मंगलवार, 13 सितंबर 2011

आरती श्री साईं जी की Shri Sai Baba Ki Aarti (Arti Sainath Ki), Sai Ram ki Arti




आरती श्री साईं गुरुवर की, परमानन्द सदा सुरवर की।
जा की कृपा विपुल सुखकारी, दुख शोक संकट भयहारी।

शिरडी में अवतार रचाया, चमत्कार से तत्व दिखाया।
कितने भक्त चरण पर आये, वे सुख शान्ति चिरंतन पाये।

भाव धरै जो मन में जैसा, पावत अनुभव वो ही वैसा।
गुरु की उदी लगवे तन को, समाधान लाभत उस मन को।

साईं नाम सदा जो गावे, सो फल जग में शाश्वत पावे।
गुरुवासर करि पूजा-सेवा, उस पर कृपा करत गुरुदेवा।

राम, कृष्ण, हनुमान रूप में, दे दर्शन, जानत जो मन में।
विविध धर्म के सेवक आते, दर्शन इच्छित फल पाते।

जै बोलो साईं बाबा की, जै बोलो अवधूत गुरु की।
साईंदास आरती को गावै, घर में बसि सुख, मंगल पावे।

चित्र saibabaofshirdi.net से साभार

सोमवार, 12 सितंबर 2011

श्री साई चालीसा Shri Sai Chalisa (Sai Baba Chalisa) || पहले साईं के चरणों में || Pahle Sai Ke Charano me

श्री साई चालीसा Shri Sai Chalisa (Sai Baba Chalisa) || पहले साईं के चरणों में || Pahle Sai Ke Charano me



पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं।
कैसे शिर्डी साईं आए सारा हाल सुनाऊँ मैं।
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना।
कहाँ जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली सा रहा बना।

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं।
कोई कहता साईं बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं।
कोई कहता है मंगल मूर्ति, श्री गजानन  हैं साईं।
कोई कहता गोकुल मोहन देवकी नन्दन हैं साईं।

शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साई की करते।
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान।

कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात।
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर।

कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।
और दिखायी ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर।
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वेसे ही शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान।

दिन दिगन्त में लगा गूँजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम।
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बन्धन।

कभी किसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान।
एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान।
स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल।
अन्तः करन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल।

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान।
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो।

कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे।
कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया।

दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर।
अनुनय विनय बहुत की उसने, चरणों में धरकर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष।

अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर।
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार।

तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
साँच को आँच नहीं है कोई, सदा, झूठ की होती हार।
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस।

मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी।
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था।

धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था।
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझ सा था।

बाबा के दर्शनों की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार।
पावन शिर्डी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की मुरति।

जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का हो अन्त गया।
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको सब बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आज्ञा से।

बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही सम्बल ले मैं, हँसता जाऊँगा जीवन में।
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता, जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ।

काशीराम बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था।
मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था।
सिलकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में।

स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ हो हाथ, तिमिर के मारे।
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट के काशी।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी।

घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई।
लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो।
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो।

बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में।
अनजाने ही उसके मुँह से, निकल पड़ा था साईं।
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई।

क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो।
उन्मादी से इधर उधर तब, बाबा लगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आईं उनको लगे पटकने।

और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला।
समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में।
क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ पर, पड़े हुए विस्मय में।

उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं।
उसकी ही पीड़ी से पीडि़त, उनका अन्तस्तल है।
इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई।

लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देखा भक्त को, साईं की आँखें भर आई।
शान्त, धीर, गंभीर सिन्धु सा, बाबा का अन्तस्तल।
आज न जाने क्यों रह-रह, हो जाता था चंचल।

आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी।
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी।

जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में।
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपदग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी।

भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई।
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला।

घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना।
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम के कड़ुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी।

सच को स्नेह दिया साईं ने, सबको अतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया।
ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुख क्यों न हो, पलभर में वह दूर टरे

साईं जैसा दाता, अरे कभी नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई।
तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो।

जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा।
तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा के पूरी ही करनी होगी।

जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूँढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को।
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का हो गुण गाया।

गिरें संकटों के पर्वत चाहे, या बिजली ही टूट पड़े।
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े।
इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जावोगे हैरान।
दंग रह गए सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान।

एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर निवासी, जनता को था भरमाया।
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहीं भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन।

औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती है दुख से मुक्ति।
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से, बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से।

लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियाँ हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी।
जो है संततिहीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाये।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुँह माँगा फल पाये।

औषध मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा।
दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो।

हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगों की नादानी।
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक।

हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ।
मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को

पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को।
तनिक मिल आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को।

पलभर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रख कर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर।
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में।

स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर।
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तस्तल।
उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल।

जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो जाता है।
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के दानव को क्षण भर में।

स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में।
ऐसे ही अवतारी साईं, मुत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर।

नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने।
पाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने।
सदा याद में मस्त रा मकी, बैठे रहते थे साईं।
पहर आठ ही राम नाम का , भजते रहते थे साईं।

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सदा यास के भूखे साईं की खातिर थे सभी समान।
स्नेह और श्रद्धा से अपनी , जन को कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे।

कभी कभी मन बहलाने को, बाब बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे।
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे।

ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपद विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे।
सुनकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शान्ति, उनके उर में भर देते थे।

जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी।
धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये।

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता।
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता।
गर पकड़ता मैं चरण श्री के नहीं छोड़ता उम्र भर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर।


चित्र babasaiofshirdi.org से साभार

रविवार, 24 जुलाई 2011

श्री सत्य नारायण व्रत कथा Shri Satyanarayan Vrat Katha, Satyadev Vrat Katha

श्री सत्य नारायण व्रत कथा Shri Satyanarayan Vrat Katha, Satyadev Vrat Katha 



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श्री सत्य नारायण व्रत कथा का पहला अध्याय


श्रीव्यास जी ने कहा - एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराणशास्त्र के वेत्ता श्रीसूत जी महाराज से पूछा - महामुने! किस व्रत अथवा तपस्या से मनोवांछित फल प्राप्त होता है, उसे हम सब सुनना चाहते हैं, आप कहें।

श्री सूतजी बोले - इसी प्रकार देवर्षि नारदजी के द्वारा भी पूछे जाने पर भगवान कमलापति ने उनसे जैसा कहा था, उसे कह रहा हूं, आप लोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगों के कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आये और यहां उन्होंने अपने कर्मफल के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश दुख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपाय से इनके दुखों का सुनिश्चित रूप से नाश हो सकता है’, ऐसा मन में विचार करके वे विष्णुलोक गये। वहां चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमाला से विभूषित शुक्लवर्ण भगवान श्री नारायण का दर्शन कर उन देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे।

नारद जी बोले - हे वाणी और मन से परे स्वरूप वाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्त से रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणों से सम्पन्न, स्थावर-जंगमात्मक निखिल सृष्टिप्रपंच के कारणभूत तथा भक्तों की पीड़ा नष्ट करने वाले परमात्मन! आपको नमस्कार है।

स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।

नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

श्री सत्य नारायण व्रत कथा का दूसरा अध्याय


श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

श्री सत्य नारायण व्रत कथा का तीसरा अध्याय


श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।

राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

श्री सत्य नारायण व्रत कथा का चौथा अध्याय


श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

श्री सत्य नारायण व्रत कथा का पांचवा अध्याय


श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ।
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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

श्री लक्ष्मी चालीसा Shri Laxmi Chalisa || Lakshmi Ji ki Chalisa

श्री लक्ष्मी चालीसा Shri Laxmi Chalisa || Lakshmi Ji ki Chalisa



दोहा

मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।
मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहुं मेरी आस।।

सोरठा

यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करूं।
सबविधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका।

चौपाई

सिन्धु सुता मैं सुमिरों तोही, ज्ञान बुद्धि विद्या दे मोही।
तुम समान नहीं कोई उपकारी, सब विधि पुरवहुं आस हमारी।

जय जय जय जननी जगदम्बा, सबकी तुम ही हो अवलम्बा।
तुम हो सब घट घट के वासी, विनती यही हमारी खासी।

जग जननी जय सिन्धुकुमारी, दीनन की तुम हो हितकारी।
विनवौ नित्य तुमहिं महारानी, कृपा करो जग जननि भवानी।

केहि विधि स्तुति करौं तिहारी, सुधि लीजै अपराध बिसारी।
कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी, जग जननी विनती सुन मोरी।

ज्ञान बुद्धि सब सुख की दाता, संकट हरो हमारी माता।
क्षीर सिन्धु जब विष्णु मथायो, चैदह रत्न सिन्धु में पायो।

चौदह रत्न में तुम सुखरासी, सेवा कियो प्रभु बन दासी।
जो जो जन्म प्रभु जहां लीना, रूप बदल तहं सेवा कीन्हा।

स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा, लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा।
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं, सेवा कियो हृदय पुलकाहीं।

अपायो तोहि अन्तर्यामी,विश्व विदित त्रिभुवन के स्वामी।
तुम सम प्रबल शक्ति नहिं आनी, कहं लौं महिमा कहौं बखानी।

मन क्रम वचन करै सेवकाई, मन इच्छित वांछित फल पाई।
तजि छल कपट और चतुराई, पूजहिं विविध भांति मनलाई।

और हाल मैं कहौं बुझाई, जो यह पाठ करै मन लाई।
ताको कोई कष्ट न होई, मन इच्छित पावै फल सोई।

त्राहि त्राहि जय दुख विारिणी, ताप भव बंधन हारिणी।
जो यह पढ़ै और पढ़ावै, ध्यान लगाकर सुनै सुनावै।

ताको कोई न रोग सतावै, पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै।
पुत्रहीन अरु संपतिहीना, अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना।

विप्र बोलाय के पाठ करावै, शंका दिल में कभी न लावै।
पाठ करावै दिन चालीसा, तापर कृपा करैं गौरीसा।

सुख सम्पत्ति बहुत सो पावै, कमी नहीं काहु की आवै।
बारह मास कै सो पूजा, तेहि सम धन्य और नहिं दूजा।

प्रतिदिन पाठ करै मनमाहीं, उन सम कोई जग में नाहीं।
बहु बिधि क्या मैं करौं बड़ाई, लेय परीक्षा ध्यान लगाई।

करि विश्वास करै व्रत नेमा, होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा।
जय जय जय लक्ष्मी भवानी, सब में व्यापित हो गुणखानी।

तुम्हारो तेज प्रबल जग माहीं, तुम समकोउ दयालु कहुं नाहीं।
मोहि अनाथ की सुध अब लीजै, संकट काटि भक्ति मोहि दीजै।

भूल चूक करि क्षमा हमारी, दर्शन दीजै दशा निहारी।
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई, ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई।

बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी, तुमहि अछत दुख सहते भारी।
नहिं मोहि ज्ञान बुद्धि है मन में, सब जानत हो अपने मन में।

रूप चतुर्भुज करके धारण, कष्ट मोर अब करहु निवारण।

दोहा

त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो बेगि सब त्रास।
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो दुश्मन का नाश।

रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।
मातु लक्ष्मी दास पै, करहु दया की कोर।


चित्र nirmalbhajan.comसे साभार

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आरती श्री सूर्यदेव जी की Aarti Shri Surya Dev Ji Ki

आरती श्री सूर्यदेव जी की Aarti Shri Surya Dev Ji Ki



जय जय जय रविदेव, 
जय जय जय रविदेव।
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राजनीति मदहारी 
शतदल जीवन दाता।
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षटपद मन मुदकारी 
हे दिनमणि ताता।
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जग के हे रविदेव, 
जय जय जय रविदेव।
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नभमंडल के वासी 
ज्योति प्रकाशक देवा।
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निज जनहित सुखसारी 
तेरी हम सब सेवा।
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करते हैं रवि देव, 
जय जय जय रविदेव।
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कनक बदनमन मोहित 
रुचिर प्रभा प्यारी।
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हे सुरवर रविदेव, 
जय जय जय रविदेव।।