गुरुवार, 11 नवंबर 2010

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा || Shri Durga Navratri Vrat Katha ||

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा || Shri Durga Navratri Vrat Katha ||



इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गा जी का ध्यान करके यह कथा पढ़नी चाहिए। कन्याओं के लिए यह व्रत विशेष फलदायक है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विघ्न दूर होते हैं। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा ही जय हो’ का उच्चारण करें।

कथा प्रारम्भ

बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण। आप अत्यन्त बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में श्रेष्ठ हो। हे प्रभु! कृपा कर मेरा वचन सुनो। चैत्र, आश्विन और आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? हे भगवान! इस व्रत का फल क्या है? किस प्रकार करना उचित है? और पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहो?

बृहस्पति जी का ऐसा प्रश्न सुनकर ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे बृहस्पते! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं, यह नवरात्र व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र चाहने वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या और सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है और कारागार हुआ मनुष्य बन्धन से छूट जाता है। मनुष्य की तमाम आपत्तियां दूर हो जाती हैं और उसके घर में सम्पूर्ण सम्पत्तियां आकर उपस्थित हो जाती हैं। बन्ध्या और काक बन्ध्या को इस व्रत के करने से पुत्र उत्पन्न होता है। समस्त पापों को दूूर करने वाले इस व्रत के करने से ऐसा कौन सा मनोबल है जो सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य अलभ्य मनुष्य देह को पाकर भी नवरात्र का व्रत नहीं करता वह माता-पिता से हीन हो जाता है अर्थात् उसके माता-पिता मर जाते हैं और अनेक दुखों को भोगता है। उसके शरीर में कुष्ठ हो जाता है और अंग से हीन हो जाता है उसके सन्तानोत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार वह मूर्ख अनेक दुख भोगता है। इस व्रत को न करने वला निर्दयी मनुष्य धन और धान्य से रहित हो, भूख और प्यास के मारे पृथ्वी पर घूमता है और गूंगा हो जाता है। जो विधवा स्त्री भूल से इस व्रत को नहीं करतीं वह पति हीन होकर नाना प्रकार के दुखों को भोगती हैं। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन बान्धवों सहित नवरात्र व्रत की कथा करे।

हे बृहस्पते! जिसने पहले इस व्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूं। तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी का वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण! मनुष्यों का कल्याण करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहो मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण में आए हुए मुझ पर कृपा करो।

ब्रह्मा जी बोले- पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सम्पूर्ण सद्गुणों से युक्त मनो ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो ऐसी यथार्थ नाम वाली सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री उत्पन्न हुई। वह कन्या सुमति अपने घर के बालकपन में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम करता था। उस समय वह भी नियम से वहां उपस्थित होती थी। एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ठी और दरिद्री मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा। 

इस प्रकार कुपित पिता के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुख हुआ और पिता से कहने लगी कि हे पिताजी! मैं आपकी कन्या हूं। मैं आपके सब तरह से आधीन हूं। जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। राजा कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो पर होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है मेरा तो इस पर पूर्ण विश्वास है।

मनुष्य जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है पर होता वही है जो भाग्य में विधाता ने लिखा है जो जैसा करता है उसको फल भी उस कर्म के अनुसार मिलता है, क्यों कि कर्म करना मनुष्य के आधीन है। पर फल दैव के आधीन है। जैसे अग्नि में पड़े तृणाति अग्नि को अधिक प्रदीप्त कर देते हैं उसी तरह अपनी कन्या के ऐसे निर्भयता से कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राह्मण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ- जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य भरोसे पर रहकर तुम क्या करती हो?

इस प्रकार से कहे हुए पिता के कटु वचनों को सुनकर सुमति मन में विचार करने लगी कि - अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुख का विचार करती हुई वह सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयावने कुशयुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की। उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगीं कि हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो वरदान मांग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूं। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हैं, वह सब मेरे लिए कहो और अपनी कृपा दृष्टि से मुझ दीन दासी को कृतार्थ करो। ऐसा ब्राह्मणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदिशक्ति हूं और मैं ही ब्रह्मविद्या और सरस्वती हूं मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।

तुम्हारे पूर्व जन्म का वृतान्त सुनाती हूं सुनो! तुम पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया। इस प्रकार नवरात्रों के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल ही पिया। इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हें मनवांछित वस्तु दे रही हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो वह वरदान मांग लो।

इस प्रकार दुर्गा के कहे हुए वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे! आपको प्रणाम करती हूं। कृपा करके मेरे पति के कुष्ठ को दूर करो। देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस व्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कुष्ठ दूर करने के लिए अर्पण करो मेरे प्रभाव से तेरा पति कुष्ठ से रहित और सोने के समान शरीर वाला हो जायेगा। ब्रह्मा जी बोले इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है ऐसे बोली। तब उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया जिसकी कान्ति के सामने चन्द्रमा की कान्ति भी क्षीण हो जाती है वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रम वाली समझ कर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुर्गत को दूर करने वाली, तीनों जगत की सन्ताप हरने वाली, समस्त दुखों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित वस्तु को देने वाली और दुष्ट मनुष्य का नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत की माता और पिता हो। हे अम्बे! मुझ अपराध रहित अबला की मेरे पिता ने कुष्ठी के साथ विवाह कर मुझे घर से निकाल दिया। उसकी निकाली हुई पृथ्वी पर घूमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी समुद्र से उद्धार किया है। हे देवी! आपको प्रणाम करती हूं। मुझ दीन की रक्षा कीजिए।

ब्रह्माजी बोले- हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की, उससे हुई स्तुति सुनकर देवी को बहुत सन्तोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! उदालय नाम का अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र होगा। ऐसे कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी और जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनवांछित वस्तु मांग सकती है ऐसा भवगती दुर्गा का वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गे अगर आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्रि व्रत विधि बतलाइये। हे दयावन्ती! जिस विधि से नवरात्र व्रत करने से आप प्रसन्न होती हैं उस विधि और उसके फल को मेरे लिए विस्तार से वर्णन कीजिए।

इस प्रकार ब्राह्मणी के वचन सुनकर दुर्गा कहने लगी हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हारे लिए सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली नवरात्र व्रत विधि को बतलाती हूं जिसको सुनने से समाम पापों से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। आश्विन मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधि पूर्वक व्रत करे यदि दिन भर का व्रत न कर सके तो एक समय भोजन करे। पढ़े लिखे ब्राह्मणों से पूछकर कलश स्थापना करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचे। महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती इनकी मूर्तियां बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करे और पुष्पों से विधि पूर्वक अध्र्य दें। बिजौरा के फूल से अध्र्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती है। आंवले से सुख और केले से भूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अध्र्य देकर यथा विधि हवन करें। खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, विल्व, नारियल, दाख और कदम्ब इनसे हवन करें गेहूं होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। खीर व चम्पा के पुष्पों से धन और पत्तों से तेज और सुख की प्राप्ति होती है। आंवले से कीर्ति और केले से पुत्र होता है। कमल से राज सम्मान और दाखों से सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। खंड, घी, नारियल, जौ और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यन्त नम्रता से प्रणाम करे और व्रत की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है, उसका करोड़ों गुना मिलता है। इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ मंदिर अथवा घर में ही विधि के अनुसार करें।

ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि और फल बताकर देवी अन्तध्र्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूर्वक करता है वह इस लोक में सुख पाकर अन्त में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता हे। हे बृहस्पते! यह दुर्लभ व्रत का माहात्म्य मैंने तुम्हारे लिए बतलाया है। बृहस्पति जी कहने लगे- हे ब्राह्मण! आपने मुझ पर अति कृपा की जो अमृत के समान इस नवरात्र व्रत का माहात्म्य सुनाया। हे प्रभु! आपके बिना और कौन इस माहात्म्य को सुना सकता है? ऐसे बृहस्पति जी के वचन सुनकर ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! तुमने सब प्राणियों का हित करने वाले इस अलौकिक व्रत को पूछा है इसलिए तुम धन्य हो। यह भगवती शक्ति सम्पूर्ण लोकों का पालन करने वाली है, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है।
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शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

श्री रुद्राष्टक Shri Rudrashtak

श्री रुद्राष्टक Shri Rudrashtak


नमामी शमीशान निर्वाणरूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्‌म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेsहं॥१॥

निराकामोंकारमूलं तुरीयं।
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं।
गुणागार संसारपारं नतोsहं॥२॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं।
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा।
लसभ्दालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥ ३॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं।
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं।
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं।
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं।
भजेsहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी।
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी।
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥

न यावद्‌ उमानाथ पादारवन्दिं।
भजंतीह लोके परे वा नराणां॥

न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं।
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोsहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥

जरा जन्म दुःखौद्य तातप्यमानं।
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥८॥

श्लोक -
रुद्राष्टकमिद्र प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शंम्भुः प्रसीदति॥९॥
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बुधवार, 29 सितंबर 2010

श्री विष्‍णु चालीसा | नमो विष्णु भगवान खरारी | Shri Vishnu Chalisa Lyrics in Hindi and English

श्री विष्‍णु चालीसा | नमो विष्णु भगवान खरारी | Shri Vishnu Chalisa Lyrics in Hindi and English

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दोहा
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विष्णु सुनिए विनय 
सेवक की चितलाय
कीरत कुछ वर्णन करूं 
दीजै ज्ञान बताय
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चौपाई
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नमो विष्णु भगवान खरारी
कष्ट नशावन अखिल बिहारी
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी
त्रिभुवन फैल रही उजियारी
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सुन्दर रूप मनोहर सूरत
सरल स्वभाव मोहनी मूरत
तन पर पीताम्बर अति सोहत
बैजन्ती माला मन मोहत
**
शंख चक्र कर गदा बिराजे
देखत दैत्य असुर दल भाजे
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे
काम क्रोध मद लोभ न छाजे
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सन्तभक्त सज्जन मनरंजन
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन
दोष मिटाय करत जन सज्जन
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पाप काट भव सिन्धु उतारण
कष्ट नाशकर भक्त उबारण
करत अनेक रूप प्रभु धारण
केवल आप भक्ति के कारण
**
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा
तब तुम रूप राम का धारा
भार उतार असुर दल मारा
रावण आदिक को संहारा
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आप वाराह रूप बनाया
हरण्याक्ष को मार गिराया
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया
चौदह रतनन को निकलाया
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अमिलख असुरन द्वन्द मचाया
रूप मोहनी आप दिखाया
देवन को अमृत पान कराया
असुरन को छवि से बहलाया
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कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया
मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया
भस्मासुर को रूप दिखाया
**
वेदन को जब असुर डुबाया
कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया
मोहित बनकर खलहि नचाया
उसही कर से भस्म कराया
*
असुर जलन्धर अति बलदाई
शंकर से उन कीन्ह लड़ाई 
हार पार शिव सकल बनाई
कीन सती से छल खल जाई
**
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी
बतलाई सब विपत कहानी
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी
वृन्दा की सब सुरति भुलानी
**
देखत तीन दनुज शैतानी
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी
हना असुर उर शिव शैतानी
**
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे
हिरणाकुश आदिक खल मारे
गणिका और अजामिल तारे
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे
**
हरहु सकल संताप हमारे
कृपा करहु हरि सिरजन हारे
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे
दीन बन्धु भक्तन हितकारे
**
चहत आपका सेवक दर्शन
करहु दया अपनी मधुसूदन
जानूं नहीं योग्य जब पूजन
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन
**
शीलदया सन्तोष सुलक्षण
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण
करहुं आपका किस विधि पूजन
कुमति विलोक होत दुख भीषण
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करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण
कौन भांति मैं करहु समर्पण
सुर मुनि करत सदा सेवकाई
हर्षित रहत परम गति पाई
**
दीन दुखिन पर सदा सहाई
निज जन जान लेव अपनाई
पाप दोष संताप नशाओ
भव बन्धन से मुक्त कराओ
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सुत सम्पति दे सुख उपजाओ
निज चरनन का दास बनाओ
निगम सदा ये विनय सुनावै
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै
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श्री विष्‍णु चालीसा | नमो विष्णु भगवान खरारी | Shri Vishnu Chalisa Lyrics in Hindi and English

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Dohā
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Viṣhṇu sunie vinaya 
Sevak kī chitalāya
Kīrat kuchh varṇan karūan 
Dījai jnyān batāya
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Chaupāī
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Namo viṣhṇu bhagavān kharārī
Kaṣhṭa nashāvan akhil bihārī
Prabal jagat mean shakti tumhārī
Tribhuvan fail rahī ujiyārī
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Sundar rūp manohar sūrata
Saral svabhāv mohanī mūrata
Tan par pītāmbar ati sohata
Baijantī mālā man mohata
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Shankha chakra kar gadā birāje
Dekhat daitya asur dal bhāje
Satya dharma mad lobh n gāje
Kām krodh mad lobh n chhāje
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Santabhakta sajjan manaranjana
Danuj asur duṣhṭan dal ganjana
Sukh upajāya kaṣhṭa sab bhanjana
Doṣh miṭāya karat jan sajjana
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Pāp kāṭ bhav sindhu utāraṇa
Kaṣhṭa nāshakar bhakta ubāraṇa
Karat anek rūp prabhu dhāraṇa
Keval āp bhakti ke kāraṇa
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Dharaṇi dhenu ban tumahian pukārā
Tab tum rūp rām kā dhārā
Bhār utār asur dal mārā
Rāvaṇ ādik ko sanhārā
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Āp vārāh rūp banāyā
Haraṇyākṣha ko mār girāyā
Dhar matsya tan sindhu banāyā
Chaudah ratanan ko nikalāyā
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Amilakh asuran dvanda machāyā
Rūp mohanī āp dikhāyā
Devan ko amṛut pān karāyā
Asuran ko chhavi se bahalāyā
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Kūrma rūp dhar sindhu mazāyā
Mandrāchal giri turat uṭhāyā
Shankar kā tum fanda chhuḍa़āyā
Bhasmāsur ko rūp dikhāyā
**
Vedan ko jab asur ḍubāyā
Kar prabandha unhean ḍhuḍhavāyā
Mohit banakar khalahi nachāyā
Usahī kar se bhasma karāyā
*
Asur jalandhar ati baladāī
Shankar se un kīnha laḍa़āī 
Hār pār shiv sakal banāī
Kīn satī se chhal khal jāī
**
Sumiran kīn tumhean shivarānī
Batalāī sab vipat kahānī
Tab tum bane munīshvar jnyānī
Vṛundā kī sab surati bhulānī
**
Dekhat tīn danuj shaitānī
Vṛundā āya tumhean lapaṭānī
Ho sparsha dharma kṣhati mānī
Hanā asur ur shiv shaitānī
**
Tumane dhruv prahalād ubāre
Hiraṇākush ādik khal māre
Gaṇikā aur ajāmil tāre
Bahut bhakta bhav sindhu utāre
**
Harahu sakal santāp hamāre
Kṛupā karahu hari sirajan hāre
Dekhahuan maian nij darash tumhāre
Dīn bandhu bhaktan hitakāre
**
Chahat āpakā sevak darshana
Karahu dayā apanī madhusūdana
Jānūan nahīan yogya jab pūjana
Hoya yagna stuti anumodana
**
Shīladayā santoṣh sulakṣhaṇa
Vidit nahīan vratabodh vilakṣhaṇa
Karahuan āpakā kis vidhi pūjana
Kumati vilok hot dukh bhīṣhaṇa
**
Karahuan praṇām kaun vidhisumiraṇa
Kaun bhāanti maian karahu samarpaṇa
Sur muni karat sadā sevakāī
Harṣhit rahat param gati pāī
**
Dīn dukhin par sadā sahāī
Nij jan jān lev apanāī
Pāp doṣh santāp nashāo
Bhav bandhan se mukta karāo
**
Sut sampati de sukh upajāo
Nij charanan kā dās banāo
Nigam sadā ye vinaya sunāvai
Paḍhaai sunai so jan sukh pāvai
*****

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

श्री कृष्ण चालीसा || Shri Krishna Chalisa ||



दोहा

वंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम॥
पूर्ण इन्द्र अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज॥

चौपाई

जय यदुनन्दन जय जगवन्दन,
जय वसुदेव देवकी नन्दन।
जय यशोदा सुत नन्द दुलारे,
जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥

जय नटनागर नाग नथइया,
कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया।
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो,
आओ दीनन कष्ट निवारो॥

वंशी मधुर अधर धरि टेरी,
होवे पूर्ण विनय यह मेरी।
आओ हरि पुनि माखन चाखो,
आज लाज भारत की राखो॥

गोल कपोल चिबुक अरुणारे,
मृदु मुस्कान मोहिनी डारे।
रंजित राजिव नयन विशाला,
मोर मुकुट बैजन्ती माला॥

कुण्डल श्रवण पीतपट आछे,
कटि किंकणी काछन काछे।
नील जलज सुन्दर तनु सोहै,
छवि लखि सुर नर मुनि मन मोहै॥

मस्तक तिलक अलक घुंघराले,
आओ कृष्ण बासुरी वाले।

करि पय पान, पूतनहिं तारयो,
अका बका कागा सुर मारयो॥

मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला,
भये शीतल, लखितहिं नन्दलाला।
सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई,
मूसर धार वारि वर्षाई॥

लगत-लगत ब्रज चहन बहायो,
गोवर्धन नखधारि बचायो।
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई,
मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥

दुष्ट कंस अति उधम मचायो,
कोठि कमल जब फूल मंगायो।
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हे,
चरणचिन्ह दे निर्भय कीन्हे॥

करि गोपिन संग रास विलासा,
सबकी पूरण करि अभिलाषा।
केतिक महा असुर संहारियो,
कंसहि केस पकडि  दै मारियो॥

मात-पिता की वंन्दि छुड़ाई,
उग्रसेन कहं राज दिलाई।
महि से मृतक छहों सुत लायो,
मातु देवकी शोक मिटायो॥

भौमासुर मुर दैत्य संहारी,
लाये षट दस सहस कुमारी।
दे भमहिं तृणचीर संहारा,
जरासिंधु राक्षस कहं मारा॥

असुर बकासुर आदिक मारयो,
भक्तन के तब कष्ट निवारियो।
दीन सुदामा के दुख टारयो,
तंदुल तीन मूठि मुख डारयो॥


प्रेम के साग विदुर घर मांगे,
दुर्योधन के मेवा त्यागे।
लखी प्रेम की महिमा भारी,
ऐसे श्याम दीन हितकारी॥

मारथ के पारथ रथ हांके,
लिए चक्र करि नहिं बल थाके।
निज गीता के ज्ञान सुनाये,
भक्तन हृदय सुधा वर्षाये॥

मीरा थी ऐसी मतवाली,
विष पी गई बजा कर ताली।
राणा भेजा सांप पिटारी,
शालिग्राम बने बनवारी॥

निज माया तुम विधिहिं दिखायो,
उरते संशय सकल मिटायो।
तव शत निन्दा करि तत्काला,
जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥

जबहिं द्रोपदी टेर लगाई,
दीनानाथ लाज अब जाई।
तुरतहि वसन बने नन्दलाल,
बढ़े चीर भये अरि मुह काला॥

अस अनाथ के नाथ कन्हैया,
डूबत भंवर बचावत नइया।
सुन्दरदास आस उर धारी,
दयादृष्टि कीजै बनवारी॥

नाथ सकल मम कुमति निवारो,
क्षमहुबेगि अपराध हमारो।
खोलो पट अब दर्शन दीजै,
बोलो कृष्ण कन्हैया की जय॥

दोहा

यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करे उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिद्धि फल, लहै पदारथ चारि॥

चित्र www-acad.sheridanc.on.ca से साभार

शनिवार, 21 अगस्त 2010

श्री शिव चालीसा || जय गणेश गिरिजा सुवन || Shri Shiv Chalisa || Jay Ganesh Girija Suvan || Jay Girijapati Deen Dayala || Shri Shiv Stuti

श्री शिव चालीसा || जय गणेश गिरिजा सुवन || Shri Shiv Chalisa || Jay Ganesh Girija Suvan || Jay Girijapati Deen Dayala || Shri Shiv Stuti

(चित्र गूगल से साभार)

दोहा

जय गणेश गिरिजा सुवन, 

मंगल मूल सुजान।

कहत अयोध्यादास तुम, 

देहु अभय वरदान॥

चौपाई

जय गिरिजापति दीनदयाला,

सदा करत सन्तन प्रतिपाला।

भाल चन्द्रमा सोहत नीके,

कानन कुण्डल नागफनी के॥

अंग गौर शिर गंग बहाये,

मुण्डमाल तन छार लगाये।

वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे,

छवि को देख नाग मुनि मोहे॥

मैना मातु कि हवे दुलारी,

वाम अंग सोहत छवि न्यारी।

कर त्रिशूल सोहत छवि भारी,

करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥

नन्दि गणेश सोहैं तहं कैसे,

सागर मध्य कमल हैं जैसे।

कार्तिक श्याम और गणराऊ,

या छवि को कहि जात न काऊ॥

देवन जबहीं जाय पुकारा,

तबहीं दुःख प्रभु आप निवारा।

किया उपद्रव तारक भारी,

देवन सब मिलि तुमहि जुहारी॥

तुरत षड़ानन आप पठायउ,

लव निमेष महं मारि गिरायउ।

आप जलंधर असुर संहारा,

सुयश तुम्हार विदित संसारा॥

त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई,

सबहिं कृपा कर लीन बचाई।

दानिन महं तुम सम कोई नाहीं,

सेवक अस्तुति करत सदा ही॥

वेद नाम महिमा तव गाई,

अकथ अनादि भेद नहिं पाई।

प्रगटी उदधि मंथन में ज्वाला,

जरे सुरासुर भये विहाला॥

कीन्हीं दया तहं करी सहाई,

नीलकण्ठ तब नाम कहाई।

पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा,

जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥

सहस कमल में हो रहे धारी,

कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥

एक कमल प्रभु राखे जोई,

कमल नयन पूजन चहं सोई॥

कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर,

भए प्रसन्न दिए इच्छित वर।

जै जै जै अनन्त अविनासी,

करत कृपा सबही घटवासी॥

दुष्ट सकल नित मोहि सतावै,

भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै।

त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो,

यहि अवसर मोहि आन उबारो॥

लै त्रिशूल शत्रुन को मारो,

संकट से मोहि आन उबारो,

मातु पिता भ्राता सब कोई,

संकट में पूछत नहीं कोई॥

स्वामी एक है आस तुम्हारी,

आय हरहुं मम संकट भारी।

धन निर्धन को देत सदा ही,

जो कोई जाचें वो फल पाहीं॥

अस्तुति केहि विधि करो तिहारी,

क्षमहु नाथ अब चूक हमारी।

शंकर हो संकट के नाशन,

मंगल कारण विघ्न विनाशन॥

योगि यति मुनि ध्यान लगावै,

नारद शारद शीश नवावै।

नमो नमो जय नमो शिवायै,

सुर ब्रह्‌मादिक पार न पाए॥

जो यह पाठ करे मन लाई,

तापर होत हैं शम्भु सहाई।

दुनिया में जो हो अधिकारी,

पाठ करे सो पावन हारी॥

पुत्रहीन इच्छा कर कोई,

निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई।

पंडित त्रयोदशी को लावे,

ध्यान पूर्वक होम करावे॥


त्रयोदशी व्रत करे हमेशा,

तन नहिं ताके रहे कलेशा।

धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे,

शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥

जन्म जन्म के पाप नसावै,

अन्त वास शिवपुर में पावै।

कहै अयोध्या आस तुम्हारी,

जानि सकल दुख हरहु हमारी॥

दोहा

नित्त नेम कर प्रातः ही, 

पाठ करौ चालीसा।

तु मेरी मनोकामना, 

पूर्ण करो जगदीशा॥


मगसर छठि हेमन्त ऋतु, 

संवत चौसठ जान।

अस्तुति चालीसा शिवहिं, 

पूर्ण कीन कल्याण॥

रविवार, 8 अगस्त 2010

आरती श्री शिव जी की || Aarti Shri Shiv Ji Ki || जय शिव ओंकारा || Jay Shiv Onkara || Shri Shiv Stuti || Shiv Ratri Special

आरती श्री शिव जी की || Aarti Shri Shiv Ji Ki || जय शिव ओंकारा || Jay Shiv Onkara || Shri Shiv Stuti || Shiv Ratri Special

(चित्र गूगल से साभार)

जय शिव ओंकारा, हर शिव ओंकारा,
ब्रह्‌मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा।


एकानन चतुरानन पंचानन राजै
हंसानन गरुणासन वृषवाहन साजै।


दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहै,
तीनों रूप निरखते त्रिभुवन मन मोहे।


अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी,
चन्दन मृगमद चंदा सोहै त्रिपुरारी।


श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे,
सनकादिक ब्रह्‌मादिक भूतादिक संगे।


कर मध्ये च कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी,
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी।


ब्रह्‌मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका।


त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पत्ति पावे॥

बुधवार, 4 अगस्त 2010

श्री राम जी की आरती || आरती श्री रघुवर जी की ||Aarti Shri Raghuvar Ji Ki || Shri Ram Chandra Ji Ki Aarti || Shri Ram Stuti

श्री राम जी की आरती || आरती श्री रघुवर जी की ||Aarti Shri Raghuvar Ji Ki || Shri Ram Chandra Ji Ki Aarti || Shri Ram Stuti


आरती कीजै श्री रघुवर जी की,
सत चित आनन्द शिव सुन्दर की॥


दशरथ तनय कौशल्या नन्दन,
सुर मुनि रक्षक दैत्य निकन्दन॥


अनुगत भक्त भक्त उर चन्दन,
मर्यादा पुरुषोत्तम वर की॥


निर्गुण सगुण अनूप रूप निधि,
सकल लोक वन्दित विभिन्न विधि॥


हरण शोक-भय दायक नव निधि,
माया रहित दिव्य नर वर की॥


जानकी पति सुर अधिपति जगपति,
अखिल लोक पालक त्रिलोक गति॥


विश्व वन्द्य अवन्ह अमित गति,
एक मात्र गति सचराचर की॥


शरणागत वत्सल व्रतधारी,
भक्त कल्प तरुवर असुरारी॥


नाम लेत जग पावनकारी,
वानर सखा दीन दुख हर की॥

शनिवार, 17 जुलाई 2010

श्री राम चालीसा || श्री रघुवीर भक्त हितकारी || Shri Ram Chalisa || Shri Raghubeer Bhakt Hitkari || Shri Ram Stuti || Ran Navami

श्री राम चालीसा || श्री रघुवीर भक्त हितकारी || Shri Ram Chalisa || Shri Raghubeer Bhakt Hitkari || Shri Ram Stuti || Ran Navami


श्री रघुवीर भक्त हितकारी, 
सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।
निशि दिन ध्यान धरै जो कोई, 
ता सम भक्त और नहिं होई॥

ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, 
ब्रह्‌मा इन्द्र पार नहिं पाहीं।
जय जय जय रघुनाथ कृपाला, 
सदा करो सन्तन प्रतिपाला॥

दूत तुम्हार वीर हनुमाना, 
जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना।
तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, 
रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥

तुम अनाथ के नाथ गोसाईं, 
दीनन के हो सदा सहाई।
ब्रह्‌मादिक तव पार न पावैं, 
सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥

चारिउ वेद भरत हैं साखी, 
तुम भक्तन की लज्जा राखी।
गुण गावत शारद मन माहीं, 
सुरपति ताको पार न पाहीं॥

नाम तुम्हार लेत जो कोई, 
ता सम धन्य और नहिं होई।
राम नाम है अपरम्पारा, 
चारिउ वेदन जाहि पुकारा॥

गणपति नाम तुम्हारो लीन्हौ, 
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हौ।
शेष रटत नित नाम तुम्हारा, 
महि को भार शीश पर धारा॥

फूल समान रहत सो भारा, 
पाव न कोउ तुम्हारो पारा।
भरत नाम तुम्हरो उर धारो, 
तासों कबहु न रण में हारो॥

नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा, 
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा।
लषन तुम्हारे आज्ञाकारी, 
सदा करत सन्तन रखवारी॥

ताते रण जीते नहिं कोई, 
युद्ध जुरे यमहूं किन होई।
महालक्ष्मी धर अवतारा, 
सब विधि करत पाप को छारा॥

सीता नाम पुनीता गायो, 
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो।
घट सों प्रकट भई सो आई, 
जाको देखत चन्द्र लजाई॥

सो तुमनरे नित पांव पलोटत, 
नवों निद्धि चरणन में लोटत।
सिद्धि अठारह मंगलकारी, 
सो तुम पर जावै बलिहारी॥

औरहुं जो अनेक प्रभुताई, 
सो सीतापति तुमहि बनाई।
इच्छा ते कोटिन संसारा, 
रचत न लागत पल की वारा।

जो तुम्हरे चरणन चित लावै, 
ताकी मुक्ति अवसि हो जावै।
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा, 
निर्गुण ब्रह्‌म अखण्ड अनूपा॥

सत्य सत्य व्रत स्वामी, 
सत्य सनातन अन्तर्यामी।
सत्य भजन तुम्हारो जो गावै, 
सो निश्चय चारों फल पावै॥

सत्य शपथ गौरिपति कीन्हीं, 
तुमने भक्तिहिं सब सिद्धि दीन्हीं।
सुनहु राम तुम तात हमारे, 
तुहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥

तुमहिं देव कुल देव हमारे, 
तुम गुरुदेव प्राण के प्यारे।
जो कुछ हो सो तुम ही राजा, 
जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥

राम आत्मा पोषण हारे, 
जय जय जय दशरथ दुलारे।
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा, 
नमो नमो जय जगपति भूपा॥

धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा, 
नाम तुम्हार हरत संतापा।
सत्य शुद्ध देवन मुख गाया, 
बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥

सत्य सत्य तुम सत्य सनातन, 
तुम ही हो हमारे तन मन धन।
याको पाठ करे जो कोई, 
ज्ञान प्रकट ताके उर होई।

आवागमन मिटै तिहि केरा, 
सत्य वचन माने शिव मेरा।
और आस मन में जो होई, 
मनवांछित फल पावे सोई॥

तीनहूं काल ध्यान जो ल्यावैं, 
तुलसी दर अरु फूल चढ़ावैं।
साग पत्र सो भोग लगावैं, 
सो नर सकल सिद्धता पावैं॥

अन्त समय रघुवर पुर जाई, 
जहां जन्म हरि भक्त कहाई।
श्री हरिदास कहै अरु गावै, 
सो बैकुण्ठ धाम को जावै॥

दोहा


सात दिवस जो नेम कर, 
पाठ करे चित लाय।
हरिदास हरि कृपा से, 
अवसि भक्ति को पाय॥

राम चालीसा जो पढ़े , 
राम चरण चित लाय।
जो इच्छा मन में करै, 
सकल सिद्ध हो जाय॥

रविवार, 4 जुलाई 2010

श्री गणेश चालीसा || जय जय जय गणपति गणराजू || SHRI GANESH CHALISA || Jay Jay Jay Ganpati Ganraju || Shri Ganesh Stuti

श्री गणेश चालीसा || जय जय जय गणपति गणराजू ||  SHRI GANESH CHALISA || Jay Jay Jay Ganpati Ganraju || Shri Ganesh Stuti 

(चित्र गूगल से साभार)

दोहा


जय गणपति सद्‌गुण सदन, 
करि वर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, 
जय जय गिरिजालाल॥

चौपाई


जय जय जय गणपति गणराजू,
मंगल भरण करण शुभ काजू।

जय गजबदन सदन सुखदाता,
विश्वविनायक बुद्धिविधाता।

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन,
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन।

राजत मणि मुक्तन उर माला,
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला।

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं,
मोदक भोग सुगन्धित फूलं।

सुन्दर पीताम्बर तन साजित,
चरण पादुका मुनि मन राजित।

धनि शिव सुवन षडानन भ्राता,
गौरी ललन विश्व विखयाता।

ऋद्धि सिद्धि तव चंवर सुधारे,
मूषक वाहन सोहत द्वारे।

कहौं जन्म शुभ कथा तुम्हारी,
अति शुचि पावन मंगलकारी।

एक समय गिरिराज कुमारी,
पुत्र हेतु तप कीन्हों भारी।


भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा,
तब पहुच्यों तुम धरि द्विज रूपा।

अतिथि जानि के गौरी सुखारी,
बहु विधि सेवा करी तुम्हारी।

अति प्रसन्न ह्‌वै तुम वर दीन्हा,
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा।

मिलहिं पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला,
बिना गर्भ धारण यहि काला।

गणनायक गुण ज्ञान निधाना,
पूजित प्रथम रूप भगवाना।

अस कहि अन्तर्धान रूप ह्‌वै,
पलना पर बालक स्वरूप ह्‌वै।

बनि शिशु रुदन जबहिं तुम ठाना,
 लखि मुख सुख नहिं गौनी समाना।

सकल मगन सुख मंगल गावहिं,
नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं।

शम्भु उमा बहु दान लुटावहिं,
सुर मुनिजन तुस देखन आवहिं।

लखि अति आनन्द मंगल साजा,
देखन भी आए शनि राजा।

निज अवगुण गनि शनि मन माहीं,
बालक देखन चाहत नाहीं।

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो,
उत्सव मोर न शनि तुहि भायो।

कहन लगे शनि मन सकुचाई,
का करिहों शिशु मोहि दिखाई।


नहिं विश्वास उमा उर भयउ,
शनि सों बालक देखन कह्‌यउ।

तड़तहिं शनि दृगकोण प्रकाशा,
बालक सिर उडि  गयो अकाशा।

गिरिजा गिरी विकल ह्‌वै धरणी,
सो दुख दशा गयो नहिं वरणी।

हाहाकार मच्यो कैलाशा,
शनि कीन्हों लखि सुत का नाशा।

तुरत गरुड  चढि  विष्णु सिधाये,
काटि चक्र सो गजशिर लाये।

बालक के धड  ऊपर धारयो,
प्राण मन्त्र पढि  शंकर डारयो।

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हें,
प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हें।

बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा,
पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा।

चले षडानन, भरमि भुलाई,
रचे बैठि तुम बुद्धि उपाई।

चरण मातु पितु के धर लीन्हें,
तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें।

धनि गणेश कहि शिव हिय हर्ष्यो,
नभ ते सुरन सुमन बहुत वर्ष्यो।

तुम्हारी महिमा बुद्धि बढ ाई,
शेष सहस मुख सके न गाई।

मैं मति हीन मलीन दुखारी,
हरहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।


भजत राम सुन्दर प्रभुदासा,
जग प्रयाग ककरा दुर्वासा।

अब प्रभु दया दीन पर कीजे,
अपनी भक्ति शक्ति कुछ दीजे।


दोहा


श्री गणेश यह चालीसा, 
पाठ करै धर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै, 
लहै जगत सनमान।

सम्बन्ध अपना सहस्र दश, 
ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो, 
मंगली मूर्ति गणेश।

शनिवार, 26 जून 2010

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa 

दोहा 

श्री शनिश्चर देवजी

सुनहु श्रवण मम टेर।

कोटि विघ्ननाशक प्रभो

करो न मम हित बेर॥

सोरठा

तव स्तुति हे नाथ

जोरि जुगल कर करत हौं।

करिये मोहि सनाथ

विघ्नहरण हे रवि सुवन॥

चौपाई

शनि देव मैं सुमिरौं तोही

विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।

तुम्हरो नाम अनेक बखानौं

क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।


अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ

कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।

पिंगल मन्दसौरि सुख दाता

हित अनहित सब जग के ज्ञाता।


नित जपै जो नाम तुम्हारा

करहु व्याधि दुख से निस्तारा।

राशि विषमवस असुरन सुरनर

पन्नग शेष साहित विद्याधर।


राजा रंक रहहिं जो नीको

पशु पक्षी वनचर सबही को।

कानन किला शिविर सेनाकर

नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।


डालत विघ्न सबहि के सुख में

व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में।

नाथ विनय तुमसे यह मेरी

करिये मोपर दया घनेरी।


मम हित विषयम राशि मंहवासा

करिय न नाथ यही मम आसा।

जो गुड  उड़द दे वार शनीचर

तिल जब लोह अन्न धन बिस्तर।


दान दिये से होंय सुखारी

सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।

नाथ दया तुम मोपर कीजै

कोटिक विघ्न क्षणिक महं छीजै।


वंदत नाथ जुगल कर जोरी

सुनहुं दया कर विनती मोरी।

कबहुंक तीरथ राज प्रयागा

सरयू तोर सहित अनुरागा।


कबहुं सरस्वती शुद्ध नार महं

या कहु गिरी खोह कंदर महं।

ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि

ताहि ध्यान महं सूक्ष्म होहि शनि।


है अगम्य क्या करूं बड़ाई

करत प्रणाम चरण शिर नाई।

जो विदेश में बार शनीचर

मुड कर आवेगा जिन घर पर।


रहैं सुखी शनि देव दुहाई

रक्षा रवि सुत रखैं बनाई।

जो विदेश जावैं शनिवारा

गृह आवैं नहिं सहै दुखाना।


संकट देय शनीचर ताही

जेते दुखी होई मन माही।

सोई रवि नन्दन कर जोरी

वन्दन करत मूढ  मति थोरी।


ब्रह्‌मा जगत बनावन हारा

विष्णु सबहिं नित  देत अहारा।

हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी

विभू देव मूरति एक वारी।


इकहोइ धारण करत शनि नित

वंदत सोई शनि को दमनचित।

जो नर पाठ करै मन चित से

सो नर छूटै व्यथा अमित से।


हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े

कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।

पशु कुटुम्ब बांधन आदि से

भरो भवन रहिहैं नित सबसे।


नाना भांति भोग सुख सारा

अन्त समय तजकर संसारा।

पावै मुक्ति अमर पद भाई

जो नित शनि सम ध्यान लगाई।


पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस

रहै शनीश्चर नित उसके बस।

पीड़ा शनि की कबहुं न होई

नित उठ ध्यान धरै जो कोई।


जो यह पाठ करै चालीसा

होय सुख साखी जगदीशा।

चालिस दिन नित पढ़ै सबेरे

पातक नाशे शनी घनेरे।


रवि नन्दन की अस प्रभुताई

जगत मोहतम नाशै भाई।

याको पाठ करै जो कोई

सुख सम्पत्ति की कमी न होई।


निशिदिन ध्यान धरै मन माही

आधिव्याधि ढिंग आवै नाही।

दोहा

पाठ शनीश्चर देव को

कीन्हौं विमल तैयार।

करत पाठ चालीस दिन

हो भवसागर पार॥

जो स्तुति दशरथ जी कियो

सम्मुख शनि निहार।

सरस सुभाषा में वही

ललिता लिखें सुधार।

बुधवार, 23 जून 2010

श्री गंगा चालीसा || जय जय जय जग पावनी || Shri Ganga Chalisa || Jay Jay Jay Jag Pawani || Shri Ganga Stuti


दोहा


जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग॥

चौपाई

जय जग जननि अघ खानी, 
आनन्द करनि गंग महरानी।
जय भागीरथि सुरसरि माता, 
कलिमल मूल दलनि विखयाता।

जय जय जय हनु सुता अघ अननी, 
भीषम की माता जग जननी।
धवल कमल दल मम तनु साजे, 
लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे।

वाहन मकर विमल शुचि सोहै, 
अमिय कलश कर लखि मन मोहै।
जडित रत्न कंचन आभूषण, 
हिय मणि हार, हरणितम दूषण।

जग पावनि त्रय ताप नसावनि, 
तरल तरंग तंग मन भावनि।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, 
तिहुं ते प्रथम गंग अस्नाना।

ब्रह्‌म कमण्डल वासिनी देवी 
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी।
साठि सहत्र सगर सुत तारयो, 
गंगा सागर तीरथ धारयो।

अगम तरंग उठयो मन भावन, 
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, 
धरयौ मातु पुनि काशी करवट।

धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, 
तारणि अमित पितृ पद पीढ़ी ।
भागीरथ तप कियो अपारा, 
दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा।

जब जग जननी चल्यो लहराई, 
शंभु जटा महं रह्यो समाई।
वर्ष पर्यन्त गंग महरानी, 
रहीं शंभु के जटा भुलानी।

मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, 
तब इक बूंद जटा से पायो।
ताते मातु भई त्रय धारा, 
मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा।

गई पाताल प्रभावति नामा, 
मन्दाकिनी गई गगन ललामा।
मृत्यु लोक जाह्‌नवी सुहावनि, 
कलिमल हरणि अगम जग पावनि।

धनि मइया तव महिमा भारी, 
धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी।
मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, 
धनि सुरसरित सकल भयनासिनी।

पान करत निर्मल गंगाजल, 
पावत मन इच्छित अनन्त फल।
पूरब जन्म पुण्य जब जागत, 
तबहिं ध्यान गंगा महं लागत।

जई पगु सुरसरि हेतु उठावहिं, 
तइ जगि अश्वमेध फल पावहिं।
महा पतित जिन काहु न तारे, 
तिन तारे इक नाम तिहारे।

शत योजनहू से जो ध्यावहिं, 
निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं।
नाम भजत अगणित अघ नाशै, 
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।

जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, 
धर्म मूल गंगाजल पाना।
तव गुण गुणन करत सुख भाजत, 
गृह गृह सम्पत्ति सुमति विराजत।

गंगहिं नेम सहित निज ध्यावत, 
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै, 
रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै।

गंगा गंगा जो नर कहहीं, 
भूखे नंगे कबहूं न रहहीं।
निकसत की मुख गंगा माई, 
श्रवण दाबि यम चलहिं पराई।

महां अधिन अधमन कहं तारें, 
भए नर्क के बन्द किवारे।
जो नर जपै गंग शत नामा, 
सकल सिद्ध पूरण ह्वै कामा।

सब सुख भोग परम पद पावहिं, 
आवागमन रहित ह्वै जावहिं।
धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, 
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, 
सुन्दरदास गंगा कर दासा।
जो यह पढ़ै गंगा चालीसा, 
मिलै भक्ति अविरल वागीसा।

दोहा

नित नव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान।
अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमान॥
सम्वत्‌ भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र।
पूण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र॥


चित्र http://z.about.com/d/hinduism/1/G/I/_/goddess_ganga.jpg से साभार

रविवार, 20 जून 2010

श्री रामायण जी की आरती (Aarti Shri Ramayan Ji ki)


महर्षि वाल्मीकि



आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

गावत ब्रह्‌मादिक मुनि नारद।
बाल्मीकि बिग्यान बिसारद॥
सुक सनकादि सेष अरु सारद।
बरन पवनसुत कीरति नीकी॥१॥

गावत बेद पुरान अष्टदस।
छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस॥
मुनि जन धन संतन को सरबस।
सार अंस संमत सबही की॥ २॥

गावत संतत संभु भवानी।
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी।
कागभुसंडि गरुण के ही की॥३॥

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी।
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की॥
दलन रोग भव मूरि अमी की।
तात मात सब बिधि तुलसी की॥४॥

आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

बोलो सिया वर राम चन्द्र की जय
पवन सुत हनुमान की जय।

गोस्वामी तुलसीदास
चित्र
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http://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/3/3e/Valmiki_ramayan.jpg  से साभार