बुधवार, 6 अप्रैल 2011

श्री रविदास चालीसा Shri Ravi Das Chalisa || Shree Ravidas Chalisa In Hindi || Shree Ravidas Chalisa Lyrics In Hindi

श्री रविदास चालीसा Shri Ravi Das Chalisa || Shree Ravidas Chalisa In Hindi || Shree Ravidas Chalisa Lyrics In Hindi || Sant Ravidas Chalisa

दोहा

बन्दौ वीणा पाणि को, देहु आय मोहिं ज्ञान।
पाय बुद्धि रविदास को, करौं चरित्र बखान।
मातु की महिमा अमित है, लिखि न सकत है दास।
ताते आयों शरण में, पुरवहुं जन की आस।

चौपाई

जै होवै रविदास तुम्हारी, कृपा करहु हरिजन हितकारी।
राहू भक्त तुम्हारे ताता, कर्मा नाम तुम्हारी माता।

काशी ढिंग माडुर स्थाना, वर्ण अछुत करत गुजराना।
द्वादश वर्ष उम्र जब आई, तुम्हरे मन हरि भक्ति समाई।

रामानन्द के शिष्य कहाये, पाय ज्ञान निज नाम बढ़ाये।
शास्त्र तर्क काशी में कीन्हों, ज्ञानिन को उपदेश है दीन्हों।

गंग मातु के भक्त अपारा, कौड़ी दीन्ह उनहिं उपहारा।
पंडित जन ताको लै जाई, गंग मातु को दीन्ह चढ़ाई।

हाथ पसारि लीन्ह चैगानी, भक्त की महिमा अमित बखानी।
चकित भये पंडित काशी के, देखि चरित भव भयनाशी के।

रत्न जटित कंगन तब दीन्हां, रविदास अधिकारी कीन्हां।
पंडित दीजौ भक्त को मेरे, आदि जन्म के जो हैं चेरे।

पहुंचे पंडित ढिग रविदासा, दै कंगन पुरइ अभिलाषा।
तब रविदास कही यह बाता, दूसर कंगन लावहु ताता।

पंडित ज तब कसम उठाई, दूसर दीन्ह न गंगा माई।
तब रविदास ने वचन उचारे, पंडित जन सब भये सुखारे।

जो सर्वदा रहै मन चंगा, तौ घर बसति मातु है गंगा।
हाथ कठौती में तब डारा, दूसर कंगन एक निकारा।

चित संकोचित पंडित कीन्हें, अपने अपने मारग लीन्हें।
तब से प्रचलित एक प्रसंगा, मन चंगा तो कठौती में गंगा।

एक बार फिरि परयो झमेला, मिलि पंडितजन कीन्हो खेला।
सालिगराम गंग उतरावै, सोई प्रबल भक्त कहलावै।

सब जन गये गंग के तीरा, मूरति तैरावन बिच नीरा।
डूब गई सबकी मझधारा, सबके मन भयो दुख अपारा।

पत्थर की मूर्ति रही उतराई, सुर नर मिलि जयकार मचाई।
रहयो नाम रविदास तुम्हारा, मच्यो नगर महं हाहाकारा।

चीरि देह तुम दुग्ध बहायो, जन्म जनेउ आप दिखाओ।
देखि चकित भये सब नर नारी, विद्वानन सुधि बिसरी सारी।

ज्ञान तर्क कबिरा संग कीन्हों, चकित उनहुं का तुक करि दीन्हों।
गुरु गोरखहिं दीन्ह उपदेशा, उन मान्यो तकि संत विशेषा।

सदना पीर तर्क बहु कीन्हां, तुम ताको उपदेश है दीन्हां।
मन मह हारयो सदन कसाई, जो दिल्ली में खबरि सुनाई।

मुस्लिम धर्म की सुनि कुबड़ाई, लोधि सिकन्दर गयो गुस्साई।
अपने गृह तब तुमहिं बुलावा, मुस्लिम होन हेतु समुझावा।

मानी नहिं तुम उसकी बानी, बंदीगृह काटी है रानी।
कृष्ण दरश पाये रविदासा, सफल भई तुम्हरी सब आशा।

ताले टूटि खुल्यो है कारा, नाम सिकन्दर के तुम मारा।
काशी पुर तुम कहं पहुंचाई, दै प्रभुता अरुमान बड़ाई।

मीरा योगावति गुरु कीन्हों, जिनको क्षत्रिय वंश प्रवीनो।
तिनको दै उपदेश अपारा, कीन्हों भव से तुम निस्तारा।

दोहा

ऐसे ही रविदास ने, कीन्हें चरित अपार।
कोई कवि गावै कितै, तहूं न पावै पार।
नियम सहित हरिजन अगर, ध्यान धरै चालीसा।
ताकी रक्षा करेंगे, जगतपति जगदीशा।


चित्र indianpublicholidays.com से साभार

सोमवार, 28 मार्च 2011

श्री नवग्रह चालीसा || Shri Navagraha Chalisa || श्री गणपति गुरुपद कमल || Shri Ganapati Gurupad Kamal || Navagrah Chalisa in Hindi || Nava Grah Chalisa Lyrics

श्री नवग्रह चालीसा || Shri Navagraha Chalisa || श्री गणपति गुरुपद कमल || Shri Ganapati Gurupad Kamal || Navagrah Chalisa in Hindi || Nava Grah Chalisa Lyrics



श्री नवग्रह चालीसा || Shri Navagrah Chalisa

श्री गणपति गुरुपद कमल, 
प्रेम सहित सिरनाय।
नवग्रह चालीसा कहत, 
शारद होत सहाय।।
जय जय रवि शशि सोम बुध 
जय गुरु भृगु शनि राज।
जयति राहु अरु केतु ग्रह 
करहुं अनुग्रह आज।।

चौपाई

श्री सूर्य स्तुति || Shri Surya Stuti

प्रथमहि रवि कहं नावौं माथा, 
करहुं कृपा जनि जानि अनाथा।
हे आदित्य दिवाकर भानू, 
मैं मति मन्द महा अज्ञानू।
अब निज जन कहं हरहु कलेषा, 
दिनकर द्वादश रूप दिनेशा।
नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर, 
अर्क मित्र अघ मोघ क्षमाकर।

श्री चन्द्र स्तुति || Shri Chandra Stuti

शशि मयंक रजनीपति स्वामी, 
चन्द्र कलानिधि नमो नमामि।
राकापति हिमांशु राकेशा, 
प्रणवत जन तन हरहुं कलेशा।
सोम इन्दु विधु शान्ति सुधाकर, 
शीत रश्मि औषधि निशाकर।
तुम्हीं शोभित सुन्दर भाल महेशा, 
शरण शरण जन हरहुं कलेशा।

श्री मंगल स्तुति || Shri Mangal Stuti

जय जय जय मंगल सुखदाता, 
लोहित भौमादिक विख्याता।
अंगारक कुज रुज ऋणहारी, 
करहुं दया यही विनय हमारी।
हे महिसुत छितिसुत सुखराशी, 
लोहितांग जय जन अघनाशी।
अगम अमंगल अब हर लीजै, 
सकल मनोरथ पूरण कीजै।

श्री बुध स्तुति || Shri Budh Stuti

जय शशि नन्दन बुध महाराजा, 
करहु सकल जन कहं शुभ काजा।
दीजै बुद्धि बल सुमति सुजाना, 
कठिन कष्ट हरि करि कल्याणा।
हे तारासुत रोहिणी नन्दन, 
चन्द्रसुवन दुख द्वन्द्व निकन्दन।
पूजहिं आस दास कहुं स्वामी, 
प्रणत पाल प्रभु नमो नमामी।

श्री बृहस्पति स्तुति || Shri Brihaspati Stuti

जयति जयति जय श्री गुरुदेवा, 
करूं सदा तुम्हरी प्रभु सेवा।
देवाचार्य तुम देव गुरु ज्ञानी, 
इन्द्र पुरोहित विद्यादानी।
वाचस्पति बागीश उदारा, 
जीव बृहस्पति नाम तुम्हारा।
विद्या सिन्धु अंगिरा नामा, 
करहुं सकल विधि पूरण कामा।

श्री शुक्र स्तुति || Shri Shukra Stuti

शुक्र देव पद तल जल जाता, 
दास निरन्तन ध्यान लगाता।
हे उशना भार्गव भृगु नन्दन, 
दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन।
भृगुकुल भूषण दूषण हारी, 
हरहुं नेष्ट ग्रह करहुं सुखारी।
तुहि द्विजबर जोशी सिरताजा, 
नर शरीर के तुमही राजा।

श्री शनि स्तुति || Shri Shani Stuti

जय श्री शनिदेव रवि नन्दन, 
जय कृष्णो सौरी जगवन्दन।
पिंगल मन्द रौद्र यम नामा, 
वप्र आदि कोणस्थ ललामा।
वक्र दृष्टि पिप्पल तन साजा, 
क्षण महं करत रंक क्षण राजा।
ललत स्वर्ण पद करत निहाला, 
हरहुं विपत्ति छाया के लाला।

श्री राहु स्तुति || Shri Rahu Stuti

जय जय राहु गगन प्रविसइया, 
तुमही चन्द्र आदित्य ग्रसइया।
रवि शशि अरि स्वर्भानु धारा, 
शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा।
सैहिंकेय तुम निशाचर राजा, 
अर्धकाय जग राखहु लाजा।
यदि ग्रह समय पाय हिं आवहु, 
सदा शान्ति और सुख उपजावहु।

श्री केतु स्तुति || Shri Ketu Stuti

जय श्री केतु कठिन दुखहारी, 
करहु सुजन हित मंगलकारी।
ध्वजयुत रुण्ड रूप विकराला, 
घोर रौद्रतन अघमन काला।
शिखी तारिका ग्रह बलवान, 
महा प्रताप न तेज ठिकाना।
वाहन मीन महा शुभकारी, 
दीजै शान्ति दया उर धारी।

नवग्रह शांति फल || Navagrah Shanti Fal

तीरथराज प्रयाग सुपासा, 
बसै राम के सुन्दर दासा।
ककरा ग्रामहिं पुरे-तिवारी, 
दुर्वासाश्रम जन दुख हारी।
नवग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु, 
जन तन कष्ट उतारण सेतू।
जो नित पाठ करै चित लावै, 
सब सुख भोगि परम पद पावै।

दोहा

धन्य नवग्रह देव प्रभु, 
महिमा अगम अपार।
चित नव मंगल मोद गृह 
जगत जनन सुखद्वार।।
यह चालीसा नवोग्रह, 
विरचित सुन्दरदास।
पढ़त प्रेम सुत बढ़त सुख, 
सर्वानन्द हुलास।।
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शनिवार, 26 मार्च 2011

श्री भैरव चालीसा Shri Bhairav Chalisa

श्री भैरव चालीसा Shri Bhairav Chalisa



दोहा


श्री भैरव संकट हरन, मंगल करन कृपाल।
करहु दया जि दास पे, निशिदिन दीनदयाल।।

चौपाई

जय डमरूधर नयन विशाला, श्यामवर्ण, वपु महाकराला।
जय त्रिशूलधर जय डमरूधर, काशी कोतवाल, संकट हर।

जय गिरिजासुत परम कृपाला, संकट हरण हरहुं भ्रमजाला।
जयति बटुक भैरव भयहारी, जयति काल भैरव बलधारी।

अष्ट रूप तुम्हरे सब गाये, सकल एक ते एक सिवाये।
शिवस्वरूप शिव के अनुगामी, गणाधीश तुम सब के स्वामी।

जटाजूट पर मुकुट सुहावै, भालचन्द्र अति शोभा पावै।
कटि करधनी घुंघरू बाजै, दर्शन करत सकल भय भाजै।

कर त्रिशूल डमरू अति सुन्दर, मोरपंख को चंवर मनोहर।
खप्पर खड्ग लिये बलवाना, रूप चतुर्भुज नाथ बखाना।

वाहन श्वान सदा सुखरासी, तुम अनन्त प्रभु तुम अविनाशी।
जय जय जय भैरव भय भंजन, जय कृपालु भक्तन मनरंजन।

नयन विशाल लाल अति भारी, रक्तवर्ण तुम अहहु पुरारी।
बं बं बं बोलत दिनराती, शिव कहं भजहुं असुर आराती।

एक रूप तुम शम्भु कहाये, दूजे भैरव रूप बनाये।
सेवक तुमहिं तुमहिं प्रभु स्वामी, सब जग के तुम अन्तर्यामी।

रक्तवर्ण वपु अहहि तुम्हारा, श्यामवर्ण कहुं होई प्रचारा।
श्वेतवर्ण पुनि कहा बखानी, तीनि वर्ण तुम्हरे गुणखानी।

तीन नयन प्रभु परम सुहावहिं, सुर नर मुनि सब ध्यान लगावहिं।
व्याघ्र चर्मधर तुम जग स्वामी, प्रेतनाथ तुम पूर्ण अकामी।

चक्रनाथ नकुलेश प्रचण्डा, निमिष दिगम्बर कीरति चण्डा।
क्रोधवत्स भूतेश कालधर, चक्रतुण्ड दशबाहु व्यालधर।

अहहिं कोटि प्रभु नाम तुम्हारे, जयत सदा मेटत दुख भारे।
चैसठ योगिनी नाचहिं संगा, कोधवान तुम अति रणरंगा।

भूतनाथ तुम परम पुनीता, तुम भविष्य तुम अहहू अतीता।
वर्तमान तुम्हारो शुचि रूपा, कालजयी तुम परम अनूपा।

ऐलादी को संकट टार्यो, सदा भक्त को कारज सारयो।
कालीपुत्र कहावहु नाथा, तव चरणन नावहुं नित माथा।

श्री क्रोधेश कृपा विस्तारहु, दीन जानि मोहि पार उतारहु।
भवसागर बूढत दिन-राती, होहु कृपालु दुष्ट आराती।

सेवक जानि कृपा प्रभु कीजै, मोहिं भगति अपनी अब दीजै।
करहुं सदा भैरव की सेवा, तुम समान दूजो को देवा।

अश्वनाथ तुम परम मनोहर, दुष्टन कहं प्रभु अहहु भयंकर।
तम्हरो दास जहां जो होई, ताकहं संकट परै न कोई।

हरहु नाथ तुम जन की पीरा, तुम समान प्रभु को बलवीरा।
सब अपराध क्षमा करि दीजै, दीन जानि आपुन मोहिं कीजै।

जो यह पाठ करे चालीसा, तापै कृपा करहुं जगदीशा।

दोहा

जय भैरव जय भूतपति जय जय जय सुखकंद।
करहु कृपा नित दास पे देहुं सदा आनन्द।।


चित्र
shivashakti.com से साभार

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा || Shri Durga Navratri Vrat Katha ||

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा || Shri Durga Navratri Vrat Katha ||



इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गा जी का ध्यान करके यह कथा पढ़नी चाहिए। कन्याओं के लिए यह व्रत विशेष फलदायक है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विघ्न दूर होते हैं। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा ही जय हो’ का उच्चारण करें।

कथा प्रारम्भ

बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण। आप अत्यन्त बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में श्रेष्ठ हो। हे प्रभु! कृपा कर मेरा वचन सुनो। चैत्र, आश्विन और आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? हे भगवान! इस व्रत का फल क्या है? किस प्रकार करना उचित है? और पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहो?

बृहस्पति जी का ऐसा प्रश्न सुनकर ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे बृहस्पते! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं, यह नवरात्र व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र चाहने वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या और सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है और कारागार हुआ मनुष्य बन्धन से छूट जाता है। मनुष्य की तमाम आपत्तियां दूर हो जाती हैं और उसके घर में सम्पूर्ण सम्पत्तियां आकर उपस्थित हो जाती हैं। बन्ध्या और काक बन्ध्या को इस व्रत के करने से पुत्र उत्पन्न होता है। समस्त पापों को दूूर करने वाले इस व्रत के करने से ऐसा कौन सा मनोबल है जो सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य अलभ्य मनुष्य देह को पाकर भी नवरात्र का व्रत नहीं करता वह माता-पिता से हीन हो जाता है अर्थात् उसके माता-पिता मर जाते हैं और अनेक दुखों को भोगता है। उसके शरीर में कुष्ठ हो जाता है और अंग से हीन हो जाता है उसके सन्तानोत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार वह मूर्ख अनेक दुख भोगता है। इस व्रत को न करने वला निर्दयी मनुष्य धन और धान्य से रहित हो, भूख और प्यास के मारे पृथ्वी पर घूमता है और गूंगा हो जाता है। जो विधवा स्त्री भूल से इस व्रत को नहीं करतीं वह पति हीन होकर नाना प्रकार के दुखों को भोगती हैं। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन बान्धवों सहित नवरात्र व्रत की कथा करे।

हे बृहस्पते! जिसने पहले इस व्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूं। तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी का वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण! मनुष्यों का कल्याण करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहो मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण में आए हुए मुझ पर कृपा करो।

ब्रह्मा जी बोले- पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सम्पूर्ण सद्गुणों से युक्त मनो ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो ऐसी यथार्थ नाम वाली सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री उत्पन्न हुई। वह कन्या सुमति अपने घर के बालकपन में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम करता था। उस समय वह भी नियम से वहां उपस्थित होती थी। एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ठी और दरिद्री मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा। 

इस प्रकार कुपित पिता के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुख हुआ और पिता से कहने लगी कि हे पिताजी! मैं आपकी कन्या हूं। मैं आपके सब तरह से आधीन हूं। जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। राजा कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो पर होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है मेरा तो इस पर पूर्ण विश्वास है।

मनुष्य जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है पर होता वही है जो भाग्य में विधाता ने लिखा है जो जैसा करता है उसको फल भी उस कर्म के अनुसार मिलता है, क्यों कि कर्म करना मनुष्य के आधीन है। पर फल दैव के आधीन है। जैसे अग्नि में पड़े तृणाति अग्नि को अधिक प्रदीप्त कर देते हैं उसी तरह अपनी कन्या के ऐसे निर्भयता से कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राह्मण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ- जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य भरोसे पर रहकर तुम क्या करती हो?

इस प्रकार से कहे हुए पिता के कटु वचनों को सुनकर सुमति मन में विचार करने लगी कि - अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुख का विचार करती हुई वह सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयावने कुशयुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की। उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगीं कि हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो वरदान मांग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूं। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हैं, वह सब मेरे लिए कहो और अपनी कृपा दृष्टि से मुझ दीन दासी को कृतार्थ करो। ऐसा ब्राह्मणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदिशक्ति हूं और मैं ही ब्रह्मविद्या और सरस्वती हूं मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।

तुम्हारे पूर्व जन्म का वृतान्त सुनाती हूं सुनो! तुम पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया। इस प्रकार नवरात्रों के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल ही पिया। इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हें मनवांछित वस्तु दे रही हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो वह वरदान मांग लो।

इस प्रकार दुर्गा के कहे हुए वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे! आपको प्रणाम करती हूं। कृपा करके मेरे पति के कुष्ठ को दूर करो। देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस व्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कुष्ठ दूर करने के लिए अर्पण करो मेरे प्रभाव से तेरा पति कुष्ठ से रहित और सोने के समान शरीर वाला हो जायेगा। ब्रह्मा जी बोले इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है ऐसे बोली। तब उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया जिसकी कान्ति के सामने चन्द्रमा की कान्ति भी क्षीण हो जाती है वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रम वाली समझ कर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुर्गत को दूर करने वाली, तीनों जगत की सन्ताप हरने वाली, समस्त दुखों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित वस्तु को देने वाली और दुष्ट मनुष्य का नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत की माता और पिता हो। हे अम्बे! मुझ अपराध रहित अबला की मेरे पिता ने कुष्ठी के साथ विवाह कर मुझे घर से निकाल दिया। उसकी निकाली हुई पृथ्वी पर घूमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी समुद्र से उद्धार किया है। हे देवी! आपको प्रणाम करती हूं। मुझ दीन की रक्षा कीजिए।

ब्रह्माजी बोले- हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की, उससे हुई स्तुति सुनकर देवी को बहुत सन्तोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! उदालय नाम का अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र होगा। ऐसे कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी और जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनवांछित वस्तु मांग सकती है ऐसा भवगती दुर्गा का वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गे अगर आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्रि व्रत विधि बतलाइये। हे दयावन्ती! जिस विधि से नवरात्र व्रत करने से आप प्रसन्न होती हैं उस विधि और उसके फल को मेरे लिए विस्तार से वर्णन कीजिए।

इस प्रकार ब्राह्मणी के वचन सुनकर दुर्गा कहने लगी हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हारे लिए सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली नवरात्र व्रत विधि को बतलाती हूं जिसको सुनने से समाम पापों से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। आश्विन मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधि पूर्वक व्रत करे यदि दिन भर का व्रत न कर सके तो एक समय भोजन करे। पढ़े लिखे ब्राह्मणों से पूछकर कलश स्थापना करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचे। महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती इनकी मूर्तियां बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करे और पुष्पों से विधि पूर्वक अध्र्य दें। बिजौरा के फूल से अध्र्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती है। आंवले से सुख और केले से भूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अध्र्य देकर यथा विधि हवन करें। खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, विल्व, नारियल, दाख और कदम्ब इनसे हवन करें गेहूं होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। खीर व चम्पा के पुष्पों से धन और पत्तों से तेज और सुख की प्राप्ति होती है। आंवले से कीर्ति और केले से पुत्र होता है। कमल से राज सम्मान और दाखों से सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। खंड, घी, नारियल, जौ और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यन्त नम्रता से प्रणाम करे और व्रत की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है, उसका करोड़ों गुना मिलता है। इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ मंदिर अथवा घर में ही विधि के अनुसार करें।

ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि और फल बताकर देवी अन्तध्र्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूर्वक करता है वह इस लोक में सुख पाकर अन्त में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता हे। हे बृहस्पते! यह दुर्लभ व्रत का माहात्म्य मैंने तुम्हारे लिए बतलाया है। बृहस्पति जी कहने लगे- हे ब्राह्मण! आपने मुझ पर अति कृपा की जो अमृत के समान इस नवरात्र व्रत का माहात्म्य सुनाया। हे प्रभु! आपके बिना और कौन इस माहात्म्य को सुना सकता है? ऐसे बृहस्पति जी के वचन सुनकर ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! तुमने सब प्राणियों का हित करने वाले इस अलौकिक व्रत को पूछा है इसलिए तुम धन्य हो। यह भगवती शक्ति सम्पूर्ण लोकों का पालन करने वाली है, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है।
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शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

श्री रुद्राष्टक Shri Rudrashtak

श्री रुद्राष्टक Shri Rudrashtak


नमामी शमीशान निर्वाणरूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्‌म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेsहं॥१॥

निराकामोंकारमूलं तुरीयं।
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं।
गुणागार संसारपारं नतोsहं॥२॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं।
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा।
लसभ्दालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥ ३॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं।
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं।
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं।
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं।
भजेsहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी।
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी।
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥

न यावद्‌ उमानाथ पादारवन्दिं।
भजंतीह लोके परे वा नराणां॥

न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं।
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोsहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥

जरा जन्म दुःखौद्य तातप्यमानं।
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥८॥

श्लोक -
रुद्राष्टकमिद्र प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शंम्भुः प्रसीदति॥९॥
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