श्री मंगलवार व्रत कथा Shri Mangalvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | Shri Hanuman Ji Vrat Katha
मंगलवार के व्रत की
महत्ता | Mangalwar Ke Vrat Ki Mahatta
हमारा देश भारतवर्ष धर्म-परायण एवं व्रतों का देश है,
हमारे यहां वार, मास, संक्रान्ति, तिथि आदि सभी के लिए अलग-अलग व्रत हैं। प्रत्येक व्रत का
अलग-अलग महत्त्व और फल है। व्रत न केवल अपने आराध्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करने
के लिए, सुख शान्ति की कामना,
धन, पति, पुत्र प्राप्ति हेतु बल्कि
महाकष्ट, असाध्य रोगों के समूद
दमन, अपने पूर्व पापकर्मों के
फलस्वरूप मिलने वाले दुःखों के निवारण हेतु प्रायश्चित्त रूप में भी किये जाते
हैं। वास्तव में संसार महासागर में मानव मात्र के जीवन रूपी नौका को पार लगाने
वाले, मोह-माया के बंधनों से
मुक्त हो भगवान के ध्यान में लग मोक्ष की प्राप्ति में सहायक अगर कोई है तो यह
व्रत है।
बीमारी एवं शारीरिक कष्टों को दूर कने लिए विभिन्न प्रकार
के व्रतों का उल्लेख हमारे शास्त्रों में किया गया है। मानव को मिलने वाले
सुखों-दुःखों का मूल कारण उसके पाप एवं पुण्य कर्मों का फल है। पाप कर्मों के
फलस्वरूप मिलने वाले कष्टों को दूर करने, एवं अपने पापों का प्रायश्चित्त व्रत द्वारा ही संभव है।
प्रायश्चित्त में दान-उपवास, जप-हवन-उपासना
प्रमुख हैं। यह सब कार्य व्रत में ही किये जाते हैं। प्रायश्चित्त करने से पाप और
रोग दोनों ही क्षीण हो जाते हैं और जीवन में आरोग्य एवं सौभाग्य की वृद्धि होती
है। मंगल, यदि जन्म-लग्न, वर्ष-लग्न, महादशा, प्रत्यन्तर दशा आदि गोचर में अनिष्टकारी हो तो उसकी
शांति के लिए मंगलवार का व्रत किया जाता है।
मंगल के प्रदायक देवता का वार है मंगलवार। मंगल के देवता जब
प्रसन्न हो जाते हैं तो अपार धन-सम्पत्ति, राज-सुख, निरोगता,
ऐश्वर्य, सौभाग्य, पुत्र-पुत्री प्रदान किया करते
हैं। युद्ध विवाद में शत्रुओं पर विजय, नौकरी में उच्च पद की प्राप्ति यह सभी मंगल की कृपा से ही
मिलता है। दुर्भाग्य वश अगर मंगल देवता रुष्ट हो जाएं, अगर मंगल देवता नीच स्थान में हो अर्थवा मंगल की दशा
बदल कर क्रूर हो जाए तो यह देव सुख, वैभव, भोग,
सन्तान तथा धन को नष्ट कर दिया
करता है। सुख-वैभव, सन्तान
की प्राप्ति तथा दुःख और कष्टों के निवारण हेतु मंगलवार का व्रत करना चाहिए,
स्वभाव की क्रूरता, रक्त विकार, सन्तान की चिन्ता, सन्तान को कष्ट, कर्जे को चुकाना, धन की प्राप्ति न होना आदि
निवारण हेतु मंगलवार का व्रत अति उत्तम एवं श्रेष्ठ साधन है। श्री हनुमान जी की
उपासना से वाचिक, मानसिक
और संसर्ग जनित पाप, उप-पाप
तथा महापाप से दूर होकर सुख, धन
तथा यश लाभ होता है।
सभी प्रकार के सुख-ऐश्वर्य, रक्त विकार, राज दरबार में सम्मान, उच्च पद प्राप्ति एवं पुत्र प्राप्ति के लिए मंगलवार
का व्रत किया जाता है।
मंगलवार के व्रत की विधि | Mangalwar Ke Vrat Ki Vidhi
मंगलवार के व्रत को प्रत्येक स्त्री-पुरुष कर सकता है।
मंगलवार के दिन प्रातःकाल उठ कर अपामार्ग या ओंगा की दातुन करके तिल और आंवले के
चूर्ण को लगा कर नदी, तालाब
अथवा घर में स्नान करें। स्वच्छ लाल रंग के वस्त्र धारण कर लाल चावलों का अष्ट दल
कमल बनावें उस पर स्वर्ण की मूर्ति बनवाकर प्रतिष्ठादि करें। लाल अक्षत, लाल पुष्प, लाल चन्दन एवं लाल धान्य गेहूं
सूजी आदि के बने हुए पदार्थों का भोग लगावें, घर को गोबर से लीप कर स्थान पवित्र करें फिर पत्नी
सहित मंगल देवता का पूजन करें। मंगल देवता का ध्यान करें एवं उसके इक्कीस नामों का
जाप करें जो निम्न हैं-
मंगल देवता के इक्कीस नाम | Mangal Devta Ke Ikkees Nam
१. मंगल २. भूमिपात्र ३.
ऋणहर्ता ४. धनप्रदा ५. स्थिरासन ६. महाकाय ७. सर्वकामार्थसाधक ८. लोहित ९.
लोहिताज्ञ १०. सामगानंकृपाकर ११. धरात्मज १२. कुज १३. भौम १४. भूमिजा १५.
भूमिनन्दन १६. अंगारक १७. यम १८. सर्वरोगहारक १९. वृष्टिकर्ता २०. पापहर्ता २१. सब
काम फल दाता
नाम जप के साथ सुख सौभाग्य के लिए प्रार्थना करें। पूजन की
जगह पर घी की चार बत्तियों का चौमुखा दीपक जलावें। इक्कीस दिन मंगलवार का व्रत
करें और इक्कीस लड्डुओं का भोग लगाकर वेद के ज्ञाता सुपात्र ब्राह्मण को दें।
दिन में केवल एक बार ही भोजन करें।
इक्कीस व्रतों के अथवा इच्छा पूर्ति होने परे मंगलवार के
व्रत का उद्यापन करें। उद्यापन के अन्त में इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराकर
यथाशक्ति स्वर्णदान करें। आचार्य को सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर लाल बैल का दान
करें फिर स्वयं भोजन करें।
मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो उस दिन प्रातः
स्नानादि से निवृत्त होकर मंगलयंत्र का निर्माण करें या मंगल देव की मूर्ति बनावें,
मंगल की मूर्ति का लाल पुष्पों
से पूजन करें, लाल
वस्त्र पहनावें और गुड़, घी,
गेहूं के बने पदार्थों का भोग
लगावें। रात्रि के समय एक बार भोजन करें। पृथ्वी पर शयन करें, इस प्रकार मंगलवार का व्रत
करें और सातवें मंगलवार को मंगल की स्वर्ण की मूर्ति का निर्माण कर उसका पूजन
अर्चन करें, दो लाल वस्त्रों से
आच्छादित करें, लाल
चन्दन, षटगंध, धूप, पुष्प, सदचावल, दीप
आदि से पूजा करें, सफेद
कसार का भोग लगावें। तिल, चीनी,
घी का सांकल्य बना कर 'ओम कुजाय नमः स्वाहा' से हवन करें। हवन और पूजा के
बाद ब्राह्मण को भोजन करावें और मंगल की मूर्ति ब्राह्मण को दक्षिणा में दें तो
मंगल ग्रह जनित सभी अनिष्टों की समाप्ति हो व्रत के प्रभाव से सुख-शान्ति यश और
ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।
मंगलवार की पूजा करने, व्रत करने, मंगलवार की कथा सुनने, आरती करने और प्रसाद भक्तों में बाटने से सब प्रकार
की विपत्ति नष्ट हो कर सुख मिलता है, और जीवन पर्यन्त पुत्र-पौत्र और धन आदि से युक्त हो कर अन्त
में विष्णु लोक को जाता है और सभी प्रकार के ऋण से उऋण हो कर धनलक्ष्मी की
प्राप्ति होती है। स्त्री तथा कन्याओं को यह व्रत विशेष रूप से लाभप्रद है। उनके
लिए पति का अखण्ड सुख संपत्ति तथा आयु की प्राप्ति होती है और वह सदा सुहागिन रहती
हैं अर्थात् कभी भी विधवा नहीं होती हैं। स्त्रियों को मंगलवार के दिन पार्वती
मंगल, गौरी पूजन करके मंगलवार
व्रत विधि कथा अथवा मंगला गौरी व्रत कथा सुननी चाहिए। यह कथा सर्वकल्याण को देने
वाली होती है।
मंगलवार व्रत कथा | Mangalvar Vrat Katha
व्यास जी ने कहा- एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में अस्सी हजार
मुनि एकत्र हो कर पुराणों के ज्ञाता श्री सूत जी से पूछने लगे- हे महामुने! आपने
हमें अनेक पुराणों की कथाएं सुनाई हैं, अब कृपा करके हमें ऐसा व्रत और कथा बतायें जिसके करने से
सन्तान की प्राप्ति हो तथा मनुष्यों को रोग, शोक, अग्नि,
सर्व दुःख आदि का भय दूर हो
क्योंकि कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है। फिर इस पर उन्हें रोग-चिन्ता के
कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वह श्री हरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे।
श्री सूत जी बोले- हे मुनियों! आपने लोक कल्याण के लिए बहुत
ही उत्तम बात पूछी है। एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से लोक कल्याण के लिए
यही प्रश्न किया था। भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद तुम्हारे सामने कहता
हूं, ध्यान देकर सुनो।
एक समय पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण जी बैठे हुए थे। तब
युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- हे प्रभो, नन्दनन्द, गोविन्द! आपने मेरे लिए अनेकों कथायें सुनाई हैं, आज आप कृपा करके ऐसा व्रत या
कथा सुनायें जिसके करने से मनुष्य को रोग-चिन्ता का भय समाप्त हो और उसको पुत्र की
प्राप्ति हो, हे प्रभो, बिना पुत्र के जीवन व्यर्थ है,
पुत्र के बिना मनुष्य नरकगामी
होता है, पुत्र के बिना मनुष्य
पितृ-ऋण से छुटकारा नहीं पा सकता और न ही उसका पुन्नग नामक नरक से उद्धार हो सकता
है। अतः पुत्र दायक व्रत बतलाएं।
श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन् ! मैं एक प्राचीन इतिहास
सुनाता हूं, आप उसे ध्यानपूर्वक
सुनो।
कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक ब्राह्मण रहता था। भगवान की
कृपा से उसके पास सब कुछ था, फिर
भी वह दुःखी था। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण की स्त्री सुनन्दा के कोई सन्तान न
थी। सुनन्दा पतिव्रता थी। भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। मंगलवार
के दिन व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी का भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन
करती थी। एक बार मंगलवार के दिन ब्राह्मणी गृह कार्य की अधिकता के कारण हनुमान जी
को भोग न लगा सकी, तो
इस पर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब
तो अगले मंगलवार को ही हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करूंगी।
ब्राह्मणी सुनन्दा प्रतिदिन भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक पति को खिलाती,
परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती
और मन ही मन श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए,
और ब्राह्मणी सुनन्दा अपने
निश्चय के अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, अगले मंगलवार को ब्राह्मणी सुनन्दा प्रातः काल ही
बेहोश होकर गिर पड़ी।
ब्राह्मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति के प्रभाव से श्री
हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले- सुनन्दा ! मैं तेरी भक्ति से बहुत
प्रसन्न हूं, तू उठ और वर मांग।
सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर आनन्द की
अधिकता से विह्वल हो श्री हनुमान जी के चरणों में गिरकर बोली- 'हे प्रभु, मेरी कोई सन्तान नहीं है,
कृपा करके मुझे सन्तान
प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी
अति कृपा होगी।'
श्री महावीर जी बोले -'तेरी इच्छा पूर्ण होगी। तेरे एक कन्या पैदा होगी उसके
अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।' इस प्रकार कह कर श्री महावीर जी अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्मणी
सुनन्दा बहुत हर्षित हुई और सभी समाचार अपने पति से कहा, ब्राह्मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए,
परन्तु सोना मिलने की बात सुनी
तो बहुत प्रसन्न हुए। विचार किया कि ऐसी कन्या के साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो
जाएगी।
श्री हनुमान जी की कृपा से वह ब्राह्मणी गर्भवती हुई और
दसवें महीने में उसे बहुत ही सुन्दर पुत्री प्राप्त हुई। यह बच्ची, अपने पिता के घर में ठीक उसी
तरह से बढ़ने लगी, जिस
प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ ता है। दसवें दिन ब्राह्मण ने उस बालिका का
नामकरण संस्कार कराया, उसके
कुल पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में
बड़े ही विधान से मंगलदेव का व्रत किया था।
रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, उस सोने से नन्दा ब्राह्मण
बहुत ही धनवान हो गय। अब ब्राह्मणी भी बहुत अभिमान करने लगी थी। समय बीतता रहा,
अब रत्नावली दस वर्ष की हो
चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्मण प्रसन्न चित्त था, तब सुनन्दा ने अपने पति से कहा- 'मेरी पुत्री रत्नावली विवाह के
योग्य हो गयी है, अतः
आप कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर दें।' यह सुन ब्राह्मण बोला- 'अभी तो रत्नावली बहुत छोटी है' । तब ब्राह्मणी बोली- 'शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी,
नौ वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके
पश्चात रजस्वला हो जाती है। गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है,
राहिणी के दान से बैकुण्ठ लोक
की प्राप्ति होती है, कन्या
के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का
दान किया जाता है तो घोर नर्क की प्राप्ति होती है।'
इस पर ब्राह्मण बोला -'अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और मैंने तो
सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी जल्दी क्या है।' तब ब्राह्मणी सुनन्दा बोली- '
आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता
है। शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते
हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।'
तब ब्राह्मण बोला-'अच्छी बात है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेजूंगा।'
दूसरे दिन ब्राह्मण ने अपने
दूत को बुलाया और आज्ञा दी कि जैसी सुन्दर मेरी कन्या है वैसा ही सुन्दर वर उसके
लिए तलाश करो। दूत अपने स्वामी की आज्ञा पाकर निकल पड़ा। पम्पई नगर में उसने एक
सुन्दर लड के को देखा। यह बालक एक ब्राह्मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र था,
इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने
इस सुन्दर व गुणवान ब्राह्मण पुत्र के बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया।
ब्राह्मण नन्दा को भी सोमेश्वर अच्छा लगा और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक
कन्या दान करके ब्राह्मण-ब्राह्मणी संतुष्ट हुए।
परन्तु! ब्राह्मण के मन तो लोभ समाया हुआ था। उसने
कन्यादान तो कर दिया था पर वह बहुत खिन्न भी था। उसने विचार किया कि रत्नावली तो
अब चली जावेगी, और
मुझे इससे जो सोना मिलता था, वह
अब मिलेगा नहीं। मेरे पास जो धन था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष
बचा है वह भी कुछ दिनों पश्चात समाप्त हो जाएगा। मैंने तो इसका विवाह करके बहुत
बड़ी भूल कर दी है। अब कोई ऐसा उपाय हो कि रत्नावली मेरे घर में ही बनी रहे,
अपनी ससुराल ना जावे। लोभ रूपी
राक्षस ब्राह्मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर अपनी शैय्या पर बेचैनी
से करवटें बदलते-बदलते उसने एक बहुत ही क्रूर निर्णय लिया। उसने विचार किया कि जब
रत्नावली को लेकर उसका पति सोमेश्वर अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर
सोमेश्वर का वध कर देगा और अपनी लड की को अपने घर ले आवेगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता रहेगा और समाज
का कोई मनुष्य उसे दोष भी नहीं दे सकेगा।
प्रातःकाल हुआ तो, नन्दा और सुनन्दा ने अपने जमाई तथा लड की को बहुत सारा धन
देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से अपने घर की तरफ
चल दिया।
ब्राह्मण नन्दा महालोभ के वशीभूत हो अपनी मति खो चुका था।
पाप-पुण्य को उसे विचार न रहा था। अपने भयानक व क्रूर निर्णय को कार्यरूप देने के
लिए उसने अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया था ताकि
रत्नावली से प्राप्त होने वाला सोना उसे हमेशा मिलता रहे और वो कभी निर्धन न हों
ब्राह्मण के दूत ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए उसके जमाई सोमेश्वर का
मार्ग में ही वध कर दिया। समाचार प्राप्त कर ब्राह्मण नन्दा मार्ग में पहुंचा और
रुदन करती अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-'हे पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया
है। भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष जीवन
व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।'
अपने पति की अकाल मृत्यु से रत्नावली बहुत दुःखी हुई। करुण
क्रन्दन व रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- 'हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का पति नहीं है
उसका जीना व्यर्थ है, मैं
अपने पति के साथ ही अपने शरीर को जला दूंगी और सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा
सास-ससुर के यश को सार्थक करूंगी।'
ब्राह्मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के वचनों को सुनकर
बहुत दुःखी हुआ। विचार करने लगा- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया।
रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो दोनों तरफ से मरण
हो गया। धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई
वध के पाप के फलस्वरूप यम यातना भी भुगतनी पड़ेगी। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।
सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने की इच्छा से
अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को
अग्नि लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-'हे रत्नावली! मैं तेरी पति
भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू
वर मांग।' रत्नावली ने अपने पति का
जीवनदान मांगा। तब मंगल देव बोले-'रत्नावली!
तेरा पति अजर-अमर है। यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो
वर मांग।'
तब रत्नावली बोली- 'हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह
वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका
स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो, स्वजनों
का कभी वियोग न हो, सर्प,
अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे,
जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे,
वह कभी विधवा न हो।''
मंगलदेव -'तथास्तु'
कह कर अन्तर्ध्यान हो गये।
सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने
पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को
करके व्रतराज और मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त में
अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।
॥इति श्री मंगलवार व्रत
कथा॥