शनिवार, 26 जून 2010

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa

श्री शनि देव चालीसा || शनि देव मैं सुमिरौं तोही || Shri Shani Dev Chalisa || Shani Dev mai Sumirau Tohi || Shri Shani Chalisa 

दोहा 

श्री शनिश्चर देवजी

सुनहु श्रवण मम टेर।

कोटि विघ्ननाशक प्रभो

करो न मम हित बेर॥

सोरठा

तव स्तुति हे नाथ

जोरि जुगल कर करत हौं।

करिये मोहि सनाथ

विघ्नहरण हे रवि सुवन॥

चौपाई

शनि देव मैं सुमिरौं तोही

विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।

तुम्हरो नाम अनेक बखानौं

क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।


अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ

कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।

पिंगल मन्दसौरि सुख दाता

हित अनहित सब जग के ज्ञाता।


नित जपै जो नाम तुम्हारा

करहु व्याधि दुख से निस्तारा।

राशि विषमवस असुरन सुरनर

पन्नग शेष साहित विद्याधर।


राजा रंक रहहिं जो नीको

पशु पक्षी वनचर सबही को।

कानन किला शिविर सेनाकर

नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।


डालत विघ्न सबहि के सुख में

व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में।

नाथ विनय तुमसे यह मेरी

करिये मोपर दया घनेरी।


मम हित विषयम राशि मंहवासा

करिय न नाथ यही मम आसा।

जो गुड  उड़द दे वार शनीचर

तिल जब लोह अन्न धन बिस्तर।


दान दिये से होंय सुखारी

सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।

नाथ दया तुम मोपर कीजै

कोटिक विघ्न क्षणिक महं छीजै।


वंदत नाथ जुगल कर जोरी

सुनहुं दया कर विनती मोरी।

कबहुंक तीरथ राज प्रयागा

सरयू तोर सहित अनुरागा।


कबहुं सरस्वती शुद्ध नार महं

या कहु गिरी खोह कंदर महं।

ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि

ताहि ध्यान महं सूक्ष्म होहि शनि।


है अगम्य क्या करूं बड़ाई

करत प्रणाम चरण शिर नाई।

जो विदेश में बार शनीचर

मुड कर आवेगा जिन घर पर।


रहैं सुखी शनि देव दुहाई

रक्षा रवि सुत रखैं बनाई।

जो विदेश जावैं शनिवारा

गृह आवैं नहिं सहै दुखाना।


संकट देय शनीचर ताही

जेते दुखी होई मन माही।

सोई रवि नन्दन कर जोरी

वन्दन करत मूढ  मति थोरी।


ब्रह्‌मा जगत बनावन हारा

विष्णु सबहिं नित  देत अहारा।

हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी

विभू देव मूरति एक वारी।


इकहोइ धारण करत शनि नित

वंदत सोई शनि को दमनचित।

जो नर पाठ करै मन चित से

सो नर छूटै व्यथा अमित से।


हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े

कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।

पशु कुटुम्ब बांधन आदि से

भरो भवन रहिहैं नित सबसे।


नाना भांति भोग सुख सारा

अन्त समय तजकर संसारा।

पावै मुक्ति अमर पद भाई

जो नित शनि सम ध्यान लगाई।


पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस

रहै शनीश्चर नित उसके बस।

पीड़ा शनि की कबहुं न होई

नित उठ ध्यान धरै जो कोई।


जो यह पाठ करै चालीसा

होय सुख साखी जगदीशा।

चालिस दिन नित पढ़ै सबेरे

पातक नाशे शनी घनेरे।


रवि नन्दन की अस प्रभुताई

जगत मोहतम नाशै भाई।

याको पाठ करै जो कोई

सुख सम्पत्ति की कमी न होई।


निशिदिन ध्यान धरै मन माही

आधिव्याधि ढिंग आवै नाही।

दोहा

पाठ शनीश्चर देव को

कीन्हौं विमल तैयार।

करत पाठ चालीस दिन

हो भवसागर पार॥

जो स्तुति दशरथ जी कियो

सम्मुख शनि निहार।

सरस सुभाषा में वही

ललिता लिखें सुधार।

बुधवार, 23 जून 2010

श्री गंगा चालीसा || जय जय जय जग पावनी || Shri Ganga Chalisa || Jay Jay Jay Jag Pawani || Shri Ganga Stuti


दोहा


जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग॥

चौपाई

जय जग जननि अघ खानी, 
आनन्द करनि गंग महरानी।
जय भागीरथि सुरसरि माता, 
कलिमल मूल दलनि विखयाता।

जय जय जय हनु सुता अघ अननी, 
भीषम की माता जग जननी।
धवल कमल दल मम तनु साजे, 
लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे।

वाहन मकर विमल शुचि सोहै, 
अमिय कलश कर लखि मन मोहै।
जडित रत्न कंचन आभूषण, 
हिय मणि हार, हरणितम दूषण।

जग पावनि त्रय ताप नसावनि, 
तरल तरंग तंग मन भावनि।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, 
तिहुं ते प्रथम गंग अस्नाना।

ब्रह्‌म कमण्डल वासिनी देवी 
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी।
साठि सहत्र सगर सुत तारयो, 
गंगा सागर तीरथ धारयो।

अगम तरंग उठयो मन भावन, 
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, 
धरयौ मातु पुनि काशी करवट।

धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, 
तारणि अमित पितृ पद पीढ़ी ।
भागीरथ तप कियो अपारा, 
दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा।

जब जग जननी चल्यो लहराई, 
शंभु जटा महं रह्यो समाई।
वर्ष पर्यन्त गंग महरानी, 
रहीं शंभु के जटा भुलानी।

मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, 
तब इक बूंद जटा से पायो।
ताते मातु भई त्रय धारा, 
मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा।

गई पाताल प्रभावति नामा, 
मन्दाकिनी गई गगन ललामा।
मृत्यु लोक जाह्‌नवी सुहावनि, 
कलिमल हरणि अगम जग पावनि।

धनि मइया तव महिमा भारी, 
धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी।
मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, 
धनि सुरसरित सकल भयनासिनी।

पान करत निर्मल गंगाजल, 
पावत मन इच्छित अनन्त फल।
पूरब जन्म पुण्य जब जागत, 
तबहिं ध्यान गंगा महं लागत।

जई पगु सुरसरि हेतु उठावहिं, 
तइ जगि अश्वमेध फल पावहिं।
महा पतित जिन काहु न तारे, 
तिन तारे इक नाम तिहारे।

शत योजनहू से जो ध्यावहिं, 
निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं।
नाम भजत अगणित अघ नाशै, 
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।

जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, 
धर्म मूल गंगाजल पाना।
तव गुण गुणन करत सुख भाजत, 
गृह गृह सम्पत्ति सुमति विराजत।

गंगहिं नेम सहित निज ध्यावत, 
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै, 
रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै।

गंगा गंगा जो नर कहहीं, 
भूखे नंगे कबहूं न रहहीं।
निकसत की मुख गंगा माई, 
श्रवण दाबि यम चलहिं पराई।

महां अधिन अधमन कहं तारें, 
भए नर्क के बन्द किवारे।
जो नर जपै गंग शत नामा, 
सकल सिद्ध पूरण ह्वै कामा।

सब सुख भोग परम पद पावहिं, 
आवागमन रहित ह्वै जावहिं।
धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, 
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, 
सुन्दरदास गंगा कर दासा।
जो यह पढ़ै गंगा चालीसा, 
मिलै भक्ति अविरल वागीसा।

दोहा

नित नव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान।
अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमान॥
सम्वत्‌ भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र।
पूण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र॥


चित्र http://z.about.com/d/hinduism/1/G/I/_/goddess_ganga.jpg से साभार

रविवार, 20 जून 2010

श्री रामायण जी की आरती (Aarti Shri Ramayan Ji ki)


महर्षि वाल्मीकि



आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

गावत ब्रह्‌मादिक मुनि नारद।
बाल्मीकि बिग्यान बिसारद॥
सुक सनकादि सेष अरु सारद।
बरन पवनसुत कीरति नीकी॥१॥

गावत बेद पुरान अष्टदस।
छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस॥
मुनि जन धन संतन को सरबस।
सार अंस संमत सबही की॥ २॥

गावत संतत संभु भवानी।
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी।
कागभुसंडि गरुण के ही की॥३॥

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी।
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की॥
दलन रोग भव मूरि अमी की।
तात मात सब बिधि तुलसी की॥४॥

आरति श्री रामायण जी की।
कीरति कलित ललित सिय पी की॥

बोलो सिया वर राम चन्द्र की जय
पवन सुत हनुमान की जय।

गोस्वामी तुलसीदास
चित्र
http://www.exoticindiaart.com/panels/saints_of_india__goswami_tulsidas_wd70.jpg
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/3/3e/Valmiki_ramayan.jpg  से साभार

शुक्रवार, 18 जून 2010

आरती श्री शनि देव जी की Shri Shani Dev Ji Ki Aarti


जय जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी,
सूर्य पुत्र प्रभुछाया महतारी॥ जय जय जय शनि देव॥

श्याम अंग वक्र-दृष्टि चतुर्भुजा धारी,
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय ॥

क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी,
मुक्तन की माल गले शोभित बलिहारी॥ जय ॥

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी,
लोहा तिल तेल उड द महिषी अति प्यारी ॥ जय ॥

देव दनुज ऋषि मुनी सुमिरत नर नारी,
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥ जय जय जय श्री शनि देव॥

चित्र https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEy_SQIulH7s04NiW87PJGBaPOxZAywCSSZWQQNLNfT4XHNaqmEY0VW3pyJmiiq4cf5Mb7ytHfaOUVuePCuKUsWtjQPZhZY3yuHmrGgxuWLTzImCpnuXO1Yn1-yHxShjzAWaKXG6fANMnF/s1600/shani-dev.jpg से साभार

रविवार, 13 जून 2010

श्री जानकीनाथ जी की आरती (Shri Janki Nath Ji Ki Aarti)



ओउम जय जानकिनाथा,
हो प्रभु जय श्री रघुनाथा।
दोउ कर जोड़े विनवौं,
प्रभु मेरी सुनो बाता॥ ओउम॥

तुम रघुनाथ हमारे,
प्राण पिता माता।
तुम हो सजन संघाती,
भक्ति मुक्ति दाता ॥ ओउम॥

चौरासी प्रभु फन्द छुड़ावो,
मेटो यम त्रासा।
निश दिन प्रभु मोहि राखो,
अपने संग साथा॥ ओउम॥

सीताराम लक्ष्मण भरत शत्रुहन,
संग चारौं भैया।
जगमग ज्योति विराजत,
शोभा अति लहिया॥ ओउम॥

हनुमत नाद बजावत,
नेवर ठुमकाता।
कंचन थाल आरती,
करत कौशल्या माता॥ ओउम॥

किरिट मुकुट कर धनुष विराजत, 
शोभा अति भारी।
मनीराम दरशन कर, तुलसिदास दरशन कर, 
पल पल बलिहारी॥ ओउम॥

जय जानकिनाथा,
हो प्रभु जय श्री रघुनाथा।
हो प्रभु जय सीता माता,
हो प्रभु जय लक्ष्मण भ्राता॥ ओउम॥

हो प्रभु जय चारौं भ्राता,
हो प्रभु जय हनुमत दासा।
दोउ कर जोड़े विनवौं,
प्रभु मेरी सुनो बाता॥ ओउम॥

रविवार, 6 जून 2010

आरती गणेश जी की (Aarti Ganesh Ji Ki)

आरती गणेश जी की (Aarti Ganesh Ji Ki)



जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥

एक दंत दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे पे सिंदूर सोहे, मूसे की सवारी॥

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥

हार चढ़ै , फूल चढ़ै और चढ़ै मेवा।
लडुअन का भोग लागे, सन्त करें सेवा॥

दीनन की लाज राखो शंभु सुतवारी।
कामना को पूरा करो जग बलिहारी॥

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥


सब प्रेम से बोलो श्री गणेश भगवान की जय