रविवार, 24 नवंबर 2024

बृहस्‍पतिवार के व्रत की सम्‍पूर्ण पौराणिक कथा | Brihaspativar Vrat Ki Sampurna Pauranik Katha | Vrihaspativar Vrat Katha

बृहस्‍पतिवार के व्रत की सम्‍पूर्ण पौराणिक कथा | Brihaspativar Vrat Ki Sampurna Pauranik Katha | Vrihaspativar Vrat Katha

**
**

वृहस्पतिवार के व्रत की विधि | Vrihaspativar Ke Vrat Ki Vidhi | Brihaspativar Vrat Ki Vidhi

**
वृहस्पतिवार के दिन जो भी स्त्री-पुरुष व्रत करे उनको चाहिए कि वे दिन में एक ही समय भोजन करें। क्योंकि वृहस्पतेश्वर भगवान् का इस दिन पूजन होता है, भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का प्रयोग करें, पीले चन्दन से पूजन करें। पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएं पूरी होती हैं और वृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं। धन, पुत्र, विद्या तथा मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख तथा शान्ति मिलती है, इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक सब स्त्री व पुरुषों के लिए है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो वृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को वृहस्पति देव अवश्य पूर्ण करते हैं ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।
**

अथ श्री वृहस्पतिवार व्रत कथा | Brihaspativar Vrat Katha | Vrihaspativar Vrat Katha

**
एक समय की बात है कि भारतवर्ष में एक नृपति राज्य करता था। वह बड़ा ही प्रतापी और दानी था। वह नित्यप्रति मन्दिर में दर्शन करने जाता था। वह ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके दरवाजे से कोई भी निराश होकर नहीं लौटता था तथा वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था। परन्तु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थीं। वह न व्रत करती और न किसी को एक दमड़ी तक दान में देती थी तथा राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी।
**
एक समय की बात है कि राजा तो शिकार खेलने जंगल को गए हुए थे। घर पर रानी और दासी थी। उस समय गुरु वृहस्पतिदेव एक साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने गए तथा भिक्षा मांगी। तो रानी कहने लगी- हे साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं। मुझसे तो घर का ही कार्य समाप्त नहीं होता। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप इस प्रकार की कृपा करें कि यह सब धन नष्ट हो जावे तथा मैं आराम से रह सकूं। साधु बोले-हे देवी,  तुम तो बड़ी विचित्र हो। सन्तान और धन से कोई दुःखी नहीं होता है। इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है। अगर आपके पास धन अधिक है तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ। प्याऊ लगवाओ। ब्राह्मणों को दान दो। धर्मशाला बनवाओ। कुंआ, तालाब, बावड़ी, बाग-बगीचों आदि के निर्माण कराओ। निर्धन मनुष्यों की कुंआरी कन्याओं का विवाह कराओ और अनेकों यज्ञादि धर्म करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में सार्थक होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी। मगर वह रानी इन बातों से खुश न हुई। वह बोली- हे साधु महाराज ! मुझे ऐसे धन की भी आवश्यकता नहीं जिसको और मनुष्यों को दान दूं तथा जिसको रखने उठाने में मेरा सारा समय ही बरबाद हो जावे। साधु ने कहा- हे देवी! तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो ऐसा ही होगा। मैं तुम्हें बताता हूं वैसा ही करना। वृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना। अपने केशों को धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाए। भोजन में मांस मंदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना। इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जावेगा। ऐसा कहकर वह साधु महाराज वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए।
**
रानी ने साधू के कहने के अनुसार वैसा ही किया तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों समय तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि रानी तुम यहाँ पर रहो मैं दूसरे देश को जाऊँ क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं इसलिए कोई कार्य भी नहीं कर सकता। देश चोरी परदेश भीख बराबर है ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वहां जंगल में जाता और लकड़ी काट कर लाता और शहर में बेचता इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इधर राजा के घर रानी और दासी दुःखी रहने लगी किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासी को सात रोज बिना भोजन के व्यतीत हो गये तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी! यहाँ पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और वहां से पांच सेर बेझर मांग ला जिससे कुछ समय के लिए गुजर हो जावेगी। इस प्रकार रानी की आज्ञा मानकर दासी उसकी बहन के पास गई तो रानी की बहन उस समय पूजन कर रही थी। क्योंकि उस दिन वृहस्पतिवार था। जब दासी ने रानी की बहन को देखा और उससे बोली- हे रानी। मुझे तुम्हारी बहन ने भेजा है। मेरे लिए पांच सेर बेझर दे दो। इस प्रकार दासी ने अनेक बार कहा परन्तु रानी ने कुछ उत्तर नहीं दिया। क्योंकि वह उस समय वृहस्पतिवार की व्रत कथा सुन रही थी। इस प्रकार जब दासी को किसी प्रकार उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और क्रोध भी आया और लौटकर अपने गांव आ रानी के पास आकर बोली- हे रानी ! आपकी बहन बहुत ही बड़ी आदमी है। वह छोटे मनुष्यों से बात भी नहीं करती। क्योंकि मैंने उनसे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मैं वापिस चली आई। रानी बोली- हे दासी ! इसमें उसका कोई दोष नहीं है जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नहीं देता। अच्छे बुरे का पता विपत्ति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। वह सब हमारे भाग्य का दोष है। इधर उस रानी ने देखा कि मेरी बहन की दासी आई थी परन्तु मैं उससे नहीं बोली इससे वह बहुत दुखी हुई होगी। यह सोच कथा को सुन और विष्णु भगवान् का पूजन समाप्त कर वह रानी अपनी बहन के घर चल दी और जाकर अपनी बहन से कहने लगी कि हे बहन ! मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है तब तक न उठते हैं और न बोलते हैं इसलिये मैं न बोली। कहो दासी क्यों गई थी? रानी बोली- बहन । हमारे अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पांच सेर बेझर लेने के लिये भेजा था। रानी बोली बहन देखो। वृहस्पति भगवान् सबका मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। इस प्रकार का वचन जब रानी ने सुना तो घर के अन्दर गई और वहां उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। तब तो वह रानी और दासी को बहुत ही दुख हुआ। दासी कहने लगी हे रानी देखो। वैसे हमको जब खाने को नहीं मिलता तो हम प्रतिदिन ही व्रत करते हैं। अगर इनसे व्रत की विधि और कथा पूछ ली जावे तो उसे हम भी किया करेंगे। तब उस रानी ने अपनी बहन से पूछा। रानी की बहन ने बताया कि हे बहन वृहस्पतिवार के व्रत में चना की दाल, मुनक्का से विष्णु भगवान् का केले की जड़ में पूजन करे तथा दीपक जलावे। पीला भोजन करे तथा कहानी सुने। इस प्रकार करने से गुरु भगवान् प्रसन्न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं। मनोकामना पूर्ण करते हैं। इस प्रकार रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पति भगवान् का पूजन जरूर करेंगे। सात दिन बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। घुड़साल में जाकर चना गुड़ बीन लाई तथा उसकी दाल से केले की जड़ का तथा विष्णु भगवान् का पूजन किया। अब भोजन पीला कहां से आवे। विचारी बड़ी दुखी हुई। परन्तु उन्होंने व्रत किया था इस कारण गुरु भगवान् प्रसन्न थे। दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आये और दासी को देकर बोले-हे दासी ! यह तुम्हारे और रानी के लिए भोजन है। तुम दोनों करना। दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और रानी से बोली चलो रानी जी भोजन कर लो। रानी को इस विषय में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली-तूही भोजन कर क्योंकि तू हमारी व्यर्थ में हंसी उड़ाती है। दासी बोली एक महात्मा भोजन दे गया है। रानी कहने लगी वह भोजन तेरे ही लिए दे गया है तू ही भोजन कर। दासी ने कहा-वह महात्मा हम दोनों को दो थालों में भोजन दे गया है। इसलिए हम और तुम दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी। इस प्रकार रानी और दासी दोनों ने गुरु भगवान् को नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया तथा अब वह प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान् का व्रत और विष्णु पूजन करने लगी। वृहस्पति भगवान् की कृपा से फिर रानी और दासी के पास धन हो गया रानी फिर उस प्रकार आलस्य करने लगी। तब दासी बोली-देखो रानी। तुम पहले इस प्रकार आलस्य करती थी। तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था। इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान् की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है। बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है। इसलिये हमें दान पुण्य करना चाहिए तथा भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो। कुआँ, तालाब, बावड़ी आदि का निर्माण करो। मन्दिर पाठशाला बनवाकर दान दो। कुवांरी कन्याओं का विवाह करवाओ। धन को शुभ धन कर्मों में खर्च करो जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न होवें।
**
तब रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारम्भ किए तो काफी यश फैलने लगा। एक दिन रानी और दासी विचार करने लगी न जाने राजा किस प्रकार से होंगे। उनकी कोई खबर नहीं। गुरु भगवान् से उन्होंने प्रार्थना की और भगवान् ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा- हे राजा ! उठ तेरी रानी तुझको याद करती है। अपने देश को चला जा। राजा प्रातःकाल उठा और विचार करने लगा। स्त्री जाति खाने और पहनने की सङ्गिन होती है पर भगवान् की आज्ञा मानकर वह अपने नगर के लिए चलने को तैयार हुआ इससे पूर्व जब राजा परदेश चला गया तो परदेश में दुखी रहने लगा। प्रतिदिन जंगल में से लकड़ी बीनकर लाता और उन्हें शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता था। एक दिन राजा दुखी हो अपनी पुरानी बातों को याद करके रोने लगा। तब उस जंगल में से वृहस्पति देव एक साधु का रूप धारण कर आ गये और राजा के पास आकर बोले-हे लकड़हारे। तुम इस सुनसान जंगल में किस चिन्ता में बैठे हो। मुझको बतलाओ यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया और साधु को वन्दना कर बोला- हे प्रभो आप ! आप सब कुछ जानने वाले हो। इतना कह साधु को अपनी सम्पूर्ण कहानी बतला दी। महात्मा दयालु होते हैं। उससे बोले- हे राजा ! तुम्हारी स्त्री ने वृहस्पति देव का अपराध किया था। जिस कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। भगवान् तुम्हें पहले से अधिक धनवान करेगा। देखो तुम्हारी स्त्री ने गुरुवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है और तुम मेरा कहा मानकर वृहस्पतिवार को व्रत करके चने की दाल गुड़ जल को लोटे में डाल कर केला का पूजन करो। फिर कथा कहो और सुनो। भगवान् तेरी सब कामनाओं को पूर्ण करेगा। साधु को प्रसन्न देखकर राजा बोला- हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन करने के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी रानी को ब्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर तो मंगा सकूं और फिर मैं कौन सी कहानी कहूं यह मुझको कुछ भी मालूम नहीं है। साधु ने कहा- हे राजा । तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर को जाओ। तुम को रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा। जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पति देव की पूजा का सामान भी आ जावेगा और वृहस्पतिवार की कहानी निम्न प्रकार से है।
**

वृहस्पति देव की कहानी । Brihaspati Dev Ki Kahani Lyrics in Hindi

**
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था। वह बहुत ही निर्धन था। उसके कोई भी सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलिनता के साथ रहती थी। वह स्नान न करती। किसी देवता का पूजन न करती। प्रातः काल उठते ही सर्व प्रथम भोजन करती बाद में कोई अन्य कार्य करती थी। इससे ब्राह्मण देवता बड़े दुखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कोई परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ और वह कन्या अपने पिता के घर में बड़ी होने लगी। वह बालिका प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान् का जाप करने लगी। वृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजा पाठ को समाप्त करके पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। तब ये जौ स्वर्ण के हो जाते लौटते समय उनको बीनकर घर ले आती थी। एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौओं को फटक कर साफ कर रही थी उसकी मां ने देख लिया और कहा-हे बेटी! सोने के जौओं को फटकने के लिये सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन गुरुवार था इस कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पति देव से प्रार्थना करके कहा- हे प्रभो! मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। वृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। प्रतिदिन की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो वृहस्पति देव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजपुत्र वहां होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को जब इस बात का पता लगा तो अपने प्रधान मन्त्रियों के साथ उसके पास गये और बोले- हे बेटा ! तुम्हें किस बात का कष्ट है। किसी ने अपमान किया है अथवा कोई और कारण है सो कहो मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। अपने पिता की राजकुमार ने बातें सुनी तो वह बोला मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है। किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है। परन्तु मैं उस लड़की के साथ विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में जौ को साफ कर रही थी। यह सुन राजा आश्चर्य में पड़ा और बोला- हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ। मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड़की के घर गये और ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।
**
कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गये। बेटी ने पिता की दुखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा? तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुख पूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहाँ गया और सभी हाल कहा तो लड़की बोली-हे पिताजी ! आप माताजी को यहां लिवा लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी। जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी-हे मां! तुम प्रातःकाल उठकर प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान् का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जावेगी। परन्तु उसकी मां ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों का झूठन खा लिया है। एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया और एक रात कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बन्द कर दिया। प्रातःकाल उसमें से निकाला तथा स्नानादि कराके पूजा पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्धि ठीक हो गई और फिर प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसकी माँ भी बहुत ही धनवान तथा पुत्रवती हो गई और वृहस्पति जी के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हुई तथा वह ब्राह्मण भी सुख पूर्वक इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए। इस तरह कहानी कहकर साधु देवता वहाँ से लोप हो गए। 
**
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही वृहस्पतिवार का दिन आया राजा जंगल से लकड़ी काट कर किसी शहर में बेचने गया। उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए। परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण वृहस्पति भगवान् नाराज हो गए। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी की कोई भी मनुष्य अपने घर भोजन न बनावे और न ही आग जलावे। समस्त लोग मेरे यहाँ भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसके लिये फाँसी की सजा दी जायेगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गये। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा। इस लिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गये और ले जाकर भोजन करा रहे थे। तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहाँ पर दिखाई नहीं दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको जेल खाने में डलवा दिया। जब राजा जेलखाने में पड़ गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मेरे लिए दुःख प्राप्त हुआ है। उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल वृहस्पति देव साधु के रूप में प्रगट हो गये और उसकी दशा को देखकर कहने लगे अरे मूर्ख। तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर चार पैसा पड़े मिलेंगे। उनसे तू वृहस्पति देव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। वृहस्पतिवार के दिन उसे चार पैसे मिले। राजा ने कथा कही। उसी रात्रि को वृहस्पति देव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा-हे राजा ! तुमने जिस आदमी को जेलखाने में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है। उसे छोड़ देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका हुआ है। अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह के रात्रि स्वप्न को देख राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हाल देख कर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा को योग्य सुन्दर वस्त्र आभूषण देकर विदा किया तथा गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया। 
**
राजा जब नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बने हुए थे। राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है। तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने दासी से कहा कि हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालात में छोड़ गये थे। वह हमारी ऐसी हालत देख कर लौट न जाय। इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगे यह बताओ कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है। तब उन्होंने कहा हमें यह सब धन वृहस्पति देव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।
**
राजा ने निश्चय किया कि सात दिन बाद तो सभी वृहस्पति देव का पूजन करते हैं। परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता। एक दिन राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोक कर राजा कहने लगा अरे भाइयों। मेरी वृहस्पति की कहानी सुन लो। वे बोले लो हमारा तो आदमी मर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है परन्तु कुछ आदमी बोले अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम राम करके वह मनुष्य खड़ा हो गया।
**
आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देखा और उससे बोला-अरे भइया ! तुम मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा! जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खा कर गिर गए तथा उसके पेट में पहुत जोर से दर्द होने लगा! उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई। उस ने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली मैं तेरी कथा सुनूंगी। तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चल कर कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल खड़े हुए तथा किसान के पेंट का दर्द बन्द हो गया। 
**
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे दिन प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा कि ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो। मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहिन बोली- हे भैया । यह देश ऐसा ही है। पहले यहां लोग भाजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आऊँ। वह ऐसा कहकर देखने चली परन्तु उसे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया किया हो। अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा। वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही। जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया। अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।
**
एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन, हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से पूँछा, सास बोली हाँ चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं होती है। बहन ने अपने भझ्या से कहा हे भइया। मैं तो चलूंगी किन्‍तु कोई बालक नहीं जायेगा। राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा तब तुम ही क्या करोगी? बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा हम निरवन्शी राजा हैं। हमारा मुँह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली- हे प्रभो! वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को वृहस्पति देव ने राजा को स्वप्न में कहा हे राजा, उठ सभी सोच को त्याग दे। तेरी रानी गर्भ से है। राजा को यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला- हे रानी ! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुन कर हाँ कर दिया।
**
जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहाँ आई। तभी रानी ने कहा घोड़ा चढ़कर तो नहीं आई गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली भाई मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती ? वृहस्पति देव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं, सभी को पूर्ण करते हैं। जो सद्भावना पूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है वृहस्पति देव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। भगवान् वृहस्पति देव उनकी सदैव रक्षा करते हैं। संसार में सद्भावना से भगवान् जी का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने उनकी कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पति देव जी ने पूर्ण की इसलिए कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से उनका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए। बोलो बृहस्‍पतिदेव की जय। 
**

आरती वृहस्पति देव की । ॐ जय वृहस्पति देवा । Om Jay Brihaspati Deva | Brihaspati Dev Ki Aarti Lyrics in Hindi & English

**
ॐ जय वृहस्पति देवा 
जय वृहस्पति देवा 
छिन छिन भोग लगाऊँ 
कदली फल मेवा ॥ॐ॥ 
**
तुम पूर्ण परमात्मा 
तुम अन्तर्यामी  
जगत पिता जगदीश्वर 
तुम सबके स्वामी ॥ ॐ ॥ 
**
चरणामृत निज निर्मल 
सब पातक हर्ता  
सकल मनोरथ दायक 
कृपा करो भर्ता ॥ॐ॥ 
**
तन, मन, धन, अर्पणकर 
जो जन शरण पड़े 
प्रभु प्रकट तब होकर 
आकर द्वार खड़े ॥ॐ ॥ 
**
दीन दयाल दयानिधि 
भक्तन हितकारी 
पाप दोष सब हर्ता 
भव बन्धन हारी ॥ॐ॥ 
**
सकल मनोरथ दायक 
सब संशय तारी  
विषय विकार मिटाओ 
सन्तन सुखकारी ॥ॐ॥ 
**
जो कोई आरती तेरी 
प्रेम सहित गावे  
जेष्टानन्द, बंद सो 
सो निश्चय पावे ॥ॐ॥
**
सब बोलो विष्णु भगवान् की जय 
बोलो वृहस्पति देव भगवान् की जय
**

लक्ष्मी जी की आरती । जय लक्ष्मी माता । Lakshmi Ji Ki Aarti | Jay Lakshmi Mata Lyrics in Hindi & English

**
जय लक्ष्मी माता 
जय लक्ष्मी माता  
तुमको निशि दिन सेवत 
हर विष्णु विधाता ॥ जय ॥ 
**
ब्रह्मा कमला तूही 
है जग की माता 
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत 
नारद ऋषि गाता ॥ जय॥ 
**
दुर्गा रूप निरंजन 
सुख सम्पति दाता 
जो कोई तुमको ध्यावत 
ऋद्धि-सिद्धि पाता ॥ जय॥ 
**
तूही पाताल निवासिनी  
तूही है शुभ दाता 
कर्म प्रभाव प्रकाशक 
जग विधि से त्राता॥ जय ॥ 
**
जिस घर थारी बास 
तेही में गुण आता  
कर न सके सोई करले 
मन नहीं धड़काता ॥ जय ॥ 
**
तुम बिन यज्ञ न होवे 
वस्त्र न कोई पाता 
तुम बिन मिले न खाने 
को वैभव गुणगाता ॥ जय॥ 
**
शुभ गुण सुन्दर मुक्ता 
क्षीर निधि जाता 
रतन चतुर्दश तोको 
कोई नहीं पाता ॥ जय॥ 
**
ये आरती लक्ष्मी जी की 
जो कोई गाता 
उर आनन्द अति उमड़े 
पार उतर जाता ॥ जय ॥ 
**
स्थिर चर जगत बचाये 
कर्म प्रख्याता  
राम प्रताप मैया की 
शुभ दृष्टि चाहता ॥ जय ॥ 
**
जय लक्ष्मी माता 
जय लक्ष्मी माता 
तुम को निशि दिन ध्यावत 
हर विष्णु विधाता ॥ जय ॥
**

श्री जगदीश्वरजी की आरती । ॐ जय जगदीश हरे । Om Jay Jagadish Hare | Jagdishwar Ji Ki Aarti | Brihaspativar Ki Aarti

**
ॐ जय जगदीश हरे 
प्रभु जय जगदीश हरे 
भक्तजनों के संकट 
छिन में दूर करे ॥ ॐ॥ 
**
जो ध्यावै फल पावे 
दुख बिनसे मनका  
सुख सम्पति घर आवे 
कष्ट मिटे तनका ॥ ॐ॥ 
**
मात-पिता तुम मेरे 
शरण गहूँ मैं किसकी 
तुम बिन और न दूजा 
आस करूं जिसकी ॥ ॐ॥ 
**
तुम पूरन परमात्मा 
तुम अन्तर्यामी  
पारब्रह्म परमेश्वर 
तुम सबके स्वामी ॥ ॐ ॥ 
**
तुम करुणा के सागर 
तुम पालन कर्ता  
मैं मूरख खल कामी 
कृपा करो भर्ता ॥ ॐ॥ 
**
तुम हो एक अगोचर 
सबके प्राणपती  
किस विधि मिलूं दयामय 
तुमको मैं कुमती ॥ ॐ ॥ 
**
दीनबन्धु दुःख हर्ता 
रक्षक तुम मेरे 
अपने हाथ उठाओ 
द्वार पड़ा तेरे ॥ ॐ॥ 
**
विषय विकार मिटाओ 
पाप हरो देवा  
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ 
संतन की सेवा ॥ ॐ ॥ 
**
तन मन धन 
सब कुछ है तेरा 
तेरा तुझको अर्पण 
क्या लागे मेरा ॥ ॐ ॥ 
**
श्यामसुन्दर जी की आरती 
जो कोई नर गावे  
कहत शिवानंद स्वामी 
सुख सम्पत्ति पावे ॥ ॐ॥
**

शनिवार, 23 नवंबर 2024

Jay Kapi Badvanta | जय कपि बडवंता | श्री कष्टभंजन हनुमानजी की आरती | Shri Kashtbhanjan Hanuman Ji Ki Aarti Lyrics in Hindi and English

Jay Kapi Badvanta | जय कपि बडवंता | श्री कष्टभंजन हनुमानजी की आरती | Shri Kashtbhanjan Hanuman Ji Ki Aarti Lyrics in Hindi and English 

**
**
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
सुर नर मुनिजन वंदित
सुर नर मुनिजन वंदित
पदरज हनुमंता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बलवंता
**
प्रौढ़ प्रताप पवनसुत
त्रिभुवन जयकारी
प्रभु त्रिभुवन जयकारी
असुर रिपू मदगंजन
असुर रिपू मद गंजन
भय संकट हारी
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
सुर नर मुनिजन वंदित
सुर नर मुनिजन वंदित
पदरज हनुमंता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
भूत पिशाच विकट ग्रह
पीड़त नही जम्पे
प्रभु पीड़त नही जम्पे
हनुमंत हाक सुणीने 
हनुमंत हाक सुणीने 
थर थर थर कंपे
प्रभु थर थर थर कंपे
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बलवंता
**
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
सुर नर मुनिजन वंदित
सुर नर मुनिजन वंदित
पदरज हनुमंता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
रघुवीर सहाय ओढंग्यो
सागर अति भारी
प्रभु सागर अति भारी
सीता सोध ले आए
सीता सोध ले आए
कपि लंका जारी
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
सुर नर मुनिजन वंदित
सुर नर मुनिजन वंदित
पदरज हनुमंता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
राम चरण रतिदायक
शरणागत त्राता
प्रभु शरणागत त्राता
प्रेमानंद कहे हनुमत
प्रेमानंद कहे हनुमत
वांछित फल दाता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
सुर नर मुनिजन वंदित
सुर नर मुनिजन वंदित
पदरज हनुमंता
जय कपि बडवंता
प्रभु जय कपि बडवंता
**

Jay Kapi Badvanta | जय कपि बडवंता | श्री कष्टभंजन हनुमानजी की आरती | Shri Kashtbhanjan Hanuman Ji Ki Aarti Lyrics in Hindi and English

**
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
Sur nar munijan vandita
Sur nar munijan vandita
Padaraj hanumantā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi balavantā
**
Prauḍha pratāp pavanasuta
Tribhuvan jayakārī
Prabhu tribhuvan jayakārī
Asur ripū madaganjana
Asur ripū mad ganjana
Bhaya sankaṭ hārī
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
Sur nar munijan vandita
Sur nar munijan vandita
Padaraj hanumantā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Bhūt pishāch vikaṭ graha
Pīḍat nahī jampe
Prabhu pīḍat nahī jampe
Hanumanta hāk suṇīne 
Hanumanta hāk suṇīne 
Thar thar thar kanpe
Prabhu thar thar thar kanpe
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi balavantā
**
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
Sur nar munijan vandita
Sur nar munijan vandita
Padaraj hanumantā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Raghuvīr sahāya oḍhangyo
Sāgar ati bhārī
Prabhu sāgar ati bhārī
Sītā sodh le āe
Sītā sodh le āe
Kapi lankā jārī
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
Sur nar munijan vandita
Sur nar munijan vandita
Padaraj hanumantā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Rām charaṇ ratidāyaka
Sharaṇāgat trātā
Prabhu sharaṇāgat trātā
Premānanda kahe hanumata
Premānanda kahe hanumata
Vāanchhit fal dātā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
Sur nar munijan vandita
Sur nar munijan vandita
Padaraj hanumantā
Jaya kapi baḍavantā
Prabhu jaya kapi baḍavantā
**

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा | Trayodash Pradosh Vrat Katha Sampurna | भगवान शंकर की त्रयोदशी के दिन की जाने वाली कथा सातों दिनों की अलग-अलग कथाओं सहित

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा | Trayodash Pradosh Vrat Katha Sampurna | भगवान शंकर की त्रयोदशी के दिन की जाने वाली कथा सातों दिनों की अलग-अलग कथाओं सहित

**
**

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा की पूजा की विधि | Pradosh (Trayodashi) Vrat Katha Ki Puja Ki Vidhi

**
'प्रदोषो रजनी-मुखम' के अनुसार सायंकाल के बाद और रात्रि आने के पूर्व दोनों के बीच का जो समय है उसे प्रदोष कहते हैं, व्रत करने वाले को उसी समय भगवान शंकर का पूजन करना चाहिये।
**
प्रदोष व्रत करने वाले को त्रयोदशी के दिन, दिनभर भोजन नहीं करना चाहिये। शाम के समय जब सूर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाए तब स्नानादि कर्मों से निवृत्त होकर, श्वेत वस्त्र धारण करके तत्पश्चात् संध्यावन्दन । करने के बाद शिवजी का पूजन प्रारम्भ करें। पूजा के स्थान को स्वच्छ जल से धोकर वहाँ मण्डप बनाएँ, वहाँ पाँच रंगों के पुष्पों से पद्म पुष्प की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछायें, आसन पर पूर्वाभिमुख बैठें। इसके बाद भगवान महेश्वर का ध्यान करें।
**

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा में ध्यान का स्वरूप | Pradosh (Trayodashi) Vrat Katha Me Dhyan Ka Swarup

**
करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिवान, त्रिनेत्रधारी, मस्तक पर चन्द्रमा का आभूषण धारण करने वाले पिंगलवर्ण के जटाजूटधारी, नीले कण्ठ तथा अनेक रूद्राक्ष मालाओं से सुशोभित, वरदहस्त, त्रिशूलधारी, नागों के कुण्डल पहने, व्याघ्र चर्म धारण किए हुए, रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान शिवजी का ध्यान करना चाहिये।
**

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा की व्रत के उद्यापन की विधि | Pradosh (Trayodashi) Vrat Katha Ke Udyapan Ki Vidhi

**
प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनावें। फिर उस मण्डप में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजन करें। तदन्तर शिव पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए। हवन करते समय 'ॐ उमा सहित-शिवाय नमः' मन्त्र से १०८ बार आहुति देनी चाहिये। इसी प्रकार 'ॐ नमः शिवाय' के उच्चारण के शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करें। हवन के अन्त में किसी धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिये। ऐसा करने के बाद ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिये। व्रत पूर्ण हो ऐसा वाक्य ब्राह्मणों द्वारा कहलवाना चाहिये। ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर अपने बन्धु-बान्धवों की साथ में लेकर मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिये। इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र-पौत्रादि से युक्त होता है तथा आरोग्य लाभ करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है एवं सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा स्कन्द पुराण में कहा गया है।
**

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा अथवा त्रयोदशी व्रत महात्म्य | Pradosh (Trayodashi) Vrat Katha athwa Trayodashi Vrat Mahatmya

**
त्रयोदशी अर्थात् प्रदोष का व्रत करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है। उसके सम्पूर्ण पापों का नाश इस व्रत से हो जाता है। इस व्रत के करने से विधवा स्त्रियों को अधर्म से ग्लानि होती है और सुहागन नारियों का सुहाग सदा अटल रहता है, बन्दी कारागार से छूट जाता है। जो स्त्री पुरुष जिस कामना को लेकर इस व्रत को करते हैं, उनकी सभी कामनाएँ कैलाशपति शंकर पूरी करते हैं। सूत जी कहते हैं - त्रयोदशी का व्रत करने वाले को सौ गऊ दान का फल प्राप्त होता है। इस व्रत को जो विधि विधान और तन, मन, धन से करता है उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। सभी माता-बहनों को ग्यारह त्रयोदशी या पूरे साल की २६ त्रयोदशी पूरी करने के बाद उद्यापन करना चाहिये।
**

प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा में वार परिचय | Pradosh (Trayodashi) Vrat Katha Me Var Parichaya

**
१. रवि प्रदोष- दीर्घ आयु और आरोग्यता के लिये रवि प्रदोष व्रत करना चाहिये।
**
२. सोम प्रदोष - ग्रह दशा निवारण कामना हेतु सोम प्रदोष व्रत करें।
**
३. मंगल प्रदोष- रोगों से मुक्ति और स्वास्थ्य हेतु मंगल प्रदोष व्रत करें।
**
४. बुध प्रदोष - सर्व कामना सिद्धि के लिये बुध प्रदोष व्रत करें।
**
५. बृहस्पति प्रदोष - शत्रु विनाश के लिये बृहस्पति प्रदोष व्रत करें।
**
६. शुक्र प्रदोष - सौभाग्य और स्त्री की समृद्धि के लिये शुक्र प्रदोष व्रत करें। 
**
७. शनि प्रदोष - खोया हुआ राज्य व पद प्राप्ति कामना हेतु शनि प्रदोष व्रत करें।
**
नोट : त्रयोदशी के दिन जो वार पड़ता हो उसी का (त्रयोदशी प्रदोष व्रत) करना चाहिये। तथा उसी दिन की कथा पढ़नी व सुननी चाहिये। रवि, सोम, शनि (त्रयोदशी प्रदोष व्रत) अवश्य करें। इन सभी से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
**
रविवार त्रयोदशी (रवि प्रदोष) व्रत की कथा | Ravivar Trayodashi (Ravi Pradosh) Vrat Ki Katha
**
आयु वृद्धि आरोग्यता, या चाहो सन्तान। 
शिव पूजन विधिवत् करो, दुःख हरें भगवान ॥
**
एक समय सर्व प्राणियों के हितार्थ परम पावन भागीरथी के तट पर ऋषि समाज द्वारा विशाल गोष्ठी का आयोजन किया गया। विज्ञ महर्षियों की एकत्रित सभा में व्यास जी के परम शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। सूत जी को देखते ही शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों ने खड़े होकर दंडवत् प्रणाम किया। महाज्ञानी सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषियों को हृदय से लगाया तथा आशीर्वाद दिया। विद्वान ऋषिगण और सब शिष्य आसनों पर विराजमान हो गये।
**
मुनिगण विनीत भाव से पूछने लगे कि हे परम दयालु ! कलिकाल में शंकर की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी, हम लोगों को बताने की कृपा कीजिए, क्योंकि कलयुग के सर्व प्राणी पाप कर्म में रत रहकर वेद शास्त्रों से विमुख रहेंगे। दीनजन अनेकों संकटों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ ! कलिकाल में सत्कर्म की ओर किसी की रुचि न होगी। जब पुण्य क्षीण हो जायेंगे तो मनुष्य की बुद्धि असत् कर्मों की ओर खुद ब खुद प्रेरित होगी जिससे दुर्विचारी पुरुष वंश सहित समाप्त हो जायेंगे। इस अखिल भूमण्डल पर जो मनुष्य ज्ञानी होकर ज्ञान की शिक्षा नहीं देता, उस पर परमपिता परमेश्वर कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। हे महामुने ! ऐसा कौन सा उत्तम व्रत है जिससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती हो, आप कृपा कर बतलाइये। ऐसा सुनकर दयालु हृदय, श्री सूत जी कहने लगे - कि हे श्रेष्ठ मुनियों तथा शौनक जी आप धन्यवाद के पात्र हैं। आपके विचार सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आप वैष्णव अग्रगण्य हैं क्योंकि आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, इसलिए हे शौनकादि ऋषियों, सुनो - मैं उस व्रत को तुमसे कहता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। धन, वृद्धिकारक, दुःख विनाशक, सुख प्राप्त कराने वाला, सन्तान देने वाला, मनवांछित फल प्राप्ति कराने वाला यह व्रत तुमको सुनाता हूँ जो किसी समय भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था और उनसे प्राप्त यह परमश्रेष्ठ उपदेश मेरे पूज्य गुरु जी ने मुझे सुनाया था। जिसे आपको समय पाकर शुभ बेला में मैं सुनाता हूँ। बोलोउमापति शंकर भगवान की जय।
**
सूत जी कहने लगे कि आयु, वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ हेतु त्रयोदशी का व्रत करें। इसकी विधि इस प्रकार है- प्रातः स्नान कर निराहार रहकर, शिव ध्यान में मग्न हो, शिव मन्दिर में जाकर शंकर की पूजा करें। पूजा के पश्चात् अर्द्ध पुण्ड त्रिपुण्ड का तिलक धारण करें, बेल पत्र चढ़ावें, धूप, दीप अक्षत से पूजा करें, ऋतु फल चढ़ावे "ॐ नमः शिवाय" मन्त्र का रुद्राक्ष की माला से जप करें, ब्राह्मण को भोजन करा सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा दें। तत्पश्चात् मौन व्रत धारण करें, व्रती को सत्य भाषण करना आवश्यक है, हवन आहुति भी देनी चाहिये। मन्त्र -"ओं ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा" से आहुति देनी चाहिये। इससे 44 अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। व्रती पृथ्वी पर शयन करें, एक बार भोजन करे इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में तो इसका विशेष महत्व है। यह सर्वसुख धन, आरोग्यता देने वाला है, यह व्रत इस सब मनोरथों को पूर्ण करता है। हे ऋषिवरों! यह प्रदोष व्रत जो मैंने आपको बताया किसी समय शंकर जी ने सती जी को और वेदव्यास मुनि ने मुझको सुनाया था।
**
शौनकादि ऋषि बोले- हे पूज्यवर महामते ! आपने यह व्रत परम गोपनीय मंगलप्रद, कष्ट निवारक बतलाया है ! कृपया यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत किसने किया और उसे क्या फल प्राप्त हुआ ?
**
श्री सूत जी बोले- हे विचारवान् ज्ञानियों! आप शिव के परम भक्त हैं, आपकी भक्ति देखकर मैं व्रती पुरुषों की कथा कहता हूँ।
**
एक गाँव में अति दीन ब्राह्मण निवास करता था। उसकी साध्वी स्त्री प्रदोष व्रत किया करती थी, उसके घर ही पुत्र रत्न था। एक समय की बात है कि वह पुत्र गंगा स्नान करने के लिये गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में चोरों ने उसे घेर लिया और वह कहने लगे कि हम तुझे मारेंगे, नहीं तो तू अपने पिता का गुप्त धन बतलादे। बालक दीन भाव से कहने लगा कि हे बन्धुओं! हम अत्यन्त दुःखी दीन हैं। हमारे पास धन कहाँ है? चोर फिर कहने लगे कि तेरे पास पोटली में क्या बंधा है? बालक ने निःसंकोच उत्तर दिया कि मेरी माता ने मुझे रोटी बनाकर बाँध दी है। दूसरा चोर बोला कि भाई यह तो अति दीन दुःखी हृदय है, इसे छोड़िये। बालक इतनी बात सुनकर वहाँ से प्रस्थान करने लगा और एक नगर में पहुँचा। नगर के पास एक बरगद का पेड़ था, बालक थककर वहाँ बैठ गया और वृक्ष की छाया में सो गया, उस नगर के सिपाही चोरों की खोज कर रहे थे कि खोज करते-करते उस बालक के पास आ गये, सिपाही बालक को भी चोर समझकर राजा के समीप ले गये। राजा ने उसे कारावास की आज्ञा दे दी। उधर बालक की माँ भगवान शंकर जी का प्रदोष व्रत कर रही थी, उसी रात्रि राजा को स्वप्न हुआ कि यह बालक चोर नहीं है, प्रातः काल ही छोड़ दो नहीं तो आपका राज्य-वैभव सब शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। रात्रि समाप्त होने पर राजा ने उस बालक से सारा वृतान्त पूछा, बालक ने सारा वृतान्त कह सुनाया। वृतान्त सुनकर राजा ने सिपाही भेजकर बालक के माता-पिता को पकड़वाकर बुला लिया। राजा ने उन्हें जब भयभीत देखा तो कहा कि तुम भय मत करो, तुम्हारा बालक निर्दोष है। हम तुम्हारी दरिद्रता देखकर पाँच गाँव दान में देते हैं। शिव की दया से ब्राह्मण परिवार अब आनन्द से रहने लगा। इस प्रकार जो कोई इस व्रत को करता है, उसे आनन्द प्राप्त होता है। शौनकादि ऋषि बोले- कि हे दयालु कृपा करके अब आप सोम त्रयोदशी प्रदोष का व्रत सुनाइये ।
**
सोमवार त्रयोदशी (सौम्य प्रदोष अथवा सोम प्रदोष) व्रत की कथा | Somvar Trayodashi (Som Pradosh / Saumya Pradosh) Vrat Ki Katha 
**
सूत जी बोले- हे ऋषिवरों! अब मैं सोम त्रयोदशी व्रत का महात्म्य वर्णन करता हूँ। इस व्रत के करने से शिव पार्वती प्रसन्न होते हैं। प्रातः स्नानादि कर शुद्ध पवित्र हो शिव पार्वती का ध्यान करके पूजन करें और अर्घ्य दें। "ओ३म् नमः शिवाय" इस मन्त्र का १०८ बार जाप करें फिर स्तुति करें- हे प्रभो! मैं इस दुःख सागर में गोते खाता हुआ ऋण भार से दबा, ग्रहदशा से ग्रसित हूँ, हे दयालु ! मेरी रक्षा कीजिए।
**
शौनकादि ऋषि बोले - हे पूज्यवर महामते, आपने यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं के लिए बताया है, अब कृपा कर यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत किसने किया व क्या फल पाया ?
**
सूत जी बोले - एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके पति का स्वर्गवास हो गया था। कोई भी उसका धीर धेरैया न था। इसलिए वह सुबह होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख माँगने निकल जाती और जो भिक्षा मिलती उसी से वह अपना अपने पुत्र का पेट भरती थी।
**
एक दिन ब्राह्मणी भीख माँग कर लौट रही थी तो उसे एक लड़का मिला, उसकी दशा बहुत खराब थी। ब्राह्मणी को उस पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ घर ले आई।
**
वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था। पड़ौसी राजा ने उसके पिता पर आक्रमण करके उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था। इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा। था। ब्राह्मणी के घर पर वह ब्राह्मण कुमार के साथ रहकर पलने लगा। एक दिन ब्राह्मण कुमार और राजकुमार खेल रहे थे। उन्हें वहाँ गन्धर्व कन्याओं ने देख लिया। वे राजकुमार पर मोहित हो गई। ब्राह्मण कुमार तो घर लौट आया लेकिन राजकुमार अंशुमति नामक गन्धर्व कन्या से बात करता रह गया। दूसरे दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने के लिए ले आई। उनको भी राजकुमार पसन्द आया। कुछ ही दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि वे अपनी कन्या का विवाह राजकुमार से कर दें। फलतः उन्होंने अंशुमति का विवाह राजकुमार से कर दिया।
**
ब्राह्मणी को ऋषियों ने आज्ञा दे रखी थी कि वह सदा प्रदोष व्रत करती रहे। उसके व्रत के प्रभाव और गन्धर्वराज की सेनाओं की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को मार भगाया और अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगा। राजकुमार ने ब्राह्मण कुमार को अपना प्रधानमंत्री बनाया।
**
राजकुमार और ब्राह्मण कुमार के दिन जिस प्रकार ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत की कृपा से फिरे, उसी प्रकार शंकर भगवान अपने दूसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं। तभी से प्रदोष-व्रत का संसार में बड़ा महत्त्व है। शौनक ऋषि सूत जी से बोले - कृपा करके अब आप मंगल प्रदोष की कथा का वर्णन कीजियेगा।
**
मंगलवार त्रयोदशी (मंगल प्रदोष) व्रत की कथा | Mangalvar Trayodashi (Mangal Pradosh / Bhaum Pradosh) Vrat Ki Katha
**
सूत जी बोले- अब मैं मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत का विधि विधान कहता हूँ। मंगलवार का दिन व्याधियों का नाशक है। इस व्रत में एक समय व्रती को गेहूँ और गुड़ का भोजन करना चाहिये। देव प्रतिमा पर लाल रंग का फूल चढ़ाना और स्वयं लाल वस्त्र धारण करना चाहिये। इस व्रत के करने से मनुष्य सभी पापों व रोगों से मुक्त हो जाता है इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है। अब मैं आपको उस बुढ़िया की कथा सुनाता हूँ जिसने यह व्रत किया व मोक्ष को प्राप्त हुई।
**
अत्यन्त प्राचीन काल की घटना है। एक नगर में एक बुढ़िया रहती थी। उसके मंगलिया नाम का एक पुत्र था। वृद्धा को हनुमान जी पर बड़ी श्रद्धा थी। वह प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी का व्रत रखकर यथाविधि उनका भोग लगाती थी। इसके अलावा मंगलवार को न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी।
**
इसी प्रकार से व्रत रखते हुए जब उसे काफी दिन बीत गए तो हनुमान जी ने सोचा कि चलो आज इस वृद्धा की श्रद्धा की परीक्षा करें। वे साधु का वेष बनाकर उसके द्वार पर जा पहुँचे और पुकारा "है कोई हनुमान का भक्त जो हमारी इच्छा पूरी करे।" वृद्धा ने यह पुकार सुनी तो बाहर आई और पूछा कि महाराज क्या आज्ञा है? साधु वेषधारी हनुमान जी बोले कि 'मैं बहुत भूखा हूँ। भोजन करूँगा। तू थोड़ी सी जमीन लीप दे।' वृद्धा बड़ी दुविधा में पड़ गई। अन्त में हाथ जोड़कर प्रार्थना की- हे महाराज ! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त जो काम आप कहें वह मैं करने को तैयार हूँ।
**
साधु ने तीन बार परीक्षा कराने के बाद कहा- "तू अपने बेटे को बुला मैं उसे औंधा लिटाकर, उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊँगा।" वृद्धा ने सुना तो पैरों तले की धरती खिसक गई, मगर वह वचन हार चुकी थी। उसने मंगलिया को पुकार कर साधु महाराज के हवाले कर दिया। मगर साधु ऐसे ही मानने वाले न थे। उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को ओंधा लिटाकर उसकी पीठ पर आग जलवाई।'
**
आग जलाकर, दुःखी मन से वृद्धा अपने घर के अन्दर जा घुसी। साधु जब भोजन बना चुका तो उसने वृद्धा को बुला कर कहा कि वह मंगलिया को पुकारे ताकि वह भी आकर भोग लगा ले। वृद्धा आँखों में आँसू भरकर कहने लगी कि अब उसका नाम लेकर मेरे हृदय को और न दुःखाओ, लेकिन साधु महाराज न माने तो वृद्धा को भोजन के लिए मंगलिया को पुकारना पड़ा। पुकारने की देर थी कि मंगलिया बाहर से हँसता हुआ घर में दौड़ा आया। मंगलिया को जीता जागता । देखकर वृद्धा को सुखद आश्चर्य हुआ। वह साधु महाराज के चरणों में गिर पड़ी। साधु महाराज ने उसे अपने असली रूप के दर्शन दिए। हनुमान जी को अपने आँगन में देखकर वृद्धा को लगा कि जीवन सफल हो गया। सूत जी बोले- हे ऋषियों अब मैं आपको बुध त्रयोदशी प्रदोष की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ।
**

बुधवार त्रयोदशी (बुध प्रदोष) व्रत की कथा | Budhvar Trayodashi (Budh Pradosh) Vrat Ki Katha

**
१ . इस व्रत में दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिये।
**
२. इसमें हरी वस्तुओं का प्रयोग किया जाना जरूरी है।
**
३. यह व्रत शंकर भगवान का प्रिय व्रत है। शंकर जी की पूजा धूप, बेल पत्रादि से की जाती है।
**
प्राचीन काल की कथा है, एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ था। वह गौने के बाद दूसरी बार पत्नी को लिवाने के लिए अपनी ससुराल पहुँचा और उसने सास से कहा कि बुधवार के दिन ही पत्नी को लेकर अपने नगर जायेगा ।।
**
उस पुरुष के सास-ससुर ने, साले-सालियों ने उसको समझाया कि बुधवार को पत्नी को विदा कराकर ले जाना शुभ नहीं है, लेकिन वह पुरुष अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ। विवश होकर सास-ससुर को अपने जमाता और पुत्री को भारी मन से विदा करना पड़ा।
**
पति-पत्नी बैलगाड़ी में चले जा रहे थे। एक नगर के बाहर निकलते ही पत्नी को प्यास लगी। पति लोटा लेकर पत्नी के लिए पानी लेने गया। जब वह पानी लेकर लौटा तो उसके क्रोध और आश्चर्य की सीमा न रही, क्योंकि उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के लाये लोटे में से पानी पीकर हँस-हँसकर बतिया रही थी। क्रोध में आग-बबूला होकर वह उस आदमी से झगड़ा करने लगा। मगर यह देखकर आश्चर्य की सीमा न रही कि उस पुरुष की शक्ल उस आदमी से हूबहू मिलती थी।
**
हम शक्ल आदमियों को झगड़ते हुए जब काफी देर हो गई तो वहाँ आने- जाने वालों की भीड़ एकत्र हो गई, सिपाही भी आ गया। सिपाही ने स्त्री से पूछा कि इन दोनों में से कौन सा आदमी तेरा पति है, तो वह बेचारी असमंजस में पड़ गई, क्योंकि दोनों की शक्ल एक-दूसरे से बिल्कुल मिलती थी। 
**
बीच राह में अपनी पत्नी को इस तरह लुटा देखकर उस पुरुष की आँख भर आई। वह शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, कि हे भगवान आप मेरी और मेरी पत्नी की रक्षा करो। मुझसे बड़ी भूल हुई जो मैं बुधवार को पत्नी को विदा करा लाया। भविष्य में ऐसा अपराध कदापि नहीं करूँगा।
**
उसकी वह प्रार्थना जैसे ही पूरी हुई कि दूसरा पुरुष अर्न्तध्यान हो गया और वह पुरुष सकुशल अपनी पत्नी के साथ अपने घर पहुँच गया। उस दिन के बाद पति-पत्नी नियमपूर्वक बुधवार प्रदोष व्रत रखने लगे।
**

बृहस्पतिवार त्रयोदशी (गुरु प्रदोष) व्रत की कथा | Brihaspativar Trayodashi (Guru Pradosh) Vrat Ki Katha

**
शत्रु विनाशक भक्ति प्रिय, व्रत है यह अति श्रेष्ठ। 
बार मास तिथि सब से भी, है यह व्रत अति जेष्ठ ॥
**
कथा इस प्रकार है कि एक बार इन्द्र और वृत्रासुर में घनघोर युद्ध हुआ। उस समय देवताओं ने दैत्य सेना पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर दी। अपना विनाश देख वृत्रासुर अत्यंत क्रोधित हो स्वयं युद्ध के लिये उद्यत हुआ। मायावी आसुर ने आसुरी माया से भयंकर विकराल रूप धारण किया। उसके स्वरूप को देख इन्द्रादिक सब देवताओं ने इन्द्र के परामर्श से परम गुरु बृहस्पति जी का आवाह्न किया, गुरु तत्काल आकर कहने लगे - हे देवेन्द्र ! अब तुम वृत्रासुर की कथा ध्यान मग्न होकर सुनो - वृत्रासुर प्रथम बड़ा तपस्वी कर्मनिष्ठ था, इसने गन्धमादन पर्वत पर उग्र तप करके शिवजी को प्रसन्न किया था। पूर्व समय में यह चित्ररथ नाम का राजा था, तुम्हारे समीपस्थ जो सुरम्य वन है वह इसी का राज्य था, अब साधु प्रवृत्ति विचारवान् महात्मा उस वन में आनन्द लेते हैं। भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है। एक समय चित्ररथ स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर चला गया। भगवान का स्वरूप और वाम अंग में जगदम्बा को विराजमान देख चित्ररथ हँसा और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोला- हे प्रभो! हम माया मोहित हो विषयों में फँसे रहने के कारण स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं किन्तु देव लोक में ऐसा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि कोई स्त्री सहित सभा में बैठे। चित्ररथ के ये वचन सुनकर सर्वव्यापी भगवान शिव हँसकर बोले कि हे राजन् ! मेरा व्यवहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता काल कूट महाविष का पान किया है।
**
फिर भी तुम साधारण जनों की भाँति मेरी हँसी उड़ाते हो। तभी पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ की ओर देखती हुई कहने लगी- ओ दुष्ट तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ ही मेरी हँसी उड़ाई है, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। उपस्थित सभासद महान विशुद्ध प्रकृति के शास्त्र तत्वान्वेषी हैं, और सनक सनन्दन सनत्कुमार हैं, ये सर्व अज्ञान के नष्ट हो जाने पर शिव भक्ति में तत्पर हैं, अरे मूर्खराज ! तू अति चतुर है अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूँगी कि फिर तू ऐसे संतों के मजाक का दुःसाहस ही न करेगा। अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, तुझे मैं शाप देती हूँ कि अभी पृथ्वी पर चला जा। जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को ये शाप दिया तो वह तत्क्षण विमान से गिरकर, राक्षस योनि को प्राप्त हो गया और प्रख्यात महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। तवष्टा नामक ऋषि ने उसे श्रेष्ठ तप से उत्पन्न किया और अब वही वृत्रासुर शिव भक्ति में ब्रह्मचर्य से रहा। इस कारण तुम उसे जीत नहीं सकते, अतएव मेरे परामर्श से यह प्रदोष व्रत करो जिससे महाबलशाली दैत्य पर विजय प्राप्त कर सको। गुरुदेव के वचनों को सुनकर सब देवता प्रसन्न हुए और गुरुवार त्रयोदशी (प्रदोष) व्रत को विधि विधान से किया। 
**

शुक्रवार त्रयोदशी (शुक्र प्रदोष) व्रत कथा | Shukravar Trayodashi (Shukra Pradosh) Vrat Ki Katha

**
शुक्रवार त्रयोदशी प्रदोष व्रत पूजा विधि सोम प्रदोष के समान ही है इसमें श्वेत रंग तथा खीर जैसे पदार्थ ही सेवन करने का महत्व होता है।
**
सूत जी बोले - प्राचीन काल की बात है एक नगर में तीन मित्र रहते थे, तीनों में ही घनिष्ट मित्रता थी। उनमें एक राजकुमार पुत्र, दूसरा ब्राह्मण पुत्र, तीसरा सेठ, पुत्र था। राजकुमार व ब्राह्मण पुत्र का विवाह हो चुका था सेठ पुत्र का विवाह के बाद गौना नहीं हुआ था।
**
एक दिन तीनों मित्र आपस में स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे। ब्राह्मण पुत्र ने नारियों की प्रशंसा करते हुए कहा- "नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।" सेठ पुत्र ने यह वचन सुनकर अपनी पत्नी लाने का तुरन्त निश्चय किया। सेठ पुत्र अपने घर गया और अपने माता-पिता से अपना निश्चय बताया। उन्होंने बेटे से कहा कि शुक्र देवता डूबे हुए हैं। इन दिनों बहु-बेटियों को उनके घर से विदा कर लाना शुभ नहीं, अतः शुक्रोदय के बाद तुम अपनी पत्नी को विदा करा लाना। सेठ पुत्र अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ और अपनी ससुराल जा पहुँचा। सास-ससुर को उसके इरादे का पता चला। उन्होंने इसको समझाने की कोशिश की किन्तु वह नहीं माना। अतः उन्हें विवश हो अपनी कन्या को विदा करना पड़ा। ससुराल से विदा होकर पति-पत्नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया टूट गया और एक बैल की टाँग टूट गयी। पत्नी को भी काफी चोट आई। सेठ पुत्र ने आगे चलने का प्रयत्न जारी रखा तभी डाकुओं से भेंट हो गई और वे धन-धान्य लूटकर ले गये। सेठ का पुत्र पत्नी सहित रोता पीटता अपने घर पहुँचा। जाते ही उसे साँप ने डस लिया। उसके पिता ने वैद्यों को बुलाया। उन्होंने देखने के बाद घोषणा की कि आपका पुत्र तीन दिन में मर जाएगा।
**
उसी समय इस घटना का पता ब्राह्मण पुत्र को लगा। उसने सेठ से कहा कि आप अपने लड़के को पत्नी सहित बहू के घर वापस भेज दो। यह सारी बाधाएँ इसलिए आयी हैं कि आपका पुत्र शुक्रास्त में पत्नी को विदा करा लाया है, यदि यह वहाँ पहुँच जायेगा तो बच जाएगा। सेठ को ब्राह्मण पुत्र की बात जंच गई और अपनी पुत्रवधु और पुत्र को वापिस लौटा दिया। वहाँ पहुँचते ही सेठ पुत्र की हालत ठीक होनी आरम्भ हो गई। तत्पश्चात उन्होंने शेष जीवन सुख आनन्दपूर्वक व्यतीत किया और अन्त में वह पति-पत्नी दोनों स्वर्ग लोक को गये।
**
शनिवार त्रयोदशी (शनि प्रदोष) व्रत की कथा | Shanivar Trayodashi (Shani Pradosh) Vrat Ki Katha 
**
गर्गाचार्य जी ने कहा- हे महामते! आपने शिव शंकर प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया अब हम शनि प्रदोष विधि सुनने की इच्छा रखते हैं, सो कृपा करके सुनाइये। तब सूत जी बोले- हे ऋषि ! निश्चयात्मक रूप से आपका शिव-पार्वती के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, मैं आपको शनि त्रयोदशी के व्रत की विधि बतलाता हूँ, सो ध्यान से सुनें।
**
पुरातन कथा है कि एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने ! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ दुःख निवारण। का उपाय बतलाइये। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है अतः हम दरिद्री हैं, आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा। तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय पश्चात् प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया। छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया, प्रसन्न हो माता से कहा कि माँ! यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया। राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है। अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा- आधा बाँट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला - पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ। मुझे शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूँगा। इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाईयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ, वहाँ उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा, उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुँचा। वहाँ एक स्त्री अति सुन्दरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुँचकर कहने लगी कि हे सखियों! इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहाँ जाकर देखो भाँति-भाँति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहाँ बैठी हूँ, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है। ये सुन सब सखियाँ दूसरे वन में चली गयीं। वह अकेली सुन्दर राजकुमार की ओर देखती रही। इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहाँ रहते हैं? वन में कैसे पधारे? किस राजा के पुत्र हैं? क्या नाम है ? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूँ, आप अपना परिचय दें। युवती बोली - मैं बिद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमति है मैंने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं, विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है। युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे ! मैंने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूँ। राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गन्धर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूँ वैसा ही करूँगी, अब आप अपने घर जायें। इतना कहकर वह गन्धर्व कन्या सखियों से जा मिली। घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया।
**
जब तीसरा दिन आया वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुँचा, वही गन्धर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुँचा। इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था वहाँ शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्व राज ! तुम उसकी सहायता करो, मैं महादेव जी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूँ। आप इसका निर्वाह करें, मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूँगा। इस प्रकार गन्धर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया। विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ। भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा।
**

शिवजी की बड़ी आरती | Shiv Ji Ki Badi Aarti Lyrics in Hindi 

**
जै शिव ओंकारा 
हो शिव पार्वती प्यारा 
हो शिव ऊपर जल धारा  
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव 
अर्द्धाङ्गी धारा  
ॐ हर हर हर महादेव
**
एकानन चतुरानन 
पञ्चानन राजै 
हंसानन गरुड़ासन 
वृषवाहन साजै  
ॐ हर हर हर महादेव
**
दोय भुज चार चतुर्भुज 
दशभुज ते सौहे 
तीनों रूप निरखता 
त्रिभुवन मन मोहे  
ॐ हर हर हर महादेव
**
अक्षमाला वनमाला 
मुण्डमाला धारी 
चन्दन मृगमद सोहे 
भाले शशिधारी 
ॐ हर हर हर महादेव
**
श्वेताम्बर पीताम्बर 
बाघम्बर अङ्गे 
सनकादिक ब्रह्मादिक 
मुनि आदिक सङ्गे 
ॐ हर हर हर महादेव
**
करमध्ये कमण्डल 
चक्र त्रिशूल धरता
दुख हर्त्ता सुख कर्त्ता 
जग पालन करता  
ॐ हर हर हर महादेव
**
शिवजी के हाथों में कंगन 
कानन में कुण्डल 
गल मोतियन माला 
ॐ हर हर हर महादेव
**
जटा में गङ्गा विराजै 
मस्तक में चन्दा साजै 
ओढ़त मृगछाला  
ॐ हर हर हर महादेव
**
चौसठ योगिनी 
मंगल गावत 
नृत्य करत भैरू 
बाजत ताल मृदंगा 
अरु बाजत डमरू 
ॐ हर हर हर महादेव
**
सच्चिदानन्द स्वरूपा 
त्रिभुवन के राजा
चारों वेद उचारत, 
अनहद के दाता  
ॐ हर हर हर महादेव
**
सावित्री भावत्री 
पार्वती अङ्गी
अर्धङ्गी प्रियरङ्गी 
शिव गौरा सङ्गी 
ॐ हर हर हर महादेव
**
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव 
जानत अविवेका
प्रणव अक्षर दोऊ मध्य 
ये तीनों एका 
ॐ हर हर हर महादेव
**
पार्वती पर्वत में विराजै 
शंकर कैलाशा
आक धतूरे का भोजन 
भस्मि में वासा 
ॐ हर हर हर महादेव
**
श्री काशी में विश्वनाथ विराजै 
नन्दा ब्रह्मचारी
नित उठ दर्शन पावै 
महिमा अति भारी 
ॐ हर हर हर महादेव
**
शिवजी की आरती 
जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी 
मन वांछित फल पावे 
ॐ हर हर हर महादेव
**

शिवजी की आरती || Shri Shiv Ji Ki Aarti Lyrics in Hindi

**
जै शिव ओंकारा 
हर शिव ओंकारा 
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव 
अर्द्धाङ्गी धारा  
**
एकानन चतुरानन 
पंचानन राजै 
हंसानन गरुड़ासन 
वृषवाहन साजै  
**
दो भुज चार चतुर्भुज 
दसभुज ते सोहै 
तीनों रूप निरखता 
त्रिभुवन जन मोहै 
**
अक्षमाला वनमाला 
मुण्डमाला धारी  
चन्दन मृगमद सोहै 
भाले शशि धारी  
**
श्वेताम्बर पीताम्बर 
बाघम्बर अंगे 
सनकादिक ब्रह्मादिक 
भूतादिक संगे  
**
कर में श्रेष्ठ कमण्डलु 
चक्र त्रिशूलधर्ता 
जगकर्ता जगहर्ता 
जगपालन करता 
**
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव 
जानत अविवेका 
प्रणुवाक्षर के मध्ये 
यह तीनों एका  
**
त्रिगुण शिव की आरती 
जो कोई नर गावे 
कहत शिवानन्द स्वामी 
मनवांछित फल पावे 
**