रविवार, 9 मई 2010

सोलह सोमवार व्रत कथा Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | 16 Somvar Vrat

अथ सोलह सोमवार व्रत कथा Ath Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi


एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था। शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आज चौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जी ने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की और अन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी को कोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।

कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारण पूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें, संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्‌टी की तीन मूर्ति बनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवान शंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलह सोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।

पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बाद शिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होने का कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूप अप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती से पूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रत बतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला। उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया। फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्‌मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्‌मण कुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे। एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससे राजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्‌मण ने सोलह सोमवार का व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्य से मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया। पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसे राज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा के दिवंगत होने पर ब्राह्‌मण कुमार को गद्‌दी मिली। फिर वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा, परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जो आकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश कर देगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।

रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढिया ने इसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उड गई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तन चटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई। सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी कर आराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर की यह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईं जी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जी ने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया - मैंने पति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जी ने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजा को रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी की कृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी। राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे। मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानी के साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथा सुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है।

॥ बोलो शिवशंकर भोले नाथ की जय ॥

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रविवार, 2 मई 2010

अथ सोम प्रदोष कथा Ath Som Pradosh Katha Lyrics in Hindi

अथ सोम प्रदोष कथा Ath Som Pradosh Katha Lyrics in Hindi



पूर्वकाल में एक विधवा ब्राह्‌मणी अपने पुत्रों को लेकर ऋषियों की आज्ञा से भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती। भिक्षा में जो मिलता उससे अपना कार्य चलाती और शिवजी का प्रदोष व्रत भी करती। एक दिन उससे विदर्भ देश का राजकुमार मिला, जिसे शत्रुओं ने राजधानी से बाहर निकाल दिया था और उसके पिता को मार दिया था। ब्राह्‌मणी ने लाकर उसका पालन किया। एक दिन राजकुमार और ब्राह्‌मण बालक ने वन में गंधर्व कन्याओं को देखा। राजकुमार अंशुमती से बात करने लगा और उसके साथ चला गया, ब्राह्‌मण बालक घर लौट आया। अंशुमती के माता-पिता ने अंशुमती का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त के साथ कर दिया और शत्रुओं को परास्त कर विदर्भ का राजा बनाया। धर्मगुप्त को ब्राह्‌मण की याद रही और उसने ब्राह्‌मण कुमार को अपना मंत्री बना लिया। यथार्थ में यह शिवजी के प्रदोष व्रत का फल था। तभी से यह शिवजी का प्रदोष व्रत लोक प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत के प्रभाव से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

श्री सोमवार व्रत कथा || Shri Somwar Vrat Katha Lyrics in Hindi || Monday Vrat Katha

श्री सोमवार व्रत कथा || Shri Somwar Vrat Katha Lyrics in Hindi || Monday Vrat Katha

सोमवार व्रत धारण करने की कथा

सोमवार का व्रत चैत्र, वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष व कार्तिक मास में प्रारम्भ किया जाता है। साधारणतः श्रावण मास में सोमवार व्रत का विशेष प्रचलन है। भविष्यपुराण का मत है कि चैत्र शुक्ल अष्टमी को सोमवार और आद्रा नक्षत्र हो तो उस दिन से सोमवार व्रत प्रारम्भ करना चाहिए। व्रत करने वाले स्त्री व पुरुष को चाहिए कि सोमवार को प्रातःकाल काले तिल का तेल लगाकर स्नान करें। विधिपूर्वक पार्वती-शिव का पूजन करें। 'मम क्षेमस्थैर्य विजयारोग्यैश्वर्य वृद्ध्‌यर्थं सोमव्रतं करिष्ये' से संकल्प करके शिव पूजन करें। 'ओउम नमो दश भुजाय त्रिनेत्राय पंचवदनाय शूलिने। श्वेत वृषभारूढाय सर्वाभरण भूषिताय उमादेहार्धस्थाय नमस्ते सर्वमूर्तये' से ध्यान करे, अथवा 'ओउम नमः शिवाय' से शिव जी का 'ओउम नमः शिवायै' से उमा पार्वती जी का षोडशोपचार पूजन करें, इन्हीं मंत्रों से शक्ति अनुसार जप और हवन भी करें। फिर किसी बाग बगीचे में जाकर या घर पर ही एक वक्त भोजन करें। इस प्रकार से सोमवार के व्रत को 14 वर्ष तक करके फिर उद्यापन करें। इस व्रत के प्रभाव से मानवों को सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है।

ग्रहणादि में जप, हवन, उपासना, दान आदि सत्कार्य करने से जो फल मिलता है वही सोमवार व्रत से मिलता है। चैत्र मास में सोमवार व्रत का फल चैत्र मास में गंगाजल से सोमनाथ के स्नान कराने के समान, वैशाख में पुष्पादि से पूजन करने से कन्यादान के समान, ज्येष्ठमास में पुष्कर स्नान करने से गोदान के समान, भाद्रपद में बृहद यज्ञों के समान, श्रावण में अश्वमेध यज्ञ के समान, भाद्रपद में सवत्स गोदान के समान, आश्विन में सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में रस, गुड़ व धेनु के दान के समान, कार्तिक में चारों वेद के ज्ञाता चार ब्राह्‌मणों को चार-चार घोड़े जुते हुए रथ दान के समान, मार्गशीर्ष में चन्द्र ग्रहण के समय काशी आदि तीर्थों में जा गंगा-स्नान, जप, दान के समान, पौष में अग्निष्टोम यज्ञ के समान, माघ में गो दुग्ध गन्ना के रस से स्नान कर ब्रह्‌महत्यादि निवृत्ति के समान, फाल्गुन में सूर्यादि ग्रहण के समय गोदान के समान फल प्राप्त होता है। श्रावण में केदारनाथ का ब्रह्‌म-कमल से पूजन, दर्शन, अर्चन तथा केदार क्षेत्र में निवास का महत्व है। इससे भगवान शंकर की प्रसन्नता और सायुज्य की प्राप्ति होती है।
अथ सोमवार की व्रत कथा

एक साहूकार बहुत ही धनवान था। उसे धन आदि किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। परन्तु पुत्र न होने के कारण वह अत्यन्त दुःखी था। वह इसी चिंता में रात-दिन रहता था और इसीलिए वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन करता था। सायंकाल में जाकर शिव जी के मंदिर में दीपक जलाया करता था। उसके उस भक्ति भाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा - हे महाराज! यह साहूकार आपका अत्यन्त भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है। अतः इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए। शिव जी ने कहा- पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है। जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है, उसी तरह इस संसार में जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। पार्वती ने अत्यन्त आग्रह से कहा कि- महाराज! जब यह आपका ऐसा भक्त है और यदि इसको किसी प्रकार का कोई दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए, क्योंकि आप तो सदैव अपने भक्तों पर दयालु हैं, उनके दुःखों को दूर करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य क्यों आपकी सेवा, व्रत, पूजन करेंगे। पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज प्रसन्न हो कहने लगे- हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है। इसी पुत्र चिंता से यह अति दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूं, परन्तु वह पुत्र केवल १२ वर्ष तक ही जीवित रहेगा। इसके पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त होगा। इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नीं कर सकता। यह सब साहूकार सुुन रहा था। इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न कुछ दुःख हुआ, वह पूर्ववत वैसे ही शिवजी महाराज का सोमवार व्रत और पूजन करता रहा।

कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई, परन्तु साहूकार ने उसकी केवल १२ वर्ष की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न किसी को भेद बतलाया। जब पुत्र ११ वर्ष को हो गया , तो उस बालक की माता ने उसके पिता से उसके विवाह के लिए कहा, परन्तु वह साहूकार कहने लगा-द मैं अभी इसका विवाह नहीं करूंगा और काशीजी पढ़ने के लिए भेजूंगा। फिर उस साहूकार ने अपने साले अर्थात्‌ बालक के मामा को बुला उसको बहुत सा धन देकर कहा- तुम इस बालक को काशी जी पढ ने के लिए ले जाओ और रास्ते में जिस जगह भी जाओ वहां यज्ञ करते, दान देते तथा ब्राह्‌मणों को भोजन कराते जाओ। इस प्रकार वह दोनों मामा भान्जे सब जगह यज्ञ करते और ब्राह्‌मणों को भोजन कराते जा रहे थे।

रास्ते में उनको एक शहर दिखाई पड़ा। उस शहर के राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड का जो विवाह के लिए बारात लेकर आया था वह एक आंख से काना था। लड़के के पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें। इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों ने दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम ले लिया जाय। ऐसा विचार कर राजा ने उस लड़के और उसके मामा से कहा तो वह राजी हो गये और साहूकार के लड़के को स्नान आदि करा, वर के कपड़े पहना तथा घोड़ा पर चढ़ा दरवाजे पर ले गये और बड़ी शान्ति से सब कार्य हो गया। अब वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा दिया जाय तो क्या बुराई है। ऐसा विचार कर उसके मामा से कहा- यदि आप फेरों और कन्यादान का काम भी करा दें, तो आपकी बड़ी कृपा होगी और हम इसके बदले में आपको बहुत धन देंगे। उन्होंने यह भी स्वीकार कर लिया ओर विवाह कार्य बहुत अच्छी तरह से हो गया, परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुंदरी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है, परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंख से काना है और मैं तो काशी जी पढ ने जा रहा हूं। उस राजकुमारी ने जब चुंदरी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ। वह तो काशीजी पढ ने गया है। राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया ओर बारात वापिस चली गयी।

उधर सेठ जी का लड़का और उसके मामा काशीजी पहुंच गये। वहां जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड के ने पढ ना शुरू कर दिय। जब लड़के की आयु १२ साल की हो गई तब एक दिन उन्‍होंने यज्ञ रच रखा था कि उस लड़के ने अपने मामा से कहा- मामा जी! आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा कि अन्दर जाकर सो जाओ। लड का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गये। जब उसके मामा ने आकर देखा कि वह मर गया है तो उसके बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जायगा। अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्‌मणों के घर जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया। संयोगवश उस समय शिवजी महाराज और पार्वती जी उधर से जा रहे थे। जब उन्होंने जोर-जोर से रोने-पीटने की आवाज सुनी तो पार्वती जी शिवजी को आग्रह करके उसके पास ले गई और उस सुन्दर बालक को मरा हुआ देखकर कहने लगीं कि महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो कि आपके वरदान से हुआ था। शिवजी ने कहा कि पार्वती जी इसकी आयु इतनी ही थी सो भोग चुका। पार्वती जी ने कहा कि महाराज कृपा करके इस बाल को और आयु दें नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जायेंगे। पार्वती के इस प्रकार बार-बार आग्रह करने पर शिव जी ने उसको वरदान दिया। शिवजी महाराज की कृपा से लड का जीवित हो गया। शिव-पार्वती कैलाश चले गये।

तब वह लड़का और उसके मामा उसी प्रकार यज्ञ करते हुए अपने घर की ओर चल पड़े और रास्ते में उसी शहर में आये जहां पर उस लड के का विवाह हुआ था। वहां पर आकर जब उन्होंने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड के के श्वसुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में लाकर उसकी बड़ी खातिर की, साथ ही बहुत सारा धान और दासियों के सहित बड़े आदर और सत्कार के साथ अपनी लड की और जमाई को विदा किया। जब वह अपने शहर के निकट आये तो उसके मामा ने कहा कि पहले मैं तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूं। उस समय उसके माता-पिता अपनी घर की छत पर बैठे हुए थे और उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल घर आया तो राजी खुशी नीचे आ जायेंगे, नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे। इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है, परन्तु उनको विश्वास न आया। तब उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री तथा बहुत सा धन लेकर आया है, तो सेठ ने बड़े आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और वे बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे।

इसी प्रकार जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता है या सुनता है उसके दुःख दूर हो कर उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस लोक में नाना प्रकार के सुख भोगकर अन्त में सदाशिव के लोक की प्राप्ति हुआ करती है।
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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

श्री सन्तान सप्तमी व्रत कथा Shri Santan Saptami Vrat Katha Lyrics in Hindi

श्री सन्तान सप्तमी व्रत कथा Shri Santan Saptami Vrat Katha Lyrics in Hindi 

श्री सन्तान सप्तमी व्रत कथा

एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा- हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बतलाइये जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेकों सांसारिक क्लेश दुःख दूर होकर वे पुत्र एवं पौत्रवान हो जाएं।

यह सुनकर भगवान बोले - हे राजन्‌! तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। मैं तुमको एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनो। एक समय लोमष ऋषि ब्रजराज की मथुरापुरी में वसुदेव के घर गए।

ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठा कर उनका अनेक प्रकार से वन्दन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर तथा शरीर को पवित्र किया।

वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा के कहते लोमष ने कहा कि - हे देवकी! दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यन्त दुःखी है।

इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चन्द्रमुखी भी दुःखी रहा करती थी किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि विधान सहित किया। जिसके प्रताप से उनको सन्तान का सुख प्राप्त हुआ।

यह सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- हे ऋषिराज! कृपा करके रानी चन्द्रमुखी का सम्पूर्ण वृतान्त तथा इस व्रत को विस्तार सहित मुझे बतलाइये जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाउं।

लोमष ऋषि ने कहा कि - हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे। उनकी पत्नी चन्द्रमुखी अत्यन्त सुन्दर थीं। उनके नगर में विष्णुगुप्त नाम का एक ब्राह्‌मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी।

रानी और ब्राह्‌मणी में अत्यन्त प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गई। वहां उन्होंने देखा कि अन्य बहुत सी स्त्रियां सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहन कर एक मण्डप में शंकर एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित करके पूजा कर रही थीं।

रानी और ब्राह्‌मणी ने यह देख कर उन स्त्रियों से पूछा कि - बहनों! तुम यह किस देवता का और किस कारण से पूजन व्रत आदि कर रही हो। यह सुन कर स्त्रियों ने कहा कि हम सनतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव पार्वती का पूजन चन्दन अक्षत आदि से षोडषोपचार विधि से किया है। यह सब इसी पुनी व्रत का विधान है।

यह सुनकर रानी और ब्राह्‌मणी ने भी इस व्रत के करने का मन ही मन संकल्प किया और घर वापस लौट आईं। ब्राह्‌मणी भद्रमुखी तो इस व्रत को नियम पूर्वक करती रही किन्तु रानी चन्द्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी न करती। कभी भूल हो जाती। कुछ समय बाद दोनों मर गई। दूसरे जन्म में रानी बन्दरिया और ब्राह्‌मणी ने मुर्गी की योनि पाई।

परन्तु ब्राह्‌मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शंकर तथा पार्वती जी का ध्यान करती रही, उधर रानी बन्दरिया की योनि में, भी सब कुछ भूल गई। थोड़े समय के बाद दोनों ने यह देह त्याग दी।

अब इनका तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने एक ब्राह्‌मणी के यहां कन्या के रूप में जन्म लिया। उस ब्राह्‌मण कन्या का नाम भूषण देवी रखा गया तथा विवाह गोकुल निवासी अग्निशील ब्राह्‌मण से कर दिया, भूषण देवी इतनी सुन्दर थी कि वह आभूषण रहित होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर लगती थी। कामदेव की पत्नी रति भी उसके सम्मुख लजाती थी। भूषण देवी के अत्यन्त सुन्दर सर्वगुणसम्पन्न चन्द्रमा के समान धर्मवीर, कर्मनिष्ठ, सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र उत्पन्न हुए।

यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिव विमुख रानी के गर्भ से कोई भी पुत्र नहीं हुआ, वह निःसंतान दुःखी रहने लगी। रानी और ब्राह्‌मणी में जो प्रीति पहले जन्म में थी वह अब भी बनी रही।

रानी जब वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने लगी तब उसके गूंगा बहरा तथा बुद्धिहीन अल्प आयु वाला एक पुत्र हुआ वह नौ वर्ष की आयु में इस क्षणभंगुर संसार को छोड़ कर चला गया।

अब तो रानी पुत्र शोक से अत्यन्त दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। दैवयोग से भूषण देवी ब्राह्‌मणी, रानी के यहां अपने पुत्रों को लेकर पहुंची। रानी का हाल सुनकर उसे भी बहुत दुःख हुआ किन्तु इसमें किसी का क्या वश! कर्म और प्रारब्ध के लिखे को स्वयं ब्रह्‌मा भी नहीं मिटा सकते।

रानी कर्मच्युत भी थी इसी कारण उसे दुःख भोगना पड ा। इधर रानी पण्डितानी के इस वैभव और आठ पुत्रों को देख कर उससे मन में ईर्ष्या करने लगी तथा उसके मन में पाप उत्पन्न हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने रानी का संताप दूर करने के निमित्त अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड दिए।

रानी ने पाप के वशीभूत होकर उन ब्राह्‌मणी पुत्रों की हत्या करने के विचार से लड्‌डू में विष मिलाकर उनको खिला दिया परन्तु भगवान शंकर की कृपा से एक भी बालक की मृत्यु न हुई।

यह देखकर तो रानी अत्यन्त ही आश्चर्य चकित हो गई और इस रहस्य का पता लगाने की मन में ठान ली। भगवान की पूजा से निवृत्त होकर जब भूषण देवी आई तो रानी ने उस से कहा कि मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए इनको जहर मिलाकर लड्‌डू लिखा दिया किन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा। तूने कौन सा दान, पुण्य, व्रत किया है। जिसके कारण तेरे पुत्र नहीं मरे और तू नित नए सुख भोग रही है। तेरा बड़ा सौभाग्य है। इनका भेद तू मुझसे निष्कपट होकर समझा मैं तेरी बडी ऋणी रहूंगी।

रानी के ऐसे दीन वचन सुनकर भूषण ब्राह्‌मणी कहने लगी - सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूं, सो ध्यान पूर्वक सुनना, पहले जन्म में तुम राजा नहुष की पत्नी थी और तुम्हारा नाम चन्द्रमुखी था मेरा भद्रमुखी था और मैं ब्राह्‌मणी थी। हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरी तुम्हारी बडी प्रीति थी। एक दिन हम तुम दोनों सरयू नदी में स्नान करने गई और दूसरी स्त्रियों को सन्तान सप्तमी का उपवास शिवजी का पूजन अर्चन करते देख कर हमने इस उत्तम व्रत को करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु तुम सब भूल गई और झूठ बोलने का दोष तुमको लगा जिसे तू आज भी भोग रही है।

मैंने इस व्रत को आचार-विचार सहित नियम पूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूं। दूसरे जन्म में तुमने बन्दरिया का जन्म लिया तथा मुझे मुर्गी की योनि मिली। भगवान शंकर की कृपा से इस व्रत के प्रभाव तथा भगवान को इस जन्म में भी न भूली और निरन्तर उस व्रत को नियमानुसार करती रही। तुम अपने बंदरिया के जन्म में भी भूल गई।

मैं तो समझती हूं कि तुम्हारे उपर यह जो भारी संगट है उसका एक मात्र यही कारण है और दूसरा कोई इसका कारण नहीं हो सकता। इसलिए मैं तो कहती हूं कि आप सब भी सन्तान सप्तमी के व्रत को विधि सहित करिये जिससे आपका यह संकट दूर हो जाए।

लोमष ऋषि ने कहा- हे देवकी! भूषण ब्राह्‌मणी के मुख से अपने पूर्व जन्म की कथा तथा व्रत संकल्प इत्यादि सुनकर रानी को पुरानी बातें याद आ गई और पश्चाताप करने लगी तथा भूषण ब्राह्‌मणी के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और भगवान शंकर पार्वती जी की अपार महिमा के गीत गाने लगी। उस दिन से रानी ने नियमानुसार सन्तान सप्तमी का व्रत किया। जिसके प्रभाव से रानी को सन्तान सुख भी मिला तथा सम्पूर्ण सुख भोग कर रानी शिवलोक को गई।

भगवान शंकर के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथ भ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अनन्त ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है। लोमष ऋषि ने फिर कहा कि - देवकी! इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूं कि तुम भी इस व्रत को करने का संकल्प अपने मन में करो तो तुमको भी सन्तान सुख मिलेगा।

इतनी कथा सुनकर देवकी हाथ जोड कर लोमष ऋषि से पूछने लगी- हे ऋषिराज! मैं इस पुनीत उपवास को अवश्य करूंगी, किन्तु आप इस कल्याणकारी एवं सन्तान सुख देने वाले उपवास का विधान, नियम आदि विस्तार से समझाइये।

यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत उपवास भादों भाद्रपद के महीने में शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन किया जाता है। उस दिन ब्रह्‌ममुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुएं के पवित्र जल में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा पार्वती जी की मूर्ति की स्थापना करें। इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गांठें लगानी चाहिए। इस गंडे को धूप, दीप, अष्ट गंध से पूजा करके अपने हाथ में बांधे और भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।

तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान को भोग लगावें और सात ही पुवे एवं यथाशक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक तांबे के पात्र में रखकर और उनका शोडषोपचार विधि से पूजन करके किसी सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सुपात्र ब्राह्‌मण को दान देवें। उसके पश्चात सात पुआ स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।

इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए। प्रतिसाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार नियम पूर्व करने से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है।

हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है। उसको अब तुम नियम पूर्वक करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि - लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए।

यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करें तथा दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद पद प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है।
॥ बोलो शंकर भगवान की जय॥
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रविवार, 11 अप्रैल 2010

संकटमोचन हनुमानाष्टक Sankatmochan Hanumanashtak // बाल समय रबि भक्षि लियो तब // Bal Samay Rabi Bhaksh Liyo Tab

संकटमोचन हनुमानाष्टक Sankatmochan Hanumanashtak // बाल समय रबि भक्षि लियो तब // Bal Samay Rabi Bhaksh Liyo Tab

संकटमोचन हनुमानाष्टक
मत्तगयन्द छन्द
( Bal Samay Ravi Bhaksh Liyo Tab)
बाल समय रबि भक्षि लियो तब
तीनहुं लोक भयो अंधियारो।
ताहि सो त्रास भयो जग को
यह संकट काहु सों जात न टारो॥

देवन आनि करी बिनती तब
छांड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥१॥

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि
जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महामुनि साप दियो तब
चाहिय कौन बिचार बिचारो॥

कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु
सो तुम दास के सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥२॥

अंगद के संग लेन गये सिय
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु
बिना सुधि लाए इहां पगु धारो॥

हेरि थके तट सिंधु सबै तब लाय
सिया-सुधि प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥३॥

रावन त्रास दई सिय को सब
राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु
जाय महा रजनीचर मारो॥

चाहत सीय असोक सों आगि सु
दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥४॥

बान लग्यो उर लछिमन के तब
प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत
तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥

आनि सजीवन हाथ दई तब
लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥५॥

रावन जुद्ध अजान कियो तब
नाग कि फांस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल
मोह भयो यह संकट भारो॥

आनि खगेस तबै हनुमान जु
बंधन काटि सुत्रास निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥६॥

बंधु समेत जबै अहिरावन
लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि
देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥

जाय सहाय भयो तब ही
अहिरावन सैन्य समेत संहारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥७॥

काज किये बड़ देवन के तुम
बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को
जो तुमसों नहिं जात है टारो॥

बेगि हरो हनुमान महाप्रभु
जो कछु संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥८॥

॥दोहा॥
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥