बुधवार, 15 दिसंबर 2021

श्री गंगा चालीसा || जय जग जननी हरण अघखानी || Shri Ganga Chalisa || Jay Jag Janani Haran Aghkhani || Lyrics in Hindi

श्री गंगा चालीसा || जय जग जननी हरण अघखानी || Shri Ganga Chalisa || Jay Jag Janani Haran Aghkhani || Lyrics in Hindi


।। दोहा ।। 

जय जय जय जग पावनी, 

जयति देवसरि गंग। 

जय शिव जटा निवासिनी 

अनुपम तुंग तरंग।।


।। चौपाई ।।

जय जग जननी हरण अघखानी। 

आनंद करनि गंग महारानी।। 


जय भगीरथी सुरसरि माता। 

कलिमल मूल दलिनि विख्याता।। 


जय जय जय हनु सुता अघ हननी। 

भीष्म की माता जय जय जननी।। 


धवल कमल दल सम तनु सजे। 

लखी शत शरद चंद्र छवि लाजै।। 


वाहन मकर विमल शुचि सोहें। 

अमिया कलश कर लखी मन मोहें।। 


जाड़त रत्ना कंचन आभूषण। 

हिया मणि हार हरणि तम दूषण।। 


जग पावनी त्रय ताप नासवनी। 

तरल तरंग तंग मन भावनी।। 


जो गणपति अति पूज्य प्रधाना। 

तिहूं ते प्रथम गंग अस्नाना।। 


ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी। 

श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी।। 


साथी सहस्त्र सगर सुत तारयो। 

गंगा सागर तीरथ धारयो।। 


अगम तरंग उठ्यो मन भावन। 

लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।। 


तीरथ राज प्रयाग अक्षयवट। 

धरयो मातु पुनि काशी करवट।। 


धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी। 

तारणी अमित पित्र पद पीढ़ी।। 


भागीरथ तप कियो अपारा। 

दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा।। 


जब जग जननी चल्यो हहराई। 

शम्भु जटा महं रह्यो समाई।। 


वर्ष पर्यंत गंग महारानी। 

रहीं शम्‍भु के जटा भुलानी।। 


पुनि भागीरथ शम्भुहीं ध्यायो। 

तब इक बूंद जटा से पायो।। 


ताते मातु भई त्रय धारा। 

मृत्यु लोक नभ अरु पातारा।। 


गईं पाताल प्रभावती नामा। 

मन्दाकिनी गई गगन ललामा।। 


मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी। 

कलिमल हरनि अगम युग पावनि।। 


धनि मइया तव महिमा भारी। 

धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी।। 


मातु प्रभावति धनि मंदाकिनी। 

धनि सुर सरित सकल भयनासिनी।। 


पान करत निर्मल गंगा जल। 

पावत मन इच्छित अनंत फल।। 


पूरब जन्म पुण्य जब जागत। 

तबहीं ध्यान गंगा महं लागत।। 


जई पगु सुरसरी हेतु उठावहिं। 

तई जगि अश्वमेघ फल पावहि।। 


महा पतित जिन काहू न तारे। 

तिन तारे इक नाम तिहारे।। 


शत योजन हूं से जो ध्यावहिं। 

निश्‍चय विष्णु लोक पद पावहिं।। 


नाम भजत अगणित अघ नाशै। 

विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।। 


जिमि धन धर्मं अरु दाना। 

धर्मं मूल गंगाजल पाना।। 


तव गुन गुणन करत दुख भाजत। 

गृह गृह सम्पति सुमति विराजत।। 


गंगहि नेम सहित नित ध्यावत। 

दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।। 


बुद्धिहीन विद्या बल पावै। 

रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै।। 


गंगा गंगा जो नर कहहीं। 

भूखा नंगा कबहुँ न रहहीं।। 


निकसत ही मुख गंगा माई। 

श्रवण दाबि यम चलहिं पराई।। 


महा अघिन अधमन कहं तारे। 

भए नरक के बंद किवारें।।


जो नर जपे गंग शत नामा। 

सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा।। 


सब सुख भोग परम पद पावहिं। 

आवागमन रहित ह्वै जावहिं।। 


धनि मइया सुरसरि सुख दैनी। 

धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।। 


ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा। 

सुन्दरदास गंग कर दासा।। 


जो यह पढ़े गंगा चालीसा। 

मिले भक्ति अविरल वागीसा।।


नित नव सुख सम्‍पति लहैं

धरे गंग का ध्‍यान। 


अंत समय सुर पुर बसे

सादर बैठि विमान ।।


संवत भुज नभदिशी 

राज जन्‍म दिन चैत्र। 


पूरण चालीसा कियो 

हरि भक्‍तन हित नेत्र।।

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