शनिवार, 17 जुलाई 2010

श्री राम चालीसा || श्री रघुवीर भक्त हितकारी || Shri Ram Chalisa || Shri Raghubeer Bhakt Hitkari || Shri Ram Stuti || Ran Navami

श्री राम चालीसा || श्री रघुवीर भक्त हितकारी || Shri Ram Chalisa || Shri Raghubeer Bhakt Hitkari || Shri Ram Stuti || Ran Navami


श्री रघुवीर भक्त हितकारी, 
सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।
निशि दिन ध्यान धरै जो कोई, 
ता सम भक्त और नहिं होई॥

ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, 
ब्रह्‌मा इन्द्र पार नहिं पाहीं।
जय जय जय रघुनाथ कृपाला, 
सदा करो सन्तन प्रतिपाला॥

दूत तुम्हार वीर हनुमाना, 
जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना।
तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, 
रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥

तुम अनाथ के नाथ गोसाईं, 
दीनन के हो सदा सहाई।
ब्रह्‌मादिक तव पार न पावैं, 
सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥

चारिउ वेद भरत हैं साखी, 
तुम भक्तन की लज्जा राखी।
गुण गावत शारद मन माहीं, 
सुरपति ताको पार न पाहीं॥

नाम तुम्हार लेत जो कोई, 
ता सम धन्य और नहिं होई।
राम नाम है अपरम्पारा, 
चारिउ वेदन जाहि पुकारा॥

गणपति नाम तुम्हारो लीन्हौ, 
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हौ।
शेष रटत नित नाम तुम्हारा, 
महि को भार शीश पर धारा॥

फूल समान रहत सो भारा, 
पाव न कोउ तुम्हारो पारा।
भरत नाम तुम्हरो उर धारो, 
तासों कबहु न रण में हारो॥

नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा, 
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा।
लषन तुम्हारे आज्ञाकारी, 
सदा करत सन्तन रखवारी॥

ताते रण जीते नहिं कोई, 
युद्ध जुरे यमहूं किन होई।
महालक्ष्मी धर अवतारा, 
सब विधि करत पाप को छारा॥

सीता नाम पुनीता गायो, 
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो।
घट सों प्रकट भई सो आई, 
जाको देखत चन्द्र लजाई॥

सो तुमनरे नित पांव पलोटत, 
नवों निद्धि चरणन में लोटत।
सिद्धि अठारह मंगलकारी, 
सो तुम पर जावै बलिहारी॥

औरहुं जो अनेक प्रभुताई, 
सो सीतापति तुमहि बनाई।
इच्छा ते कोटिन संसारा, 
रचत न लागत पल की वारा।

जो तुम्हरे चरणन चित लावै, 
ताकी मुक्ति अवसि हो जावै।
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा, 
निर्गुण ब्रह्‌म अखण्ड अनूपा॥

सत्य सत्य व्रत स्वामी, 
सत्य सनातन अन्तर्यामी।
सत्य भजन तुम्हारो जो गावै, 
सो निश्चय चारों फल पावै॥

सत्य शपथ गौरिपति कीन्हीं, 
तुमने भक्तिहिं सब सिद्धि दीन्हीं।
सुनहु राम तुम तात हमारे, 
तुहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥

तुमहिं देव कुल देव हमारे, 
तुम गुरुदेव प्राण के प्यारे।
जो कुछ हो सो तुम ही राजा, 
जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥

राम आत्मा पोषण हारे, 
जय जय जय दशरथ दुलारे।
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा, 
नमो नमो जय जगपति भूपा॥

धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा, 
नाम तुम्हार हरत संतापा।
सत्य शुद्ध देवन मुख गाया, 
बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥

सत्य सत्य तुम सत्य सनातन, 
तुम ही हो हमारे तन मन धन।
याको पाठ करे जो कोई, 
ज्ञान प्रकट ताके उर होई।

आवागमन मिटै तिहि केरा, 
सत्य वचन माने शिव मेरा।
और आस मन में जो होई, 
मनवांछित फल पावे सोई॥

तीनहूं काल ध्यान जो ल्यावैं, 
तुलसी दर अरु फूल चढ़ावैं।
साग पत्र सो भोग लगावैं, 
सो नर सकल सिद्धता पावैं॥

अन्त समय रघुवर पुर जाई, 
जहां जन्म हरि भक्त कहाई।
श्री हरिदास कहै अरु गावै, 
सो बैकुण्ठ धाम को जावै॥

दोहा


सात दिवस जो नेम कर, 
पाठ करे चित लाय।
हरिदास हरि कृपा से, 
अवसि भक्ति को पाय॥

राम चालीसा जो पढ़े , 
राम चरण चित लाय।
जो इच्छा मन में करै, 
सकल सिद्ध हो जाय॥

रविवार, 4 जुलाई 2010

श्री गणेश चालीसा || जय जय जय गणपति गणराजू || SHRI GANESH CHALISA || Jay Jay Jay Ganpati Ganraju || Shri Ganesh Stuti

श्री गणेश चालीसा || जय जय जय गणपति गणराजू ||  SHRI GANESH CHALISA || Jay Jay Jay Ganpati Ganraju || Shri Ganesh Stuti 

(चित्र गूगल से साभार)

दोहा


जय गणपति सद्‌गुण सदन, 
करि वर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, 
जय जय गिरिजालाल॥

चौपाई


जय जय जय गणपति गणराजू,
मंगल भरण करण शुभ काजू।

जय गजबदन सदन सुखदाता,
विश्वविनायक बुद्धिविधाता।

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन,
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन।

राजत मणि मुक्तन उर माला,
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला।

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं,
मोदक भोग सुगन्धित फूलं।

सुन्दर पीताम्बर तन साजित,
चरण पादुका मुनि मन राजित।

धनि शिव सुवन षडानन भ्राता,
गौरी ललन विश्व विखयाता।

ऋद्धि सिद्धि तव चंवर सुधारे,
मूषक वाहन सोहत द्वारे।

कहौं जन्म शुभ कथा तुम्हारी,
अति शुचि पावन मंगलकारी।

एक समय गिरिराज कुमारी,
पुत्र हेतु तप कीन्हों भारी।


भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा,
तब पहुच्यों तुम धरि द्विज रूपा।

अतिथि जानि के गौरी सुखारी,
बहु विधि सेवा करी तुम्हारी।

अति प्रसन्न ह्‌वै तुम वर दीन्हा,
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा।

मिलहिं पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला,
बिना गर्भ धारण यहि काला।

गणनायक गुण ज्ञान निधाना,
पूजित प्रथम रूप भगवाना।

अस कहि अन्तर्धान रूप ह्‌वै,
पलना पर बालक स्वरूप ह्‌वै।

बनि शिशु रुदन जबहिं तुम ठाना,
 लखि मुख सुख नहिं गौनी समाना।

सकल मगन सुख मंगल गावहिं,
नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं।

शम्भु उमा बहु दान लुटावहिं,
सुर मुनिजन तुस देखन आवहिं।

लखि अति आनन्द मंगल साजा,
देखन भी आए शनि राजा।

निज अवगुण गनि शनि मन माहीं,
बालक देखन चाहत नाहीं।

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो,
उत्सव मोर न शनि तुहि भायो।

कहन लगे शनि मन सकुचाई,
का करिहों शिशु मोहि दिखाई।


नहिं विश्वास उमा उर भयउ,
शनि सों बालक देखन कह्‌यउ।

तड़तहिं शनि दृगकोण प्रकाशा,
बालक सिर उडि  गयो अकाशा।

गिरिजा गिरी विकल ह्‌वै धरणी,
सो दुख दशा गयो नहिं वरणी।

हाहाकार मच्यो कैलाशा,
शनि कीन्हों लखि सुत का नाशा।

तुरत गरुड  चढि  विष्णु सिधाये,
काटि चक्र सो गजशिर लाये।

बालक के धड  ऊपर धारयो,
प्राण मन्त्र पढि  शंकर डारयो।

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हें,
प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हें।

बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा,
पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा।

चले षडानन, भरमि भुलाई,
रचे बैठि तुम बुद्धि उपाई।

चरण मातु पितु के धर लीन्हें,
तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें।

धनि गणेश कहि शिव हिय हर्ष्यो,
नभ ते सुरन सुमन बहुत वर्ष्यो।

तुम्हारी महिमा बुद्धि बढ ाई,
शेष सहस मुख सके न गाई।

मैं मति हीन मलीन दुखारी,
हरहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।


भजत राम सुन्दर प्रभुदासा,
जग प्रयाग ककरा दुर्वासा।

अब प्रभु दया दीन पर कीजे,
अपनी भक्ति शक्ति कुछ दीजे।


दोहा


श्री गणेश यह चालीसा, 
पाठ करै धर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै, 
लहै जगत सनमान।

सम्बन्ध अपना सहस्र दश, 
ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो, 
मंगली मूर्ति गणेश।

शनिवार, 26 जून 2010

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa 

दोहा 

श्री शनिश्चर देवजी

सुनहु श्रवण मम टेर।

कोटि विघ्ननाशक प्रभो

करो न मम हित बेर॥

सोरठा

तव स्तुति हे नाथ

जोरि जुगल कर करत हौं।

करिये मोहि सनाथ

विघ्नहरण हे रवि सुवन॥

चौपाई

शनि देव मैं सुमिरौं तोही

विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।

तुम्हरो नाम अनेक बखानौं

क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।


अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ

कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।

पिंगल मन्दसौरि सुख दाता

हित अनहित सब जग के ज्ञाता।


नित जपै जो नाम तुम्हारा

करहु व्याधि दुख से निस्तारा।

राशि विषमवस असुरन सुरनर

पन्नग शेष साहित विद्याधर।


राजा रंक रहहिं जो नीको

पशु पक्षी वनचर सबही को।

कानन किला शिविर सेनाकर

नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।


डालत विघ्न सबहि के सुख में

व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में।

नाथ विनय तुमसे यह मेरी

करिये मोपर दया घनेरी।


मम हित विषयम राशि मंहवासा

करिय न नाथ यही मम आसा।

जो गुड  उड़द दे वार शनीचर

तिल जब लोह अन्न धन बिस्तर।


दान दिये से होंय सुखारी

सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।

नाथ दया तुम मोपर कीजै

कोटिक विघ्न क्षणिक महं छीजै।


वंदत नाथ जुगल कर जोरी

सुनहुं दया कर विनती मोरी।

कबहुंक तीरथ राज प्रयागा

सरयू तोर सहित अनुरागा।


कबहुं सरस्वती शुद्ध नार महं

या कहु गिरी खोह कंदर महं।

ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि

ताहि ध्यान महं सूक्ष्म होहि शनि।


है अगम्य क्या करूं बड़ाई

करत प्रणाम चरण शिर नाई।

जो विदेश में बार शनीचर

मुड कर आवेगा जिन घर पर।


रहैं सुखी शनि देव दुहाई

रक्षा रवि सुत रखैं बनाई।

जो विदेश जावैं शनिवारा

गृह आवैं नहिं सहै दुखाना।


संकट देय शनीचर ताही

जेते दुखी होई मन माही।

सोई रवि नन्दन कर जोरी

वन्दन करत मूढ  मति थोरी।


ब्रह्‌मा जगत बनावन हारा

विष्णु सबहिं नित  देत अहारा।

हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी

विभू देव मूरति एक वारी।


इकहोइ धारण करत शनि नित

वंदत सोई शनि को दमनचित।

जो नर पाठ करै मन चित से

सो नर छूटै व्यथा अमित से।


हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े

कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।

पशु कुटुम्ब बांधन आदि से

भरो भवन रहिहैं नित सबसे।


नाना भांति भोग सुख सारा

अन्त समय तजकर संसारा।

पावै मुक्ति अमर पद भाई

जो नित शनि सम ध्यान लगाई।


पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस

रहै शनीश्चर नित उसके बस।

पीड़ा शनि की कबहुं न होई

नित उठ ध्यान धरै जो कोई।


जो यह पाठ करै चालीसा

होय सुख साखी जगदीशा।

चालिस दिन नित पढ़ै सबेरे

पातक नाशे शनी घनेरे।


रवि नन्दन की अस प्रभुताई

जगत मोहतम नाशै भाई।

याको पाठ करै जो कोई

सुख सम्पत्ति की कमी न होई।


निशिदिन ध्यान धरै मन माही

आधिव्याधि ढिंग आवै नाही।

दोहा

पाठ शनीश्चर देव को

कीन्हौं विमल तैयार।

करत पाठ चालीस दिन

हो भवसागर पार॥

जो स्तुति दशरथ जी कियो

सम्मुख शनि निहार।

सरस सुभाषा में वही

ललिता लिखें सुधार।

बुधवार, 23 जून 2010

श्री गंगा चालीसा || जय जय जय जग पावनी || Shri Ganga Chalisa || Jay Jay Jay Jag Pawani || Shri Ganga Stuti


दोहा


जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग॥

चौपाई

जय जग जननि अघ खानी, 
आनन्द करनि गंग महरानी।
जय भागीरथि सुरसरि माता, 
कलिमल मूल दलनि विखयाता।

जय जय जय हनु सुता अघ अननी, 
भीषम की माता जग जननी।
धवल कमल दल मम तनु साजे, 
लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे।

वाहन मकर विमल शुचि सोहै, 
अमिय कलश कर लखि मन मोहै।
जडित रत्न कंचन आभूषण, 
हिय मणि हार, हरणितम दूषण।

जग पावनि त्रय ताप नसावनि, 
तरल तरंग तंग मन भावनि।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, 
तिहुं ते प्रथम गंग अस्नाना।

ब्रह्‌म कमण्डल वासिनी देवी 
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी।
साठि सहत्र सगर सुत तारयो, 
गंगा सागर तीरथ धारयो।

अगम तरंग उठयो मन भावन, 
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, 
धरयौ मातु पुनि काशी करवट।

धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, 
तारणि अमित पितृ पद पीढ़ी ।
भागीरथ तप कियो अपारा, 
दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा।

जब जग जननी चल्यो लहराई, 
शंभु जटा महं रह्यो समाई।
वर्ष पर्यन्त गंग महरानी, 
रहीं शंभु के जटा भुलानी।

मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, 
तब इक बूंद जटा से पायो।
ताते मातु भई त्रय धारा, 
मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा।

गई पाताल प्रभावति नामा, 
मन्दाकिनी गई गगन ललामा।
मृत्यु लोक जाह्‌नवी सुहावनि, 
कलिमल हरणि अगम जग पावनि।

धनि मइया तव महिमा भारी, 
धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी।
मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, 
धनि सुरसरित सकल भयनासिनी।

पान करत निर्मल गंगाजल, 
पावत मन इच्छित अनन्त फल।
पूरब जन्म पुण्य जब जागत, 
तबहिं ध्यान गंगा महं लागत।

जई पगु सुरसरि हेतु उठावहिं, 
तइ जगि अश्वमेध फल पावहिं।
महा पतित जिन काहु न तारे, 
तिन तारे इक नाम तिहारे।

शत योजनहू से जो ध्यावहिं, 
निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं।
नाम भजत अगणित अघ नाशै, 
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।

जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, 
धर्म मूल गंगाजल पाना।
तव गुण गुणन करत सुख भाजत, 
गृह गृह सम्पत्ति सुमति विराजत।

गंगहिं नेम सहित निज ध्यावत, 
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै, 
रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै।

गंगा गंगा जो नर कहहीं, 
भूखे नंगे कबहूं न रहहीं।
निकसत की मुख गंगा माई, 
श्रवण दाबि यम चलहिं पराई।

महां अधिन अधमन कहं तारें, 
भए नर्क के बन्द किवारे।
जो नर जपै गंग शत नामा, 
सकल सिद्ध पूरण ह्वै कामा।

सब सुख भोग परम पद पावहिं, 
आवागमन रहित ह्वै जावहिं।
धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, 
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, 
सुन्दरदास गंगा कर दासा।
जो यह पढ़ै गंगा चालीसा, 
मिलै भक्ति अविरल वागीसा।

दोहा

नित नव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान।
अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमान॥
सम्वत्‌ भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र।
पूण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र॥


चित्र http://z.about.com/d/hinduism/1/G/I/_/goddess_ganga.jpg से साभार

रविवार, 20 जून 2010

श्री रामायण जी की आरती (Aarti Shri Ramayan Ji ki)


महर्षि वाल्मीकि



आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

गावत ब्रह्‌मादिक मुनि नारद।
बाल्मीकि बिग्यान बिसारद॥
सुक सनकादि सेष अरु सारद।
बरन पवनसुत कीरति नीकी॥१॥

गावत बेद पुरान अष्टदस।
छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस॥
मुनि जन धन संतन को सरबस।
सार अंस संमत सबही की॥ २॥

गावत संतत संभु भवानी।
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी।
कागभुसंडि गरुण के ही की॥३॥

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी।
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की॥
दलन रोग भव मूरि अमी की।
तात मात सब बिधि तुलसी की॥४॥

आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

बोलो सिया वर राम चन्द्र की जय
पवन सुत हनुमान की जय।

गोस्वामी तुलसीदास
चित्र
http://www.exoticindiaart.com/panels/saints_of_india__goswami_tulsidas_wd70.jpg
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/3/3e/Valmiki_ramayan.jpg  से साभार