सोमवार, 24 मई 2010

श्री हरसू ब्रह्‌म चालीसा || Shri Harsu Brahm Chalisa || हरसू ब्रह्म चैनपुर कैमूर || Harsu Brahm Chainpur Kaimur || Harsu Brahm Maharaj ji || हरसू ब्रह्‌म रूप अवतारी Harsu Brahm Rup Avatari

श्री हरसू ब्रह्‌म चालीसा || Shri Harsu Brahm Chalisa || हरसू ब्रह्म चैनपुर कैमूर || Harsu Brahm Chainpur Kaimur || Harsu Brahm Maharaj ji || हरसू ब्रह्‌म रूप अवतारी Harsu Brahm Rup Avatari



बाबा हरसू ब्रह्‌म के चरणों का करि ध्यान।
चालीसा प्रस्तुत करूं पावन यश गुण गान॥

हरसू ब्रह्‌म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी॥१॥

शिव अनवद्य अनामय रूपा।
जन मंगल हित शिला स्वरूपा॥ २॥

विश्व कष्ट तम नाशक जोई।
ब्रह्‌म धाम मंह राजत सोई ॥३॥

निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन ब्रह्‌म प्रतापी॥४॥

अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोइ शिव प्रकट ब्रह्‌म के रूपा॥५॥

जगत प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्‌म हुए विखयाता॥६॥

पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्‌म रूप धरि प्रकटेउ सोई॥७॥

मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्‌म सोई अन्तर्यामी॥८॥

भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस॥९॥

चैनपुर सुखधाम मनोहर।
जहां विराजत ब्रह्‌म निरन्तर॥१०॥

ब्रह्‌म तेज वर्धित तव क्षण-क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन-मन॥११॥

द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन-मन त्रासा॥१२॥

दे संतान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन-भय हरते॥१३॥

सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृत्ति कुल घालक तुम हो॥१४॥

कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई॥१५॥

भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा॥१६॥

परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै॥१७॥

पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुं हंसे फिर रोवै॥१८॥

तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत पिशाच ग्रस्त उर होई॥१९॥

तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने॥२०॥

तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत-पिशाच विकल होई भागे॥२१॥

नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहिं आवत॥२२॥

भांति-भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा॥२३॥

हरसू ब्रह्‌म के धाम पधारे।
श्रमित-भ्रमित जन मन से हारे॥२४॥

तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई॥२५॥

श्रद्धा अरू विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी॥२६॥

कृपा करहुं तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर॥२७॥

वर्ष-वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं॥२८॥

तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहुं भाव कुभाव निरन्तर॥२९॥

मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उन मध्य बिठावे॥३०॥

करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर॥३१॥

देखिहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा॥३२॥

सदा एक-रस जीवन भोगी।
ब्रह्‌म रूप तब होइहहिं योगी॥३३॥

यज्ञ-स्थल तव धाम शुभ्रतर।
हवन-यज्ञ जहं होत निरंतर॥३४॥

सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन॥३५॥

अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा॥३६॥

पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाष शीघ्रतर॥३७॥

नर-नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे॥३८॥

भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले॥३९॥

ब्रह्‌म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई॥४०॥

पूर्ण काम हरसू सदा, पूरण कर सब काम।
परम तेज मय बसहुं तुम, भक्तन के उर धाम॥

आभार
रचनाकार : श्री लालजी त्रिपाठी
व्याकरण साहित्याचार्य, एम०ए० द्वय, स्वर्णपदक प्राप्त
प्रकाशक : श्री रंगनाथ पाण्डेय (शिक्षक)
विक्रेता : पाण्डेय पुस्तक मंदिर, चैनपुर, कैमूर

रविवार, 23 मई 2010

आरती श्री काली मां की Aarti Kali Mata Ki

आरती श्री काली मां की Aarti Kali Mata Ki

आरती श्री काली मां की
मंगल की सेवा, सुन मेरी देवा, हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, ले ज्वाला तेरी भेंट धरे।

सुन जगदम्बे कर न विलम्बे, सन्तन के भण्डार भरे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

बुद्धि विधाता तू जगमाता, मेरा कारज सिद्ध करे।
चरण कमल का लिया आसरा, शरण तुम्हारी आन परे।

जब-जब भीर पड़े भक्तन पर, तब-तब आय सहाय करे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

बार-बार तैं सब जग मोह्‌यो, तरुणी रूप अनूप धरे।
माता होकर पुत्र खिलावै, कहीं भार्य बन भोग करे।

संतन सुखदाई सदा सहाई, सन्त खड़े जयकार करे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

ब्रह्‌मा, विष्णु, महेश फल लिए, भेंट देन तब द्वार खड़े।
अटल सिंहासन बैठी माता, सिर सोने का छत्र फिरे।

वार शनिश्चर कुमकुम वरणी, जब लंकुड पर हुक्म करे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

खंग खप्पर त्रिशूल हाथ लिए, रक्तबीज कूं भस्म करे।
शुम्भ-निशुम्भ क्षणहिं में मारे, महिषासुर को पकड दले॥

आदितवारि आदि की वीरा, जन अपने का कष्ट हरे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

कुपति होय के दानव मारे, चंड मुंड सब दूर करे।
जब तुम देखो दया रूप हो, पल में संकट दूर टरे।

सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता, जनकी अर्ज कबूल करे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

सात बार की महिमा बरनी, सबगुण कौन बखान करे।
सिंह पीठ पर चढ़ी भवानी, अटल भवन में राज करे।

दर्शन पावें मंगल गावें, सिद्ध साधन तेरी भेंट धरे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

ब्रह्‌मा वेद पढ़े तेरे द्वारे, शिव शंकर हरि ध्यान करे।
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती चंवर कुबेर डुलाय रहे।

जै जननी जै मातु भवानी, अचल भवन में राज्य करे।
संतन प्रतिपाली सदाखुशहाली, जै काली कल्याण करे॥

(चित्र http://purbia.50webs.com/images/goddownload.jpg से साभार)

मंगलवार, 18 मई 2010

अथ हरतालिका (तीज) पूजन विधि Hartalika Teej Vrat

अथ हरतालिका (तीज) पूजन विधि Hartalika Teej Vrat


हरतालिका (तीज) Hartalika Teej Vrat 



हरतालिका (तीज) व्रत धारण करने वाली स्त्रियां भादो महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन ब्रह्‌म मुहूर्त में जागें, नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, उसके पश्चात तिल तथा आंवला के चूर्ण के साथ स्नान करें फिर पवित्र स्थान में आटे से चौक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव पार्वती की पार्थिव-प्रतिमा (मिट्‌टी की मूर्ति) बनाकर स्थापित करें। तत्पश्चात नवीन वस्त्र धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि मैं आज तीज के दिन शिव पार्वती का पूजन करूंगी इसके अनन्तर ''श्री गणेशाय नमः'' उच्चारण करते हुए गणेश जी का पूजन करें। ''कलशाभ्यो नमः'' से वरुणादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें। चन्दनादि समर्पण करें, कलशमुद्रा दिखावें घन्टा बजावें जिससे राक्षस भाग जायं और देवताओं का शुभागमन हो, गन्ध अक्षतादि द्वारा घंटा को नमस्कार करें, दीपक को नमस्कार कर पुष्पाक्षतादि से पूजन करें, हाथ में जल लेकर पूजन सामग्री तथा अपने ऊपर जल छिड़कें। इन्द्र आदि अष्ट लोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें, इसके बाद अर्ध्य, पाद्य, गंगा-जल से आचमन करायें। शंकर-पार्वती को गंगाजल, दूध, मधु, दधि और घृत से स्नान कराकर फिर शुद्ध जल से स्नान करावें। इसके उपरान्त हरेक वस्तु अर्पण के लिए 'ओउम नमः शिवाय' कहती जाय और पूजन करें। अक्षत, पुष्प, धूप तथा दीपक दिखावें। फिर नैवेद्य चढ ाकर आचमन करावें, अनन्तर हाथों के लिए उबटन अर्पण करें। इस प्रकार के पंचोपचार पूजन से श्री शिव हरितालिका की प्रसन्नता के लिए ही कथन करें। फिर उत्तर की ओर निर्माल्य का विसर्जन करके श्री शिव हरितालिका की जयजयकार महा-अभिषेक करें। इसके बाद सुन्दर वस्त्र समर्पण करें, यज्ञोपवीत धारण करावें। चन्दन अर्पित करें, अक्षत चढ ावें। सप्तधान्य समर्पण करें। हल्दी चढ़ावें, कुंकुम मांगलिक सिन्दूर आदि अर्पण करें। ताड पत्र (भोजपत्र) कंठ माला आदि समर्पण करें। सुगन्धित पुष्प अर्पण करें, धूप देवें, दीप दिखावें, नैवेद्य चढावें। फिर मध्य में जल से हाथ धुलाने के लिए जल छोडेें और चन्दन लगावें। नारियल तथा ऋतु फल अर्पण करें। ताम्बूल (सुपारी) चढावें। दक्षिणा द्रव्य चढावें। भूषणादि चढावें। फिर दीपारती उतारें। कपूर की आरती करें। पुष्पांजलि चढावें। इसके बाद परिक्रमा करें। और 'ओउम नमः शिवाय' इस मंत्र से नमस्कार करें। फिर तीन अर्ध्य देवें। इसके बाद संकल्प द्वारा ब्राह्‌मण आचार्य का वायन वस्त्रादि द्वारा पूजन करें। पूजा के पश्चात अन्न, वस्त्र, फल दक्षिणा युक्तपात्र हरितालिका देवता के प्रसन्नार्थ ब्राह्‌मण को दान करें उसमें 'न मम' कहना आवश्यक है, इससे देवता प्रसन्न होते हैं। दान लेने वाला संकल्प लेकर वस्तुओं के ग्रहण करने की स्वीकृति देवे, इसके बाद विसर्जन करें। विसर्जन में अक्षत एवं जल छिड कें।

अथ हरतालिका व्रत कथा ( Hartalika Vrat Katha )


सूतजी बोले- जिल श्री पार्वतीजी के घुंघराले केश कल्पवृक्ष के फूलों से ढंके हुए हैं और जो सुन्दर एवं नये वस्त्रों को धारण करने वाली हैं तथा कपालों की माला से जिसका मस्तक शोभायमान है और दिगम्बर रूपधारी शंकर भगवान हैं उनको नमस्कार हो। कैलाश पर्वत की सुन्दर विशाल चोटी पर विराजमान भगवान शंकर से गौरी जी ने पूछा - हे प्रभो! आप मुझे गुप्त से गुप्त किसी व्रत की कथा सुनाइये। हे स्वामिन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसा व्रत बताने की कृपा करें जो सभी धर्मों का सार हो और जिसके करने में थोड़ा परिश्रम हो और फल भी विशेष प्राप्त हो जाय। यह भी बताने की कृपा करें कि मैं आपकी पत्नी किस व्रत के प्रभाव से हुई हूं। हे जगत के स्वामिन! आदि मध्य अन्त से रहित हैं आप। मेरे पति किस दान अथवा पुण्य के प्रभाव से हुए हैं?

शंकर जी बोले - हे देवि! सुनो मैं तुमसे वह उत्तम व्रत कहता हूं जो परम गोपनीय एवं मेरा सर्वस्व है। वह व्रत जैसे कि ताराओं में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य , वर्णों में ब्राह्‌मण सभी देवताओं में विष्णु, नदियों में जैसे गंगा, पुराणों में जैसे महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन, जैसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं। वेैसे पुराण वेदों का सर्वस्व ही इस व्रत को शास्त्रों ने कहा है, उसे एकाग्र मन से श्रवण करो। इसी व्रत के प्रभाव से ही तुमने मेरा अर्धासन प्राप्त किया है तुम मेरी परम प्रिया हो इसी कारण वह सारा व्रत मैं तुम्हें सुनाता हूं। भादों का महीना हो, शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि हो, हस्त नक्षत्र हो, उसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से मनुष्यों के सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। हे देवि! सुनो, जिस महान व्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर धारण किया था वह सबका सब पूरा वृतान्त मुझसे श्रवण करो।

श्रीपार्वती जी बोलीं- भगवन! वह सर्वोत्तम व्रत मैंने किस प्रकार किया था यह सब हे परमेश्वर! मैं आपसे सुनना चाहती हूं।

शिवजी बोले-हिमालय नामक एक उत्तम महान पर्वत है। नाना प्रकार की भूमि तथा वृक्षों से वह शोभायमान है। अनेकों प्रकार के पक्षी वहां अपनी मधुर बोलियों से उसे शोभायमान कर रहे हैं एवं चित्र-विचित्र मृगादिक पशु वहां विचरते हैं। देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण एवं गुह्‌यक प्रसन्न होकर वहां घूमते रहते हैं। गन्धर्वजन गायन करने में मग्न रहते हैं। नाना प्रकार की वैडूर्य मणियों तथा सोने की ऊंची ऊंची चोटियों रूपी भुजाओं से यानी आकाश पर लिखता हुआ दिखाई देता है। उसका आकाश से स्पर्श इस प्रकार से है जैसे कोई अपने मित्र के मन्दिर को छू रहा हो। वह बर्फ से ढका रहता है, गंगा नदी की ध्वनि से वह सदा शब्दायमान रहता है। हे पार्वती! तुने वहीं बाल्यावस्था में बारह वर्ष तक कठोर तप किया अधोमुख होकर केवल धूम्रपान किया। फिर चौसठ वर्ष पर्यन्त पके पके पत्ते खाये। माघ महीने में जल में खड़ी हो तप किया और वैशाख में अग्नि का सेवन किया। सावन में अन्न पान का त्याक कर दिया, एकदम बाहर मैदान में जाकर तप किया।

तुम्हारे पिताजी तुम्हें इस प्रकार के कष्टों में देखकर घोर चिन्ता से व्याकुल हो गये। उन्होंने विचार किया कि यह कन्या किसको दी जाय। उस समय ब्रह्‌मा जी के पुत्र परम धर्मात्मा श्रेष्ठ मुनि, श्री नारद जी तुम्हें देखने के लिए वहां आ गये। उन्हें अर्ध्य आसन देकर हिमालय ने उनसे कहा। हे श्रेष्ठ मुनि! आपका आना शुभ हो, बड़े भाग्य से ही आप जैसे ऋषियों का आगमन होता है, कहिये आपका शुभागमन किस कारण से हुआ।

श्री नारद मुनि बोले- हे पर्वतराज! सुनिये मुझे स्वयं विष्णु भगवान ने आपके पास भेजा है। आपकी यह कन्या रत्न है, किसी योगय व्यक्ति को समर्पण करना उत्तम है। संसार में ब्रह्‌मा, इन्द्र शंकर इत्यादिक देवताओं में वासुदेव श्रेष्ठ माने जाते हैं उन्हें ही अपनी कन्या देना उत्तम है, मेरी तो यही सम्मति है। हिमालय बोले - देवाधिदेव! वासुदेव यदि स्वयं ही जब कन्या के लिए प्रार्थना कर रहे हैं और आपके आगमन का भी यही प्रयोजन है तो अपनी कन्या उन्हें दूंगा। यह सुन कर नारद जी वहां से अन्तर्ध्यान होकर शंख, चक्र, गदा, पद्‌मधारी श्री विष्णु जी के पास पहुंचे।

नारद जी बोले- हे देव! आपका विवाह निश्चित हो गया है। इतना कहकर देवर्षि नारद तो चले आये और इधर हिमालय राज ने अपनी पुत्री गौरी से प्रसन्न होकर कहा- हे पुत्री! तुम्हें गरुणध्वज वासुदेव जी के प्रति देने का विचार कर लिया है। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर पार्वती अपनी सखी के घर गयीं और अत्यन्त दुःखित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं और विलाप करने लगीं। उन्हें इस प्रकार दुखित हो विलाप करते सखी ने देखा और पूछने लगी। हे देवि! तुम्हें क्या दुःख हुआ है मुझसे कहो। और तुम्हे जिस प्रकार से भी सुख हो मैं निश्चय ही वही उपाय करूंगी। पार्वती जी बोली- सखी! मुझे प्रसन्न करना चाहती हो तो मेरी अभिलाषा सुना। हे सखि! मैं कुछ और चाहती हूं और मेरे पिता कुछ और करना चाहते हैं। मैं तो अपना पति श्री महादेवजी को वर चुकी हूं, मेरे पिताजी इसके विपरीत करना चाहते हैं। इसलिए हे प्यारी सखी! मैं अब अपनी देह त्याग कर दूंगी।

तब पार्वती के ऐसे वचन सुन कर सखी ने कहा- पार्वती! तुम घबराओं नही हम दोनों यहां से निकलकर ऐसे वन में पहुंच जायेंगी जिसे तुम्हारे पिता जान ही नहीं सकेंगे। इस प्रकार आपस में राय करके श्री पार्वती जी को वह घोर वन में ले गई। तब पिता हिमालयराज ने अपनी पुत्री को घर में न देखकर इधर-उधर खोज किया, घर-घर ढूढ़ा किन्तु वह न मिली, तो विचार करने लगे। मेरी पुत्री को देव, दानव, किन्नरों में से कौन ले गया। मैंने नारद के आगे विष्णु जी के प्रति कन्या देने की प्रतिज्ञा की थी अब मैं क्या दूंगा। इस प्रकार की चिन्ता करते करते वे मूर्छित होकर गिर पड े। तब उनकी ऐसी अवस्था सुनकर हाहाकार करते हुए लोग हिमालयराज के पास पहुंचे और मूर्छा का कारण पूछने लगे। हिमालय बोले- किसी दुष्टात्मा ने मेरी कन्या का अपहरण कर लिया है अथवा किसी काल सर्प ने उसे काट लिया है या सिंह व्याघ्र ने उसे मार डाला है। पता नहीं मेरी कन्या कहां चली गयी, किस दुष्ट ने उसे हर लिया। ऐसा कहते-कहते शोक से संतप्त होकर हिमालय राज वायु से कम्पायमान महा-वृक्ष के समान कांपने लगे।

तुम्हारे पिता ने सिंह, व्याघ्र, भल्लूक आदि हिंसक पशुओं से भ्रे हुए एक वन से दूसरे वन में जा जा कर तुम्हें ढूढ़ने का बहुत प्रयत्न किया।

इधर अपनी सखियों के साथ एक घोर में तुम भी जा पहुंची, वहां एक सुन्दर नदी बह रही थी और उसके तट पर एक बड ी गुफा थी, जिसे तुमने देखा। तब अपनी सखियों के साथ तुमने उस गुफा में प्रवेश किया। खाना, पीता त्याग करके वहां तुमने मेरी पार्वती युक्त बालुका लिंग स्थापित किया। उस दिन भादों मास की तृतीया थी साथ में हस्त नक्षत्र था। मेरी अर्चना तुमने बड े प्रेम से आरम्भ की, बाजों तथा गीतों के साथ रात को जागरण भी किया। इस प्रकार तुम्हारा परम श्रेष्ठ व्रत हुआ। उसी व्रत के प्रभाव से मेरा आसन हिल गया, तब तत्काल ही मैं प्रकट हो गया, जहां तुम सखियों के साथ थी। मैंने दर्शन देकर कहा कि - हे वरानने! वर मांगो। तब तुम बोली- हे देव महेश्वर! यदि आप प्रसन्न हों तो मेरे स्वामी बनिये। तब मैंने 'तथास्तु' कहा- फिर वहां से अन्तर्धान होकर कैलाश पहुंचा। इधर जब प्रातःकाल हुआ तब तुमने मेरी लिंग मूर्ति का नदी में विसर्जन किया। अपनी सखियों के साथ वन से प्राप्त कंद मूल फल आदि से तुमने पारण किया। हे सुन्दरी! उसी स्थान पर सखियों के साथ तुम सो गई।

हिमालय राज तुम्हारे पिता भी उस घोर वन में आ पहुंचे, अपना खाना पीना त्यागकर वन में चारों ओर तुम्हें ढूढ़ने लगे। नदी के किनारे दो कन्याओं को सोता हुआ उन्होंने देख लिया और पहचान लिया। फिर तो तुम्हें उठाकर गोदी में लेकर तुमसे कहने लगे- हे पुत्री! सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं से पूर्ण इस घोर वन में क्यों आई? तब श्री पार्वती जी बोली- पिता जी! सुनिये, आप मुझे विष्णु को देना चाहते थे, आप की यह बात मुझे अच्छी न लगी, इससे मैं वन में चली आयी। यदि आप मेरा विवाह शंकर के साथ करें तो मैं घर चलूंगी नहीं तो यहीं रहने का मैंने निश्चय कर लिया है।

तब तुम्हारे पिता ने कहा कि एवमस्तु मैं शंकर के साथ ही तुम्हारा विवाह करूंगा। उनके ऐसा कहने पर ही तब तुम घर में आई, तुम्हारे पिता जी ने तब विवाह विधि से तुमको मुझे समर्पित कर दिया। हे पार्वती जी! उसी व्रत का प्रभाव है जिससे तुम्हारे सौभाग्य की वृद्धि हो गई। अभी तक किसी के सम्मुख मैंने इस व्रतराज का वर्णन नहीं किया। हे देवि! इस व्रतराज का नाम भी अब श्रवण कीजिए। क्योंकि तुम अपनी सखियों के साथ ही इस व्रत के प्रभाव से हरी गई, इस कारण इस व्रत का नाम हरितालिका हुआ।

पार्वती जी बोली- हे प्रभो! आपने इसका नाम तो कहा, कृपा करके इसकी विधि भी कहिये। इसके करने से कौन सा फल मिलता है, कौन सा पुण्य लाभ होता है और किस प्रकार से कौन इस व्रत को करे।

ईश्वर बोले- हे देवि! सुनो यह व्रत सौभाग्यवर्धक है, जिसको सौभाग्य की इच्छा हो, वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे। सबसे प्रथम वेदी की रचना करे उसमें ४ केले के खंभ रोपित करे, चारो ओर बन्दनवार बांधे, ऊपर वस्त्र बांधे विविध रंगों के और भी वस्त्र लगावे। उस मंडप के नीचे की भूमि को अनेको चंदनादिक सुगन्धित जल द्वारा लीपे, शंख, मृदंग आदि बाजे बजवाये। वह मंडप मेरा मंदिर है इसलिए नाना प्रकार के मंगलगीत वहां होने चाहिए। शुद्ध रेती का मेरा लिंग श्रीपार्वती के साथ ही वहां स्थापित करे। बहुत से पुष्पों के द्वारा गन्ध, धूप आदि से मेरा पूजन करे फिर नाना प्रकार के मिष्ठान्नादि और नैवेद्य समर्पित करें और रात को जागरण करे। नारियल सुपारियां मुसम्मियां, नीबू, बकुल, बीजपुर नारंगियां एवं और भी ऋतु अनुसार बहुत से फल, उस ऋतु में होने वाले नाना प्रकार के कन्द मूल सुगन्धित धूप दीप आदि सब लेकर इन मंत्रों द्वारा पूजन करके चढ़ावें।

मंत्र इस प्रकार है- शिव, शांत, पंचमुखी, शूली, नंदी, भृंगी, महाकाल, गणों से युक्त शम्भु आपको नमस्कार है। शिवा, शिवप्रिया, प्रकृति सृष्टि हेतु, श्री पार्वती, सर्वमंगला रूपा, शिवरूपा, जगतरूपा आपको नमस्कार है। हे शिवे नित्य कल्याणकारिणी, जगदम्बे, शिवस्वरूपे आपको बारम्बार नमस्कार है। आप ब्रह्‌मचारिणी हो, जगत की धात्री सिंहवाहिनी हो, आप को नमस्कार है। संसार के भय संताप से मेरी रक्षा कीजिए। हे महेश्वरि पार्वती जी। जिस कामना के लिए आपकी पूजा की है, हमारी वह कामना पूर्ण कीजिए। राज्य, सौभाग्य एवं सम्पत्ति प्रदान करें।

शंकर जी बोले- हे देवि! इन मंत्रों तथा प्रार्थनाओं द्वारा मेरे मेरे साथ तुम्हारी पूजा करे और विधिपूर्वक कथा श्रवण करे, फिर बहुत सा अन्नदान करे। यथाशक्ति वस्त्र, स्वर्ण, गाय ब्राह्‌मणों को दे एवं अन्य ब्राह्‌मणों को भूयसीदक्षिणा दे, स्त्रियों को भूषण आदि प्रदान करे। हे देवि! जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सात जन्मों तक उसे राज्य की प्राप्ति होती है, सौभाग्य की वृद्धि होती है और जो नारी भादों के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन व्रत नहीं धारण करती आहार कर लेती है वह सात जन्मों तक बन्ध्या रहती है एवं जन्म-जन्म तक विधवा हो जाती है, दरिद्रता पाकर अनेक कष्ट उठाती है उसे पुत्रशोक छोड़ता ही नहीं। और जो उपवास नहीं करती वह घोर नरक में पड ती है, अन्न के आहार करने से उसे शूकरी का जन्म मिलता है। फल खाने से बानरी होती है। जल पीने से जोंक होती है। दुग्ध के आहार से सर्पिणी होती है। मांसाहार से व्याघ्री होती है। दही खाने से बिल्ली होती है। मिठाई खा लेने पर चीटीं होती है। सभी वस्तुएं खा लेने पर मक्खी हो जाती है। सो जाने पर अजगरी का जन्म पाती है। पति के साथ ठगी करने पर मुर्गी होती है। शिवजी बोले- इसी कारण सभी स्त्रियों को प्रयत्न पूर्वक सदा यह व्रत करते रहना चाहिए, चांदी सोने, तांबे एवं बांस से बने अथवा मिट्‌टी के पात्र में अन्न रखे, फिर फल, वस्त्र दक्षिणा आदि यह सब श्रद्धापूर्वक विद्वान श्रेष्ठ ब्राह्‌मण को दान करें। उनके अनन्तर पारण अर्थात भोजन करें। हे देवि! जो स्त्री इस प्रकार सदा व्रत किया करती है वह तुम्हारे समान ही अपने पति के साथ इस पृथ्वी पर अनेक भोगों को प्राप्त करके सानन्द विहार करती है और अन्त में शिव का सान्निध्य प्राप्त करती है। इसकी कथा श्रवण करने से हजार अश्वमेध एवं सौ वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। श्री शिव जी बोले - हे देवि! इस प्रकार मैंने आपको इस सर्वश्रेष्ठ व्रत का माहात्म्य सुनाया है, जिसके अनुष्ठान मात्र से करोड ों यज्ञ का पुण्य फल प्राप्त होता है।

हरतालिका व्रत की सामग्री Hartalika Vrat Ki Samagri


केले के खम्भे, दूध, सुहाग पिटारी, गंगा जल, दही, तरकी, चूड़ी, अक्षत, घी, बिछिया, माला-फूल, शक्कर, कंघी, गंगा-मृत्तिका, शहर, शीशा, चन्दन, कलश, कलाई-नारा, केशर, दीपक, सुरमा, फल, पान, मिस्सी, धूप, कपूर, सुपारी, महाउर, बिन्दी, वस्त्र, सिंदूर, पकवान, यज्ञोपवीत, रोली और मिठाई।


Hartalika Teej Vrat Katha Puja Vidhi Mahtva Importance | Shiva-Parvati Puja | Fasting Rules

हरतालिका तीज व्रत कैसे करें। हरतालिका तीज व्रत, कथा एवं पूजा विधी। Hartalika Teej Information

रविवार, 9 मई 2010

सोलह सोमवार व्रत कथा Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi | 16 Somvar Vrat

अथ सोलह सोमवार व्रत कथा Ath Solah Somvar Vrat Katha Lyrics in Hindi


एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था। शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आज चौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जी ने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की और अन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी को कोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।

कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारण पूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें, संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्‌टी की तीन मूर्ति बनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवान शंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलह सोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।

पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बाद शिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होने का कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूप अप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती से पूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रत बतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला। उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया। फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्‌मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्‌मण कुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे। एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससे राजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्‌मण ने सोलह सोमवार का व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्य से मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया। पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसे राज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा के दिवंगत होने पर ब्राह्‌मण कुमार को गद्‌दी मिली। फिर वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा, परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जो आकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश कर देगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।

रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढिया ने इसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उड गई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तन चटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई। सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी कर आराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर की यह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईं जी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जी ने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया - मैंने पति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जी ने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजा को रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी की कृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी। राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे। मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानी के साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथा सुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है।

॥ बोलो शिवशंकर भोले नाथ की जय ॥

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रविवार, 2 मई 2010

अथ सोम प्रदोष कथा Ath Som Pradosh Katha Lyrics in Hindi

अथ सोम प्रदोष कथा Ath Som Pradosh Katha Lyrics in Hindi



पूर्वकाल में एक विधवा ब्राह्‌मणी अपने पुत्रों को लेकर ऋषियों की आज्ञा से भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती। भिक्षा में जो मिलता उससे अपना कार्य चलाती और शिवजी का प्रदोष व्रत भी करती। एक दिन उससे विदर्भ देश का राजकुमार मिला, जिसे शत्रुओं ने राजधानी से बाहर निकाल दिया था और उसके पिता को मार दिया था। ब्राह्‌मणी ने लाकर उसका पालन किया। एक दिन राजकुमार और ब्राह्‌मण बालक ने वन में गंधर्व कन्याओं को देखा। राजकुमार अंशुमती से बात करने लगा और उसके साथ चला गया, ब्राह्‌मण बालक घर लौट आया। अंशुमती के माता-पिता ने अंशुमती का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त के साथ कर दिया और शत्रुओं को परास्त कर विदर्भ का राजा बनाया। धर्मगुप्त को ब्राह्‌मण की याद रही और उसने ब्राह्‌मण कुमार को अपना मंत्री बना लिया। यथार्थ में यह शिवजी के प्रदोष व्रत का फल था। तभी से यह शिवजी का प्रदोष व्रत लोक प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत के प्रभाव से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
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