्वयं ग्राम।
श्रद्धा सुमन चढ़ें वहां, पूरण हो सब काम।
झुंझनू धाम विराजे हैं, पित्तर हमारे महान।
दर्शन से जीवन सफल हो, पूजे सकल जहान।।
जीवन सफल जो चाहिए, चले झुंझनू धाम।
पित्तर चरण की धूल ले, हो जीवन सफल महान।।


चित्र godandguru.com से साभार

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

आरती श्री साईं जी की Shri Sai Baba Ki Aarti (Arti Sainath Ki), Sai Ram ki Arti




आरती श्री साईं गुरुवर की, परमानन्द सदा सुरवर की।
जा की कृपा विपुल सुखकारी, दुख शोक संकट भयहारी।

शिरडी में अवतार रचाया, चमत्कार से तत्व दिखाया।
कितने भक्त चरण पर आये, वे सुख शान्ति चिरंतन पाये।

भाव धरै जो मन में जैसा, पावत अनुभव वो ही वैसा।
गुरु की उदी लगवे तन को, समाधान लाभत उस मन को।

साईं नाम सदा जो गावे, सो फल जग में शाश्वत पावे।
गुरुवासर करि पूजा-सेवा, उस पर कृपा करत गुरुदेवा।

राम, कृष्ण, हनुमान रूप में, दे दर्शन, जानत जो मन में।
विविध धर्म के सेवक आते, दर्शन इच्छित फल पाते।

जै बोलो साईं बाबा की, जै बोलो अवधूत गुरु की।
साईंदास आरती को गावै, घर में बसि सुख, मंगल पावे।

चित्र saibabaofshirdi.net से साभार

सोमवार, 12 सितंबर 2011

श्री साई चालीसा Shri Sai Chalisa (Sai Baba Chalisa) || पहले साईं के चरणों में || Pahle Sai Ke Charano me

श्री साई चालीसा Shri Sai Chalisa (Sai Baba Chalisa) || पहले साईं के चरणों में || Pahle Sai Ke Charano me



पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं।
कैसे शिर्डी साईं आए सारा हाल सुनाऊँ मैं।
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना।
कहाँ जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली सा रहा बना।

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं।
कोई कहता साईं बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं।
कोई कहता है मंगल मूर्ति, श्री गजानन  हैं साईं।
कोई कहता गोकुल मोहन देवकी नन्दन हैं साईं।

शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साई की करते।
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान।

कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात।
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर।

कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।
और दिखायी ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर।
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वेसे ही शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान।

दिन दिगन्त में लगा गूँजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम।
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बन्धन।

कभी किसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान।
एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान।
स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल।
अन्तः करन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल।

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान।
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो।

कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे।
कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया।

दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर।
अनुनय विनय बहुत की उसने, चरणों में धरकर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष।

अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर।
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार।

तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
साँच को आँच नहीं है कोई, सदा, झूठ की होती हार।
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस।

मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी।
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था।

धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था।
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझ सा था।

बाबा के दर्शनों की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार।
पावन शिर्डी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की मुरति।

जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का हो अन्त गया।
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको सब बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आज्ञा से।

बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही सम्बल ले मैं, हँसता जाऊँगा जीवन में।
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता, जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ।

काशीराम बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था।
मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था।
सिलकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में।

स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ हो हाथ, तिमिर के मारे।
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट के काशी।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी।

घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई।
लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो।
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो।

बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में।
अनजाने ही उसके मुँह से, निकल पड़ा था साईं।
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई।

क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो।
उन्मादी से इधर उधर तब, बाबा लगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आईं उनको लगे पटकने।

और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला।
समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में।
क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ पर, पड़े हुए विस्मय में।

उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं।
उसकी ही पीड़ी से पीडि़त, उनका अन्तस्तल है।
इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई।

लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देखा भक्त को, साईं की आँखें भर आई।
शान्त, धीर, गंभीर सिन्धु सा, बाबा का अन्तस्तल।
आज न जाने क्यों रह-रह, हो जाता था चंचल।

आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी।
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी।

जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में।
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपदग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी।

भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई।
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला।

घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना।
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम के कड़ुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी।

सच को स्नेह दिया साईं ने, सबको अतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया।
ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुख क्यों न हो, पलभर में वह दूर टरे

साईं जैसा दाता, अरे कभी नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई।
तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो।

जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा।
तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा के पूरी ही करनी होगी।

जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूँढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को।
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का हो गुण गाया।

गिरें संकटों के पर्वत चाहे, या बिजली ही टूट पड़े।
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े।
इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जावोगे हैरान।
दंग रह गए सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान।

एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर निवासी, जनता को था भरमाया।
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहीं भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन।

औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती है दुख से मुक्ति।
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से, बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से।

लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियाँ हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी।
जो है संततिहीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाये।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुँह माँगा फल पाये।

औषध मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा।
दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो।

हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगों की नादानी।
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक।

हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ।
मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को

पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को।
तनिक मिल आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को।

पलभर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रख कर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर।
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में।

स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर।
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तस्तल।
उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल।

जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो जाता है।
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के दानव को क्षण भर में।

स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में।
ऐसे ही अवतारी साईं, मुत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर।

नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने।
पाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने।
सदा याद में मस्त रा मकी, बैठे रहते थे साईं।
पहर आठ ही राम नाम का , भजते रहते थे साईं।

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सदा यास के भूखे साईं की खातिर थे सभी समान।
स्नेह और श्रद्धा से अपनी , जन को कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे।

कभी कभी मन बहलाने को, बाब बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे।
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे।

ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपद विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे।
सुनकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शान्ति, उनके उर में भर देते थे।

जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी।
धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये।

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता।
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता।
गर पकड़ता मैं चरण श्री के नहीं छोड़ता उम्र भर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर।


चित्र babasaiofshirdi.org से साभार