भीमसेनी एकादशी व्रत कथा || निर्जला एकादशी व्रत कथा || Bhimseni Ekadashi Vrat Katha || Nirjala Ekadashi Vrat Katha Lyrics in Hindi PDF
*****
यह ब्लॉग धार्मिक भावना से प्रवृत्त होकर बनाया गया है। इस ब्लॉग की रचनाएं श्रुति एवं स्मृति के आधार पर लोक में प्रचलित एवं विभिन्न महानुभावों द्वारा संकलित करके पूर्व में प्रकाशित की गयी रचनाओं पर आधारित हैं। ये ब्लॉगर की स्वयं की रचनाएं नहीं हैं, ब्लॉगर ने केवल अपने श्रम द्वारा इन्हें सर्वसुलभ कराने का प्रयास किया है। इसी भाव के साथ ईश्वर की सेवा में ई-स्तुति
*****
तुलसी है तव नाम।
विश्वपूजिता कृष्ण जीवनी
वृंन्दा तुम्हें प्रणाम ।।
नमो नमो तुलसी गुणकारी
तुम त्रिलोक में शुभ हितकारी।
वन उपवन में शोभा तुम्हारी
वृक्ष रूप में हो अवतारी।।
देवी देवता अरु नर नारी
गावत महिता मात तुम्हारी।
जहॉं चरण हो तुम्हरे माता
स्थान वही पावन हो जाता।।
गोपी तुम्हीं गौ लोक निवासी
तुलसी नाम कृष्ण की दासी।
अंश रूप थी तुम भगवन की
प्राण प्रिये जैसी मोहन की।।
मुरलीधर संग तुमको पाया
क्रोध राधे को तुम पर आया।
कहा राधा ने श्राप है मेरा
मनुज योनि में जन्म हो तेरा।।
हरि बोले तुलसी तुम जाओ
भरत खंड जा ध्यान लगाओ।
ब्रह्मा के वरदान फलेंगे
नारायण पति रूप मिलेंगे।।
राजा धर्मध्वज माधवी रानी
जन्मी बनकर सुता सयानी।
उपमा कोई काम न आई
तब से तुम तुलसी कहलाई।।
बद्रिका आश्रम का पथ लीन्हा
उत्तम तप वहॉं जाकर कीन्हा।
फलदाई दिन वो भी आया
जब ब्रह्मा का दर्शन पाया।।
कहा ब्रह्मा ने मांगो तुम वर
तुमने कहा दे दो मुरलीधर।
ब्रह्मा जी ने राह बताई
तुमको तब ये कथा सुनाई।।
ब्रह्मा बोले सुन हे बाला
शंखचूड़ है दैत्य निराला।
मोहित है तुझ पर वो तब से
देखा है गौ लोक में जबसे।।
था ग्वाला वो नाम सुदामा
क्रोधित थी उस पर भी श्यामा।
श्राप मिला पृथ्वी पर आया
शंखचूड़ है वो कहलाया।।
पहले तू उसको ब्याहेगी
नारायण को फिर पायेगी।
नारायण के श्राप से पावन
बन जायेगी तू वृन्दावन।।
वृक्षों में देवी बन जायेगी
वृन्दावनी तू कहलायेगी।
पूजा होगी तुझ बिन निशफल
संग रहेंगे विष्णु हर पल।।
राधा मंत्र तब दिया निराला
तात ने सौलह अक्षर वाला।
जब कर तुमने सिद्धि पाई
लक्ष्मी सम सिद्धा कहलाई।।
शंखचूड़ से ब्याह रचाया
सती के जैसा धर्म निभाया।
शंखचूड़ पर ईर्ष्या आई
देवगणों की मति भरमाई।।
शंखचूड़ को छल से मारा
काम किया ये शिव ने सारा।
शंखचूड़ का रूप धरा था
हरि ने सती का शील हरा था।।
श्राप दिया तुलसी ने रोकर
नाथ रहो तुम पत्थर होकर।
हरि बोले अब ये तन छोड़ो
तुम मेरे संग नाता जोड़ो।।
क्या कहूँ आये तुम्हरा सरीरा
बने दंड की निर्मल नीरा।
वृक्ष हो तुलसी केश तुम्हारे
स्थान हो तुमसे पावन सारे।।
वर देकर फिर बोले भगवन
धन्य हो तुमसे सबके जीवन।
चरण जहॉं तव पड़ जायेंगे
तीर्थ स्थान वे कहलायेंगे।।
तुलसीयुक्त जल से जो नहाये
यज्ञ आदि का वो फल पाये।
विष्णु को प्रिय तुलसी चढ़ाये
कोटि चढ़ावों का फल पाये।।
जो फल दे दो दान हजारा
दे कार्तिक में दान तुम्हारा।
भरत है भैया दास तुम्हारा
अपनी शरण का दे दो सहारा।।
कलियुग में महिमा तेरी
है मॉं अपरम्पार।
दिशा दिशा मे हो रही
तेरी जय जयकार।।
*****
ॐ नमो गुरुदेवजी, सबके सरजन हार।
व्यापक अंतर बाहर में, पार ब्रह्म करतार।।
देवन के भी देव हो, सिमरुं मैं बारम्बार।
आपकी किरपा बिना, होवे न भव से पार।।
ऋषि-मुनि सब संत जन, जपें तुम्हारा जाप।
आत्मज्ञान घट पाय के, निर्भय हो गये आप।।
गुरु चालीसा जो पढ़े, उर गुरु ध्यान लगाय।
जन्म-मरण भव दुःख मिटे, काल कबहुँ नहिं खाय।।
गुरु चालीसा पढ़े-सुने, रिद्धि-सिद्धि सुख पाय।
मन वांछित कारज सरें, जन्म सफल हो जाय।।
ॐ नमो गुरुदेव दयाला,
भक्तजनों के हो प्रतिपाला।
पर उपकार धरो अवतारा,
डूबत जग में हंस उबारा।।
तेरा दरश करें बड़भागी,
जिनकी लगन हरि से लागी।
नाम जहाज तेरा सुखदाई,
धारे जीव पार हो जाई।।
पारब्रह्म गुरु हैं अविनाशी,
शुद्ध स्वरूप सदा सुखराशी।
गुरु समान दाता कोई नाहीं,
राजा प्रजा सब आस लगायी।।
गुरु सन्मुख जब जीव हो जावे,
कोटि कल्प के पाप नसावे।
जिन पर कृपा गुरु की होई,
उनको कमी रहे नहिं कोई।।
हिरदय में गुरुदेव को धारे,
गुरु उसका हैं जन्म सँवारें।
राम-लखन गुरु सेवा जानी,
विश्व-विजयी हुए महाज्ञानी।।
कृष्ण गुरु की आज्ञा धारी,
स्वयं जो पारब्रह्म अवतारी।
सद्गुरु कृपा अती है भारी,
नारद की चौरासी टारी।।
कठिन तपस्या करें शुकदेव,
गुरु बिना नहीं पाया भेद।
गुरु मिले जब जनक विदेही,
आतमज्ञान महा सुख लेही।।
व्यास, वसिष्ठ मर्म गुरु जानी,
सकल शास्त्र के भये अति ज्ञानी।
अनंत ऋषि मुनि अवतारा,
सद्गुरु चरण-कमल चित धारा।।
सद्गुरु नाम जो हृदय धारे,
कोटि कल्प के पाप निवारे।
सद्गुरु सेवा उर में धारे,
इक्कीस पीढ़ी अपनी वो तारे।।
पूर्वजन्म की तपस्या जागे,
गुरु सेवा में तब मन लागे।
सद्गुरु-सेवा सब सुख होवे,
जनम अकारथ क्यों है खोवे।।
सद्गुरु सेवा बिरला जाने,
मूरख बात नहीं पहिचाने।
सद्गुरु नाम जपो दिन-राती,
जन्म-जन्म का है यह साथी।।
अन्न-धन लक्ष्मी जो सुख चाहे,
गुरु सेवा में ध्यान लगावे।
गुरुकृपा सब विघ्न विनाशी,
मिटे भरम आतम परकाशी।।
पूर्व पुण्य उदय सब होवे,
मन अपना सद्गुरु में खोवे।
गुरु सेवा में विघ्न पड़ावे,
उनका कुल नरकों में जावे।।
गुरु सेवा से विमुख जो रहता,
यम की मार सदा वह सहता।
गुरु विमुख भोगे दुःख भारी,
परमारथ का नहीं अधिकारी।।
गुरु विमुख को नरक न ठौर,
बातें करो चाहे लाख करोड़।
गुरु का द्रोही सबसे बूरा,
उसका काम होवे नहीं पूरा।।
जो सद्गुरु का लेवे नाम,
वो ही पावे अचल आराम।
सभी संत हैं नाम से तरिया,
निगुरा नाम बिना ही मरिया।।
यम का दूत दूर ही भागे,
जिसका मन सद्गुरु में लागे।
भूत, पिशाच निकट नहीं आवे,
गुरुमंत्र जो निशदिन ध्यावे।।
जो सद्गुरु की सेवा करते,
डाकन-शाकन सब हैं डरते।
जंतर-मंतर, जादू-टोना,
गुरु भक्त के कुछ नहीं होना।।
गुरू भक्त की महिमा भारी,
क्या समझे निगुरा नर-नारी।
गुरु भक्त पर सद्गुरु बूठे,
धरमराज का लेखा छूटे।।
गुरु भक्त निज रूप ही चाहे,
गुरु मार्ग से लक्ष्य को पावे।
गुरु भक्त सबके सिर ताज,
उनका सब देवों पर राज।।
यह सद्गुरु चालीसा, पढ़े सुने चित्त लाय।
अंतर ज्ञान प्रकाश हो, दरिद्रता दुःख जाय।।
गुरु महिमा बेअंत है, गुरु हैं परम दयाल।
साधक मन आनंद करे, गुरुवर करें निहाल।।
जय जय जय जग पावनी,
जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी
अनुपम तुंग तरंग।।
जय जग जननी हरण अघखानी।
आनंद करनि गंग महारानी।।
जय भगीरथी सुरसरि माता।
कलिमल मूल दलिनि विख्याता।।
जय जय जय हनु सुता अघ हननी।
भीष्म की माता जय जय जननी।।
धवल कमल दल सम तनु सजे।
लखी शत शरद चंद्र छवि लाजै।।
वाहन मकर विमल शुचि सोहें।
अमिया कलश कर लखी मन मोहें।।
जाड़त रत्ना कंचन आभूषण।
हिया मणि हार हरणि तम दूषण।।
जग पावनी त्रय ताप नासवनी।
तरल तरंग तंग मन भावनी।।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना।
तिहूं ते प्रथम गंग अस्नाना।।
ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी।
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी।।
साथी सहस्त्र सगर सुत तारयो।
गंगा सागर तीरथ धारयो।।
अगम तरंग उठ्यो मन भावन।
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।।
तीरथ राज प्रयाग अक्षयवट।
धरयो मातु पुनि काशी करवट।।
धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी।
तारणी अमित पित्र पद पीढ़ी।।
भागीरथ तप कियो अपारा।
दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा।।
जब जग जननी चल्यो हहराई।
शम्भु जटा महं रह्यो समाई।।
वर्ष पर्यंत गंग महारानी।
रहीं शम्भु के जटा भुलानी।।
पुनि भागीरथ शम्भुहीं ध्यायो।
तब इक बूंद जटा से पायो।।
ताते मातु भई त्रय धारा।
मृत्यु लोक नभ अरु पातारा।।
गईं पाताल प्रभावती नामा।
मन्दाकिनी गई गगन ललामा।।
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी।
कलिमल हरनि अगम युग पावनि।।
धनि मइया तव महिमा भारी।
धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी।।
मातु प्रभावति धनि मंदाकिनी।
धनि सुर सरित सकल भयनासिनी।।
पान करत निर्मल गंगा जल।
पावत मन इच्छित अनंत फल।।
पूरब जन्म पुण्य जब जागत।
तबहीं ध्यान गंगा महं लागत।।
जई पगु सुरसरी हेतु उठावहिं।
तई जगि अश्वमेघ फल पावहि।।
महा पतित जिन काहू न तारे।
तिन तारे इक नाम तिहारे।।
शत योजन हूं से जो ध्यावहिं।
निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं।।
नाम भजत अगणित अघ नाशै।
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।।
जिमि धन धर्मं अरु दाना।
धर्मं मूल गंगाजल पाना।।
तव गुन गुणन करत दुख भाजत।
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत।।
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत।
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै।
रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै।।
गंगा गंगा जो नर कहहीं।
भूखा नंगा कबहुँ न रहहीं।।
निकसत ही मुख गंगा माई।
श्रवण दाबि यम चलहिं पराई।।
महा अघिन अधमन कहं तारे।
भए नरक के बंद किवारें।।
जो नर जपे गंग शत नामा।
सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा।।
सब सुख भोग परम पद पावहिं।
आवागमन रहित ह्वै जावहिं।।
धनि मइया सुरसरि सुख दैनी।
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।।
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा।
सुन्दरदास गंग कर दासा।।
जो यह पढ़े गंगा चालीसा।
मिले भक्ति अविरल वागीसा।।
नित नव सुख सम्पति लहैं
धरे गंग का ध्यान।
अंत समय सुर पुर बसे
सादर बैठि विमान ।।
संवत भुज नभदिशी
राज जन्म दिन चैत्र।
पूरण चालीसा कियो
हरि भक्तन हित नेत्र।।
*****