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सोमवार, 31 मई 2010
जय अंबे गौरी || दुर्गा मैया की आरती || Durga Mata Ki Aarti Lyrics in Hindi and English
सोमवार, 24 मई 2010
श्री हरसू ब्रह्म चालीसा || Shri Harsu Brahm Chalisa || हरसू ब्रह्म चैनपुर कैमूर || Harsu Brahm Chainpur Kaimur || Harsu Brahm Maharaj ji || हरसू ब्रह्म रूप अवतारी Harsu Brahm Rup Avatari
श्री हरसू ब्रह्म चालीसा || Shri Harsu Brahm Chalisa || हरसू ब्रह्म चैनपुर कैमूर || Harsu Brahm Chainpur Kaimur || Harsu Brahm Maharaj ji || हरसू ब्रह्म रूप अवतारी Harsu Brahm Rup Avatari
चालीसा प्रस्तुत करूं
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हरसू ब्रह्म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी॥१॥
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शिव अनवद्य अनामय रूपा।
जन मंगल हित शिला स्वरूपा॥ २॥
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विश्व कष्ट तम नाशक जोई।
ब्रह्म धाम मंह राजत सोई ॥३॥
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निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन ब्रह्म प्रतापी॥४॥
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अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोइ शिव प्रकट ब्रह्म के रूपा॥५॥
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जगत प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्म हुए विखयाता॥६॥
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पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्म रूप धरि प्रकटेउ सोई॥७॥
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मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्म सोई अन्तर्यामी॥८॥
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भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस॥९॥
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चैनपुर सुखधाम मनोहर।
जहां विराजत ब्रह्म निरन्तर॥१०॥
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ब्रह्म तेज वर्धित तव क्षण-क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन-मन॥११॥
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द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन-मन त्रासा॥१२॥
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दे संतान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन-भय हरते॥१३॥
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सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृत्ति कुल घालक तुम हो॥१४॥
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कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई॥१५॥
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भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा॥१६॥
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परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै॥१७॥
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पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुं हंसे फिर रोवै॥१८॥
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तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत पिशाच ग्रस्त उर होई॥१९॥
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तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने॥२०॥
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तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत-पिशाच विकल होई भागे॥२१॥
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नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहिं आवत॥२२॥
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भांति-भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा॥२३॥
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हरसू ब्रह्म के धाम पधारे।
श्रमित-भ्रमित जन मन से हारे॥२४॥
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तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई॥२५॥
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श्रद्धा अरू विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी॥२६॥
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कृपा करहुं तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर॥२७॥
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वर्ष-वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं॥२८॥
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तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहुं भाव कुभाव निरन्तर॥२९॥
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मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उन मध्य बिठावे॥३०॥
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करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर॥३१॥
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देखिहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा॥३२॥
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सदा एक-रस जीवन भोगी।
ब्रह्म रूप तब होइहहिं योगी॥३३॥
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यज्ञ-स्थल तव धाम शुभ्रतर।
हवन-यज्ञ जहं होत निरंतर॥३४॥
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सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन॥३५॥
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अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा॥३६॥
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पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाष शीघ्रतर॥३७॥
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नर-नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे॥३८॥
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भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले॥३९॥
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ब्रह्म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई॥४०॥
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पूर्ण काम हरसू सदा,
पूरण कर सब काम।
परम तेज मय बसहुं तुम,
भक्तन के उर धाम॥
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श्री हरसू ब्रह्म चालीसा || Shri Harsu Brahm Chalisa || हरसू ब्रह्म चैनपुर कैमूर || Harsu Brahm Chainpur Kaimur || Harsu Brahm Maharaj ji || हरसू ब्रह्म रूप अवतारी Harsu Brahm Rup Avatari
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रविवार, 23 मई 2010
आरती श्री काली मां की Aarti Kali Mata Ki
आरती श्री काली मां की Aarti Kali Mata Ki
मंगलवार, 18 मई 2010
अथ हरतालिका (तीज) पूजन विधि Hartalika Teej Vrat
अथ हरतालिका (तीज) पूजन विधि Hartalika Teej Vrat
अथ हरतालिका व्रत कथा ( Hartalika Vrat Katha )
हरतालिका व्रत की सामग्री Hartalika Vrat Ki Samagri
रविवार, 9 मई 2010
सोलह सोमवार व्रत कथा Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | 16 Somvar Vrat
अथ सोलह सोमवार व्रत कथा Ath Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi
एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था। शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आज चौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जी ने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की और अन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी को कोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।
कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारण पूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें, संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्टी की तीन मूर्ति बनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवान शंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलह सोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।
पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बाद शिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होने का कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूप अप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती से पूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रत बतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला। उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया। फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्मण कुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे। एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससे राजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्मण ने सोलह सोमवार का व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्य से मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया। पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसे राज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा के दिवंगत होने पर ब्राह्मण कुमार को गद्दी मिली। फिर वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा, परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जो आकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश कर देगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।
रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढिया ने इसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उड गई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तन चटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई। सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी कर आराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर की यह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईं जी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जी ने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया - मैंने पति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जी ने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजा को रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी की कृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी। राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे। मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानी के साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथा सुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है।
॥ बोलो शिवशंकर भोले नाथ की जय ॥